(विशेष संदर्भ : दिल्ली- मुंबई बलात्कार कांड)
मीडिया के सामाजिक सरोकार के मुद्दे
विजया सिंह
(शोधार्थी, महात्मा गाँधी अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा )
शोध सारांश
वर्ष 2001 को जब महिला सशक्तीकरण वर्ष घोषित किया गया तब शायद वह शुरुआत थी एक नयी जमीन तलाशने की, जिसमें महिलाओं को भी उनका वास्तविक स्थान मिल सके। यहां से स्त्रियों की स्थिति, जिसमें उनकी आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक और मनोवैज्ञानिक अवस्था को तलाशने के काम को दुबारा शुरू किया गया। दुबारा इसलिए कि समय- समय पर स्त्री ख़ास कर उन पर होने वाली हिंसा पर विमर्श किया जाता रहा है और इस तरह एक लंबे विमर्श का दौर चला है। हालांकि जैसे- जैसे समय बदला है, स्त्रियों की दशा और दिशा दोनों को परखने के मानक बदलते गये हैं। आज के संदर्भ में दिल्ली की दामिनी का बलात्कार होना और अपनी लड़ाई लड़ते हुए उसका दुनिया से चले जाना, दो तरह के विमर्श को जन्म देता है। पहला यह कि हमारा समाज आखिर कब तक स्त्रियों को देह के रूप में देखता रहेगा? दूसरा यह कि ऐसी ख़बरों में आखिर मीडिया की भूमिका क्या है, कैसी है, और क्या होनी चाहिए ? ज़ाहिर सी बात है कि मीडिया भले ही अपने स्वतंत्र रूप में हो मगर वह समाज का ही एक पक्ष है और इससे इनकार भी नहीं किया जा सकता है। यह अकेले भारत के लिए यक्ष प्रश्न नहीं है बल्कि पूरी दुनिया के सामने यह एक बड़ा प्रश्न है।
निश्चित रुप से न तो समाज के लिए बलात्कार कांड नया है और न ही ऐसी खबरों का समाचार पत्रों में छापा जाना नयी बात है। तो फिर सवाल उठना लाजमी है कि फिर इस विषय पर रिसर्च क्यों? तो इसका जवाब है कि दिल्ली के दामिनी बलात्कार कांड को एक मील का पत्थर कहा जा सकता है क्योंकि यह वह घटना थी जिसमें न सिर्फ राजनीतिक हलचलें ला दी, बल्कि सामाजिक क्रांति जैसा एक माहौल पूरे देश में पैदा कर दिया था। जाहिर सी बात है इसमें समाचार पत्रों की भूमिका भी अग्रणी रही. तो क्या इसी घटना तक समाचार पत्र सचेत रहे, इसके बाद की ऐसी घटनाओं में मीडिया का क्या रुख रहा ? क्या समाचार पत्रों ने अपनी भूमिका बदली है या फिर कुछ और इन्ही बातों की पड़ताल करने के लिए यह शोध किया गया। एक अन्य बलात्कार कांड (मुंबई बलात्कार कांड) के साथ तुलनात्मक अध्ययन किया गया है। इन दो घटनाओं की खबरों का अंतर्वस्तु विश्लेषण भी किया गया है। और नतीजे के रुप में एक मॉडल और मीडिया के ‘वायर सिद्धांत’ को प्रतिपादित किया गया है।
भूमिका
आज दिल्ली के बलात्कार कांड ने स्त्री हिंसा के प्रश्न को राष्ट्रीय स्तर पर एक विमर्श के रूप में जन्म दे दिया है। चूंकि इस घटना में लोगों का रोष के साथ मीडिया की भी सक्रिय भूमिका रही, इसलिए स्त्री हिंसा के प्रति समाचार पत्रों का दृष्टिकोण एक सामयिक मुद्दा बनता है चर्चा का, विमर्श का। दूसरी ओर महिला सशक्तीकरण की उस खबर को जिसमें यौन उत्पीडऩ की खबर करने वाला मीडिया यह भूल जाता है कि 100 में से 22.7 प्रतिशत मीडिया में काम करने वाली महिलाओं ने माना है कि कार्यक्षेत्र में उनका यौन उत्पीडऩ हुआ है। कहां है ये ख़बरें? क्या स्त्री हिंसा को समुचित रूप में मीडिया देख रहा है ? क्या है समाचार पत्रों का नजरिया ऐसी ख़बरों को देखने का, परखने का और छापने का ? ऐसी दोहरी नीति मीडिया पर निश्चित रूप से उसे सवालों के कटघरे में खड़ा करती है। क्योंकि भारत ही नहीं दुनिया के सबसे सभ्य समाज कहे जाने वाले देश में भी महिलाएं यौनिक हिंसा से अछूती नहीं हैं। 22 जनवरी 2014 को अमेरिका के वाइट हाउस में जारी एक रिपोर्ट में यह कहा गया है कि अमेरिका में प्रत्येक पांच में से करीब एक महिला अपने जीवनकाल में बलात्कार का शिकार होती है और आधी से अधिक ऐसी महिलाएं 18 साल की उम्र से पहले ही इस हमले का सामना करती हैं। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि सभी वर्गों, नस्लों और देशों की महिलाओं को निशाना बनाया जाता है, लेकिन कुछ महिलाएं अन्य के मुकाबले इस प्रकार के हमलों की अधिक शिकार होती हैं।
रिपोर्ट के अनुसार, 33.5 फीसदी बहु-नस्लीय महिलाओं से बलात्कार किया गया, जबकि अमेरिकी-भारतीय मूल और अलास्का-नेटिव 27 फीसदी महिलाओं को हवस का शिकार बनाया गया और 15 फीसदी हिस्पैनिक, 22 फीसदी अश्वेत और 19 फीसदी श्वेत महिलाएं इस हमले की चपेट में आयीं। अब जब पूरी दुनिया की महिलाएं यौनिक हिंसा से गुज़र रही है तो जाहिर सी बात है कि भारत में भी इस प्रश्न को उठाया जाये। क्योंकि भारत में आज भी तथाकथित बुद्धिजीवी वर्गों में भी यह सोच बनी हुई है कि स्त्री अपने खुद के कारणों से हिंसा का शिकार होती है। भारत में आज यौनिक हिंसा के सन्दर्भ में बलात्कार के कारणों पर विमर्श का दौर चल रहा है। ऐसे में कुछ बड़े लोगों के बयान जिसे मीडिया भी दबा लेता है, मीडिया की भूमिका पर सवाल उठाते हैं। जैसे सीबीआई के एक निदेशक का खुला बयान कि आप बलात्कार से बच नहीं सकते तो उसका मज़ा लीजिये… हालांकि मीडिया में यह