डॉ. शीतल प्रसाद महेन्द्रा
व्याख्याता, राजकीय महाविद्यालय, महुवा (दौसा)
प्रिंट मीडिया में विज्ञान प्रसार
प्रिंट माध्यमों में विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी सम्बन्धी सामग्री के प्रकाशन को बढ़ावा देने के लिए विज्ञान पृष्ठ परियोजना महत्त्वपूर्ण प्रयास था। इसके अन्तर्गत विज्ञान सम्बन्धी सामग्री का एक पूरा पृष्ठ तैयार किया जाता था। भारतीय समाचार-पत्रों के लिए यह अनुभव अनूठा था। इस परियोजना के पीछे यह परिकल्पना थी कि मध्यम एवं लघु श्रेणी के समाचार-पत्रों के लिए विज्ञान एवं तकनीक के विकास से सम्बन्धित समाचारों-फीचर, ग्राफिकों एवं उपयुक्त चित्रों से सुसज्जित अखबार के आकार का एक पूरा पृष्ठ तैयार किया जाए। पृष्ठ इस ढंग से बनाया जाता था कि अखबारों में इसे ज्यों का त्यों छापा जा सकता था। इस परियोजना के तहत तैयार किए गए हिन्दी के विज्ञान पृष्ठों का उपयोग महीनें में एक या दो बार देशभर में फैले लगभग 21 समाचार-पत्रों के 30 से ज्यादा संस्करणों में किया जाता था। इन अखबारों की सम्मिलित प्रसार संख्या 25 लाख प्रतियों से भी अधिक थी। प्रिंट माध्यमों, विशेषकर आम लोगों से जुड़े बड़ी प्रसार संख्या वाले हिन्दी समाचार-पत्रों में विज्ञान एवं तकनीकी सम्बन्धी सामग्री के प्रकाशन को बढ़ावा देने में इस परियोजना ने बड़ी भूमिका निभाई।
दिसम्बर, 1997 में रोजगार समाचार में विज्ञान जगत (वल्र्ड ऑफ साइंस) शीर्षक से एक स्तंभ शुरू किया। इसका उद्देश्य विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी सम्बन्धी जनरुचि हेतु पर्याप्त सूचनाएँ उपलब्ध कराना था। दिल्ली, लखनऊ और पटना से एक साथ प्रकाशित होने वाला हिन्दी का अग्रणी समाचार-पत्र हिंदुस्तान हर गुरुवार को हिंदुस्तान विज्ञान प्रसार विज्ञान ज्ञान पहेली नामक स्तंभ नियमित रूप से प्रकाशित कर रहा है। इस प्रतियोगिता के विजेताओं को विज्ञान प्रसार विभाग पुरस्कृत करता है। यह स्तंभ पाठकों में काफी लोकप्रिय है और इसमें भाग लेने वाले पत्रों और प्रविष्टियों की संख्या निरन्तर बढ़ती जा रही है।
भारत सरकार के प्रकाशन विभाग की ओर से प्रकाशित बाल पत्रिका बाल भारती में दो नियमित स्तंभ शुरू किए गए हैं। पहले स्तंभ का नाम है, बाल भारती-विज्ञान प्रसार-विज्ञान जिज्ञासा और दूसरे स्तंभ का नाम है विज्ञान प्रसार-विज्ञान वर्ग पहेली। ये दोनों स्तंभ पाठकों में लोकप्रिय हो रहे हैं। विज्ञान प्रसार ने सिविल सर्विसेज क्रॉनिकल नाम की प्रतियोगिता पत्रिका में विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी सम्बन्धी प्रश्नोत्तर प्रतियोगिता पृष्ठ शुरू किया है। स्तंभ का शीर्षक है- ‘क्रॉनिकल-विज्ञान प्रसार-विज्ञान ज्ञान प्रतियोगिता’, इसके प्रकाशन का उद्देश्य विभिन्न प्रतियोगी परीक्षाओं में भाग लेने वालों की विज्ञान एवं तकनीक सम्बन्धी जिज्ञासाओं का उत्तर देना है।
हिन्दी विज्ञान पत्रकारिता
वैसे तो विज्ञान लेखन की शुरुआत उन पुराने ग्रंथों से मानी जा सकती है, जिनमें चिकित्सा, खगोल और रसायन शास्त्रीय प्रकरणों का समावेश है, लेकिन आधुनिक विज्ञान पत्रकारिता की शुरुआत 19वीं शताब्दी के आरम्भ से होती है। यद्यपि स्पष्ट रूप से हिन्दी विज्ञान पत्रिका और पुस्तकों का प्रकाशन तो बाद में आरम्भ हुआ, पर सामान्य समाचारपत्र-पत्रिकाओं में सामान्य विज्ञान के लेख तथा समाचार पहले छपने शुरू हुए। वहीं से हिन्दी विज्ञान पत्रकारिता का सूत्रपात माना जा सकता है। यह संयोग ही कहा जाएगा कि हिन्दी पत्रकारिता के बिल्कुल साथ ही हिन्दी विज्ञान पत्रकारिता भी आरम्भ हुई।
अप्रैल 1818 में सीरामपोर (श्रीरामपुर) जिला हुगली, बंगाल के बेपटिस्ट मिशनरियों ने बांग्ला और अंग्रेजी में मासिक ‘दिग्दर्शन’ शुरू किया। इसके सम्पादक क्लार्क मार्शमैन (1993-1877) थे। बाद में उसका हिन्दी रूपान्तर भी प्रकाशित किया जाने लगा जिसके लिए दिल्ली से कैप्टन गावर द्वारा दो विद्वान भेजे गए। इसके पहले अंक में दो विज्ञानपरक लेख थे, एक तो अमेरिका की खोज और दूसरा बैलून (गुब्बारा) द्वारा आकाश यात्रा के बारे में। दूसरे अंक में भी दो लेख विज्ञानपरक थे, एक तो हिंदुस्तान में उगने वाले किन्तु इंग्लैंड में न उगने वाले वृक्ष और दूसरा भाप की शक्ति से चलने वाली नाव (स्टीम बोट) के बारे में था।
हिन्दी विज्ञान लेखन और पत्रकारिता के व्यक्तिगत प्रयासों में पं. लक्ष्मीशंकर मिश्र की खासी भूमिका रही। उन्होंने अपने निजी प्रयासों से 1882 में बनारस से साप्ताहिक काशी पत्रिका का प्रकाशन आरम्भ किया। काशी पत्रिका का हिन्दी में विज्ञान सामग्री प्रस्तुत करने में उल्लेखनीय योगदान रहा। इसके मुखपृष्ठ पर पत्रिका के नाम के नीचे हिन्दी, अंग्रेजी और उर्दू में एक विशेष वाक्य छपता था-‘ए वीकली एजूकेशनल जर्नल ऑव साइंस, लिटरेचर एंड न्यूज इन हिंदुस्तानी’। इसमें भरपूर शैक्षिक और वैज्ञानिक रचनाएँ होती थीं। पं. लक्ष्मीशंकर मिश्र इसके सम्पादक थे। वे भौतिक विज्ञान में स्नातकोत्तर थे और बनारस कॉलेज में भौतिक विज्ञान के प्राध्यापक थे। वे बनारस के जिला विद्यालय निरीक्षक भी रहे। काशी पत्रिका को पहली हिन्दी विज्ञान पत्रिका की दिशा में एक अच्छा प्रयास माना जाता है। काशी पत्रिका प्रकाशित करने के साथ ही उन्होंने लोकप्रिय विज्ञान पर विभिन्न पुस्तकें भी लिखीं। उन्होंने विभिन्न लक्ष्य समूहों के बीच विज्ञान के विभिन्न रोचक विषयों पर लोकप्रिय व्याख्यान दिए। वे स्वयं काशी पत्रिका के नियमित लेखक भी थे तथा नियमित स्तंभों हेतु सामग्री न मिलने पर खुद ही स्तंभ लिख डालते थे। इन दिनों विज्ञान प्रसार लेखन में डॉ. मनोज पटैरिया का उल्लेखनिय योगदान है।
हिन्दी में विज्ञान लेखन
यशस्वी विज्ञान लेखक डॉ. यतीश अग्रवाल ने श्रीमद्भागवद् गीता का उल्लेख करते हुए लिखा है-
न त्वहं कामये राज्यं, न स्वर्गम् नापुनर्भवम्।
कामये दु:खतप्तानां प्राणिनामार्ति नाशनम्।।
यानी कि मुझे न तो स्वर्ग की अभिलाषा है, न राज्य सिंहासन की चाहत और न ही मैं पुनर्जन्म की कामना रखता हूँ। मेरी मनोकामना यह है कि मैं दु:ख और कष्ट से घिरे प्राणियों के काम आ सकूँ और उनका दु:ख मिटा सकूँ। मेरी समझ से ज्ञान विज्ञान का सरित प्रवाह जन-जन तक पहुँचाना इसी परम् धर्म का एक हिस्सा है। यों तो यह सोच विज्ञान की हर धारा पर लागू होती है, लेकिन चिकित्सा और स्वास्थ्य विज्ञान के साथ इसका सम्बन्ध अन्तरंग है। तन और मन के बारे में वैज्ञानिक जानकारी देना, स्वस्थ, समग्र और सन्तुलित जीवन शैली से लोगों का परिचय कराना, रोगों का व्यावहारिक ज्ञान देना और इस विज्ञान में जो कुछ नया हो रहा है उसे जन सामान्य तक पहुँचाना हर वैज्ञानिक और चिकित्सक का फर्ज है। इसी से सर्वे भवंतु सुखिन:, सर्वे संतु निरामय:, सर्वे भद्राणि पश्यंतु, मा कश्चिद् दुख भाक् भवत् की मंगलकारी भावना सच हो सकती है।
चारों तरफ मुँह बाए खड़े रोगों की रोकथाम, बेहतर स्वास्थ्य और किसी रोग के हो जाने पर निर्भीकता के साथ जिंदगी जीने की कला, आम आदमी को सिखा पाना सच्चे चिकित्सक का पहला धर्म है। इसी से समाज में फैले तरह-तरह के अंधविश्वास, मिथक और भ्रांतियाँ मिट सकती हैं और लोग वैज्ञानिक सच्चाइयों को आत्मसात कर अपने भीतर ज्ञान का दिया रोशन कर सकते हैं। यह पुनीत कार्य कई माध्यमों से किया जाता है- फिल्म, नुक्कड़ नाटक, किताबें, पत्र-पत्रिका, रेडियो, टेलीविजन और इंटरनेट इसकी कुछ प्रमुख कडियाँ हैं। पर इन सभी माध्यमों को जीवंत और सशक्त बनाने के लिए सबसे पहली जरूरत साफ-सुथरे, प्रवाहमय, सरस विज्ञान लेखन की है। अब सवाल यह उठता है कि यह लेखन कौन करे? वैज्ञानिक, जिसे विषय की अन्तरंग समझ है या एक साहित्यकार, जिसके पास शब्द हैं, भाषा है, मुहावरे हैं और अभिव्यक्ति की सुलभता है? सवाल टेढ़ा है क्योंकि न तो जटिल, उबाऊ, शुष्क वैज्ञानिक साहित्य इस दायित्व को पूरा करने में कामयाब हो सकता है, न ही कोई ऐसा साहित्यकार यह कार्य ईमानदारी से कर सकता है, जिसके पास विषय की समझ नहीं है। दरअसल दोनों यानी विज्ञान और साहित्य के संगम से ही जनसुलभ वैज्ञानिक साहित्य का सृजन हो सकता है। भाषा में प्रवीणता और वैज्ञानिक विषयों में पारंगतता दोनों के मेल से ही उत्कृष्ट विज्ञान साहित्य जन्म ले सकता है। निश्चित है इस जन्म की प्रसव पीड़ा से गुजरना हमारी नियति है। विज्ञान लेखन से जुड़ा दूसरा अहम सवाल भाषा का है। मेरी समझ से मातृभाषा ही ज्ञान विज्ञान पढने-पढ़ाने का सबसे सफल माध्यम हो सकती है। मौलिक सोच के विकास और वृद्धि के लिए भी जरूरी है कि जिस जुबान को सुनते बोलते हमने होश सँभाला, उसी में हम पढ़ें-लिखें और सोचें-विचारें।
चिकित्सा विज्ञान के क्षेत्र में यह बात और भी अहम हो जाती है। क्योंकि बीमार आदमी अपनी परेशानी अपनी मातृभाषा में ही बेहतर व्यक्त कर सकता है। जब तक लेखन में लोक प्रचलित भाषा और मुहावरों की सुगंध न हो, तब तक जनसामान्य न तो उससे खुद को जोड़ सकता है, न ही उसमें दिलचस्पी रख सकता है। इसी क्रम में जयपुर के चिकित्सक डॉ. श्रीगोपाल काबरा का ’नेपथ्य के दावेदार’ उपन्यास बहुत ही वैज्ञानिक जानकारी देने वाला उपन्यास है।
प्रख्यात् पर्यावरणविद् और डाउन टू अर्थ पत्रिका के संस्थापक डॉ. अनिल अग्रवाल ने कहा था – भारतवर्ष के करीब एक अरब नागरिकों में से अधिकांश अभी भी अशिक्षित हैं। शिक्षित व्यक्तियों में भी अगर उन व्यक्तियों को गिना जाए जो विज्ञान और तकनीक की आधुनिकतम जानकारी रखते हैं तो ये संख्या और कम हो जाती है। भारतवर्ष में अगर विज्ञान की जानकारी को जनमानस तक पहुँचाना है तो मीडिया यानी रेडियो, टेलीविजन और समाचार-पत्रों इत्यादि को इसमें काफी काम करना होगा। ज्यादा से ज्यादा वैज्ञानिकों को आम आदमी की भाषा में लिखना होगा ताकि ये जानकारी ज्यादा से ज्यादा लोगों तक आसानी से पहुँच सके। विज्ञान लेखकों को यह बात खूब अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए कि वे वैज्ञानिकों के लिए या बुद्धिजीवियों के लिए नहीं लिख रहे हैं। हम एक आम आदमी के लिए लेख लिख रहे हैं जो ऑफिस के बाद घर आता है और जाहिर है थोड़ा आराम चाहता है। ऐसे में आम आदमी फिल्मी पत्रिका या अखबार उठा लेता है, जिसमें उसे अपना दिमाग ज्यादा नहीं लगाना पड़ता। वह कुछ ऐसा पढना चाहता है जिसे वह अपने चाय के प्याले के साथ आराम से बिना दिमाग पर जोर लगाए पढ़ सके। अंग्रेजी में इसे काफी टाइम रीडिंग कहा गया है। हमें विज्ञान इस तरह लिखना होगा- हमारी भाषा शैली इस तरह की होनी चाहिए कि वह विज्ञान का लेख आम पाठक तक पहुँच जाए और पाठक खुशी-खुशी विज्ञान की पत्रिका को उठाए न कि फिल्मी मैगजीन या अखबार को। भाषा-शैली कुछ ऐसी ही हो जैसे अखबार या फिल्म मैगजीन की होती है। यानी बिल्कुल साधारण और आम भाषा में ऐसा कहने में कुछ व्यक्तियों को शायद विरोधाभास का अनुभव हो लेकिन ऐसा बिल्कुल नहीं है। सर्वविदित है कि भाषा-शैली जितनी साधारण और आसान होगी उतनी जल्दी ही पाठक उसे समझ पाएगा और उसे आगे पढने की उत्सुकता होगी। लेख कुछ इस तरह लिखें कि पाठक की जिज्ञासा उस विषय में तुरन्त जाग्रत हो जाए और वह यह जानने के लिए आतुर हो उठे कि देखें इस प्रश्न का उत्तर क्या है। मंगल पर जीवन की बात लें या मानव हृदय प्रत्यारोपण का आधुनिकतम ऑपरेशन-भाषा-शैली कुछ इस तरह की हो कि पाठक की जिज्ञासा पहली पंक्ति से ही जागृत हो जाए। आधुनिक शोध से पता चला है कि जब भी पाठक कोई पत्रिका उठाता है तो जिज्ञासावश पहली 1-2 पंक्तियाँ जरूर पढ़ता है। ये पंक्तियाँ नीरस होने पर पाठक जल्दी ही पृष्ठ उलट देता है और लेखक की सारी मेहनत बेकार हो जाती है। असल में यह कुछ-कुछ चैनल सर्फिंग जैसा है जिसमें एक दर्शक अपनी बोरियत दूर करने के लिए चैनल पर चैनल बदलता रहता है और उसी चैनल पर आकर रुकता है जो उसे आकर्षित लगता है। यहीं नहीं, उस प्रोग्राम में भी बोरियत महसूस होने पर वह फिर चैनल बदल लेता है। बिल्कुल यही विज्ञान लेखों के साथ भी है। विज्ञान लेखों के अलावा भी कई और विषयों पर सामग्री होती है जैसे राजनीति, सामयिक खेलकूद जगत की खबरें इत्यादि। अगर विज्ञान लेख साधारण भाषा में नहीं लिखा गया है तो विज्ञान का पन्ना बाकी पन्नों में दब कर रह जाएगा। एक और बात जो शोध से पता चली है वह यह कि विज्ञान लेखन में उपमाएँ ज्यादा से ज्यादा दें। कोशिका को कोशिका न लिख कर एक नगर से उपमा दें, जिसमें न्यूक्लिअस उस नगर की केन्द्रीय सरकार हो। एंडोप्लास्मिक रैटीक्यूलम उस नगर की फैक्ट्रियाँ हों, इत्यादि। उपमाओं से पाठक तुरन्त अपने दिमाग में एक चित्र सा बना लेता है और यह चित्र फिर काफी देर तक उसके दिमाग में बना रहता है। अगर उपमाएँ नहीं दी जाएँगी तो पाठक अपने दिमाग में कोई सीधा-सीधा चित्र नहीं बना पाएगा और उसे कोई भी तथ्य ज्यादा समय तक याद नहीं रह पाएगा। 11 जनवरी 2009 को राजस्थान पत्रिका में प्रकाशित मेरा ’फल सब्जियों को अनुठी खुराक’ लेख इसी प्रकार का है।
विज्ञान हास्य व्यंग्य
लखनऊ विश्वविद्यालय के विज्ञान संचार संस्थान के पूर्व निदेशक प्रो. भूमित्र देव ने विज्ञान में व्यंग्य लेखन पर सटीक विचार दिए। सफलता का राज आज मुख्यत: इस बात में छिपा है कि आप अपनी बात कितनी कुशलता से सही स्थान तक पहुँचा पाते हैं। सूचना युग ने हमें अपनी बात दूसरों को समझाने के लिए नए मंत्र सिखाए हैं। सम्प्रेषण को कला, विज्ञान और तकनीक के विलक्षण पंख प्रदान किए हैं। जानकर भागने या भागकर जानने के दोनों विकल्प खोले हैं। पृथक और ग्रहीता दोनों पक्षों के बीच फैले सूत्रों को सबल, सघन और तेज किया है। उनमें आकर्षण और जीवंतता भरी है। सम्प्रेषण के सबल तथा दृश्य क्षेत्रों का विस्तार हुआ है। दोनेां को बातचीत की संज्ञा दी जा सकती है। कभी-कभी सही शब्द बोले जाने पर भी श्रोता गलत समझता है। कभी-कभी हम गलत बोलते हैं किन्तु सुनने वाला सटीक समझता है जैसे दालचीनी में न दाल है न चीनी। गुलाब जामुन में न गुलाब है न जामुन। ट्रेन के रुकने पर हम कहते हैं स्टेशन आ गया जब कि आई ट्रेन। हम पूछते हैं सडक़ किधर जा रही है जबकि जाते हम हैं। हम कहते गलत हैं समझते सही हैं।
हास्य और व्यंग्य में सूचना प्रवाह में अन्तर है। हास्य सोच मुक्त है, व्यंग्य सोच युक्त। हास्य से संप्रेषण तेज, उसका विस्तार अधिक, प्रभाव छिछला तथा कम समय तक रहता है। व्यंग्य के माध्यम से संप्रेषण की गति धीमी, विस्तार कम, किन्तु प्रभाव गहरा तथा देर तक बना रहता है। सतसैया के दोहे जैसा ‘‘सतसैया के दोहरे ज्यों नाविक के तीर, देखन में छोटे लगें घाव करें गंभीर।’’
हिन्दी विज्ञान कथा
विज्ञान और प्रौद्योगिकी के अन्तरराष्ट्रीय और राष्ट्रीय विकास के साथ ही विज्ञान पत्रकारिता और विज्ञान लेखन का विकास हुआ। विज्ञान के क्षेत्र में नित नई उपलब्धियों औा नवाचारों के परिप्रेक्ष्य में विज्ञान समाचार, रिपोर्ताज, स्तंभ, फीचर, विज्ञान कविता और वैज्ञानिकों के साक्षात्कार प्रकाषित- प्रसारित होते हैं।
वैज्ञानिक और औधोगिक प्रगति के साथ विदेशों में विज्ञान कथा साहित्य का सृजन उन्नीसवीं शताब्दी में ’’मेरी शैली’’ के उपन्यास ‘फ्रैकेनस्टीन’ से मानी जाती है। इसकी रचना ‘लुइगी गेलवानी’ के प्रयोग के आधार पर की गई थी। जिसमें मनुष्य के मृत शरीर से एक दैत्य तैयार किया। यह दैत्य विनाष करता हैं और अन्त में गायब हो जाता हैं। जूल्स वर्ने और एच. जी. वैल्स विज्ञान कथा लेखन के जनक माने जाते हैं। जूल्स वर्ने ने 1863 में अपना पहला उपन्यास ‘बैलून में पाँच सप्ताह’ लिखा। एच. जी. वैल्स का पहला उपन्यास ‘द टाइम मषीन’ 1888 में प्रकाषित हुआ।
विज्ञान गल्प में लेखक अपनी कल्पनाओं से वैज्ञानिक तथ्यों के ताने-बाने से संभावनाओं का संसार बुनता हैं कि कैसा होगा कल का संसार मानव का भविष्य क्या हैं ? विज्ञान और प्रौधोगिकी का विकास कल मनुष्य को क्या देगा ? आदि-आदि। भारत में विज्ञान प्रगति में सन् 1990 से विज्ञान गल्प प्रकाषित हो रहे हैं।
प्रसिद्ध साइंस फिक्शन लेखक आइजक असिमोव के अनुसार हर विज्ञान कथाकार भविष्य में झांकता हैं। कल तक मंगल ग्रह पर यान भेजना, कम्प्यूटर, राडार और रोबोट महज कल्पनाऐं थी लेकिन वे आज असलियत बन चुकी हैं। आज ज्ञान दर्षन व कृषि दर्षन चेनलों पर भी ज्ञान की बात कहानियों का आधार लेकर ही समझाई जाती हैं।
प्रेमानन्द चन्दोला ने ‘वनस्पति मानव’ के अतिरिक्त विज्ञान नाटकों की भी रचना की उनका ‘बैक्टीरिया अदालत’ नाटक बैक्टीरिया की समझ को कथानक के स्तर पर उनकी कहानियों की अलग पहचान देता हैं।
देवेन्द्र मेवाड़ी की उपन्यासिका ‘सभ्यता की खोज’ ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’ में 1970 में प्रकाशित हुई। इसमें बुद्धिमान मषीनों पर अतिनिर्भरता के संकट के बारे में बताया गया हैं। उनकी एक लम्बी विज्ञान कथा ‘भविष्य’ (1985) में उन्होंने हिमीकरण के बाद शरीर को पुन: वर्षो बाद जीवित करने से उत्पन्न स्थितियों का विष्लेषण किया। बंगला में पहली विज्ञान कथा ‘तुफान पर विजय’ सर डॉ. जगदीष चंद्र बसु ने 1897 में लिखी थी।
‘‘फसलें कहे कहानी’’ देवेन्द्र मेवाड़ी की एक पूरी शृंखला बद्ध रचना है जिसके माध्यम से वे फसलों के गुण एवं उन्हें उगाने की विधि जलवायु आदि का बहुत ही रोचक तरिके से वर्णन करते हैं।
कुछ कहानियाँ जो विज्ञान के संचार को सहज बनाती हैं।
- अन्तिम निर्णय – सुभाष लखेरा – इसमें क्रायोनिक्स तकनीक एवं स्टेम सेल संवर्धन पर प्रकाश डाला गया हैं, जिससे प्रयोगशालाओं में मानव अंग विकसित किये जा सकते हैं।
- जीन पावर – साबिर हुसैन – इसमें बताया गया है कि भविष्य में रोडियों सक्रियता, ओजोन क्षरण, आणविक एवं परमाणु युद्ध का कितना विनाषकारी प्रभाव होगा कि पेड़ पौधे मात्र बोनसाई पेड़ों की तरह दिखावे की वस्तु रह जायेंगें पृथ्वी वृक्षहीन होने पर जलवायु परिवर्तन के भयंकर परिणाम हमें भुगतने पडेंगें। ऑक्सीजन छोडऩे वाले पौधों की चोरियाँ भी होने लगेंगी क्योंकि प्राणवायु की भयंकर कमी हो जायेगी।
- ‘‘जीवाणु जिसके कारण चूका एक नोबेल पुरस्कार’’ में अनिल अग्रवाल बहुत आसान तरिके से कहानी के रूप में जीवाणु के बारे में बताते हैं एवं नोबल पुरस्कार के बारे मे समझाते हैं।
- जीन थेरेपी (विज्ञान नाटक) – रजनी मोहगांवकर, इसमें बताया गया हैं कि दोषपूर्ण जीनों का विस्थापन अथवा सामान्य जीन में रूपांतरण कर आनुवंषिक बीमारियों का उपचार ही जीन थेरेपी कहलाता हैं। इसकी असीमित क्षमताओं ने मानव जीवन में नई आषाओं का संचार किया हैं। इस तकनीक से वांछित गुणों वाला बच्चा जिसे डिजाईण्ड्ड बेबी कहा जाता है प्राप्त किया जाना संभव है।
- ‘शून्य कैलोरी आहार’ – सुबोध जावड़ेकर, इसमें पोषण पर सहज भाव से चर्चा की गई हैं कि अतिपोषण एवं कुपोषण (न्यूनपोषण) दोनों ही घातक हैं। आज किस तरह लड़कियाँ तथाकथित फिगर मेंटीनेंस के नाम पर शून्य कैलोरी आहार के कारण कुपोषण का शिकार हो रहीं हैं जिनमें आज एनिमिया आम बिमारी हो गई है।
- न हन्यते – सुकन्य दत्ता, इसमें ब्रेन डेथ और हार्ट डेथ के बारे में समझाया गया हैं और बताया गया हैं कि किस प्रकार ब्रेन डेथ वाले मरीज के अंग ट्रान्सप्लाट कर दिये जाते हैं दूसरे मरीज को बचाने के लिए।
- सूरज के आंगन में (धारावाहिक) – देवेंद मेवाड़ी – इसमें मेवाड़ी ने हमारी पृथ्वी एवं शेष आठों ग्रहों एवं उनके उपग्रहों की जानकारी खेल-खेल में करा दी हैं। जिसे हम जटिल समझकर छोड़ते हैं वह भी कथा के रूप में सहज हो जाता है।
इनके अलावा- विश्व कीर्तिमान (तीन भाग) – बाल फोंडके, शक्ति संकेत – रामजी लाल दास, राज करेगा रोबोट – अरविन्द मिश्र, अदृश्य मानव – अमित कुमार, मानव क्लोन एवं तृतीय विश्व युद्ध – हरीश गोयल, अन्तदाता – अरविन्द मिश्रा आदि अनेक कहानियाँ हैं जिन्होने विज्ञान संचार में महती भूमिका निभाई हैं और यह कार्य अनवरत जारी है। कहानी नाटक आदि के द्वारा किसी प्रयोग या तथ्य को समझाना आसान होता हैं और यह स्मृति में भी अधिक समय तक स्थायी रहते हैं। अत: इसमें कोई संषय नहीं हैं कि विज्ञान संचार में विज्ञान फिक्शन का विषेष योगदान हैं।
आजकल हिन्दी विज्ञान पत्रकारिता अपने कई नये स्वरूपों में संस्कारित हो रही है। यथा-
- चिकित्सा विज्ञान पत्रकारिता
- अंतरिक्ष विज्ञान पत्रकारिता
- कृषि विज्ञान पत्रकारिता
- वन और वन्य जीवन पत्रकारिता
- प्राकृतिक विज्ञान पत्रकारिता
- खेल विज्ञान पत्रकारिता
- रक्षा विज्ञान पत्रकारिता
- विविध विज्ञान पत्रकारिता
विगत वर्षों के प्रमुख हिन्दी समाचार पत्रों के अनुसंधान से यह स्पष्ट हुआ है कि अंतरिक्ष विज्ञान और चिकित्सा विज्ञान पत्रकारिता का कवरेज सबसे अधिक है। ये लगभग एक दूसरे की प्रतिद्वन्द्विता करती हुई 31 प्रतिषत (अंतरिक्ष) 27 प्रतिषत (चिकित्सा) की हिस्सेदारी करती है।
ज्यादा प्रसार वाले राजस्थान पत्रिका एवं भास्कर में विज्ञान प्रसार की पर्याप्त खबरे प्रकाषित होती हैं। राजस्थान पत्रिका का रविवारीय 4 पृष्ठ का परिष्ष्टि ’हेल्थ पल्स’ इस क्षेत्र का सबसे अधिक विज्ञान समाचार को स्थान देने वाला समाचार पत्र है। इसके माध्यम से मेडिकल सांइस की जटिल बातों को सरल शब्दों में आम पाठक के लिये प्रस्तुत किया जाता है एवं भास्कर का ऐग्रो भास्कर भी महत्वपूर्ण सूचनाओं का भण्डार है। सामान्यत: पाठकों को निम्न क्षेत्रों की जानकारियाँ प्राप्त करने की जिज्ञासा रहती है। 1. कृषि संबंधी वैज्ञानिक जानकारी, 2. देषी घी, दूध एवं अन्य खाद्य सामग्री आदि की शुद्धता मांपने की सरल विधियाँ, 3. स्वास्थ्य संबंधी जानकारी, 4. मोबाईल एप्स एवं कम्प्यूटर सोफ्टवेयर की अद्यतन जानकारी।
विज्ञान प्रसार में बाधाएँ
- कुछ जगह व्यावसायिकता हावी है
- कुछ जगह विज्ञान लेखकों का अभाव है क्योंकि गाँवों के पत्रकार सामान्यत: कला स्नातक होते हैं और अधिक विद्वान लेखक विज्ञान लेख अंग्रेजी में लिखना पसंद करते हैं हिन्दी में नहीं।
- अक्सर राजनेतिक व क्षेत्रिय समाचारों के दबाव के कारण विज्ञान समाचार को स्थान नहीं मिलता।
- कई बार विज्ञान लेखक उनसें कम पढ़े पत्रकार के पास जाने में असहज महसूस करता है।
सुझाव:-
- विज्ञान खबर अधिक लम्बी नहीं हो, केप्सूल टाईप की खबरे हों तथा भाषा हिंग्लिष हो तो ज्यादा सम्प्रेषण संभव है, आजकल सामान्यत: मानक हिन्दी न तो मीडिया प्रकाशित कर रहा है और न ही आम आदमी के समझ आती है।
- विज्ञान खबरों में रोचकता के लिये क्यों, क्या, कैसे की फोरमेटिंग होनी चाहिये।
- साइंस कम्यूनिकेटर बढ़ाये जाने चाहिये।
- जिस प्रकार कविता, कहानी, फीचर, समाचार आदि के लेखकों को प्रथम, द्वितीय का पुरस्कार मिलता है उसी प्रकार क्षेत्रिय समाचार पत्रों के विज्ञान लेखकों को भी पुरस्कार या इंसेन्टिव मिलना चाहिये।
- साइंस कम्यूनिकेटर को पत्रकारों से सम्पर्क रखना चाहिये, पत्रकार कों खबर लगाने के लिये समय समय पर याद करवाते रहे तो ठीक है।
लोकप्रिय विज्ञान लेखक श्री बृजमोहन गुप्त के अनुसार पत्रकारों की विज्ञान और प्रौद्योगिकी सम्बन्धी खबरों में रुचि है। यही कारण है कि कृषि पत्रकारिता, बाल विज्ञान पत्रकारिता, पर्यावरण पत्रकारिता और स्वास्थ्य एवं चिकित्सा पत्रकारिता जैसे विषयों पर प्रशिक्षण कार्यशालाएँ आयोजित करने की माँग की गई है। दरअसल, विज्ञान को लेकर हमारे सोच को बदलना जरूरी है। विज्ञान केवल विशेष लोगों का ज्ञान नहीं है। हम सबसे उसका नाता है जीवन के हर क्षेत्र में उसे जोड़ा जा सकता है। उसे जोड़ा भी जाना चाहिए। जन विज्ञान आंदोलन के दौरान किए गए प्रयोगों से कई नए क्षितिज उभरे हैं। दरअसल विज्ञान समाचारों के बारे में सम्पादकीय दृष्टिकोण में बदलाव की जरूरत है। कुत्ता आदमी को काटे तो खबर नहीं बनती, बल्कि जब आदमी कुत्ते को काटता है तो सुर्खी बनती है, इस सोच को बदलना होगा। कुत्ते के काटने से रेबीज फैलने का खतरा है और रेबीज में जन सामान्य की अभिरुचि अवश्य होगी। नई खोजों को सामने लाना तो ठीक है पुरानी खोजों को भी नए संदर्भों में प्रस्तुत करना चाहिए। डिब्बाबन्द खबरों के लिए पुरानी खोजों में भी काफी मसाला होता है। जरूरत है शोधपत्रों के अंबार को खंगालने और उन्हें रोजमर्रा के जीवन से जोडने की। ऐसे प्रयास हुए भी हैं।
विज्ञान प्रसार के साथ-साथ हमारा यह भी दायित्व है कि कोटि-काटि जनों की भाषा हिन्दी, जिसके विषय में हिन्दी के मूर्धन्य विद्धान फादर कामिल बुल्के ने कहा था “संस्कृत माँ, हिन्दी गृहणी और अंग्रेजी नौकरानी है”, इस भू-मण्डलीकाण की आँधी में मैकाले की मानस पुत्री अंग्रेजी की चेरी न बने। निज भाषा हिन्दी में लोकप्रिय विज्ञान लेखन और पत्रकारिता की महत्ता इस संचार प्रधान युग में अधिक महत्वपूर्ण हो जाती है। समाज में व्याप्त विविध प्रकारों की गूढता, दुराग्रहों के निराकरण हेतु, विज्ञान की चेतना का प्रसार, अपनी संस्कृति के अनेक प्रकाषपूर्ण पक्षों के साथ सामंजस्य बैठाकर करने में हम निश्चय ही एक नवीन वैज्ञानिक दृष्टियुक्त समाज का आने वाले समय में निर्माण करने में सफल होंगे।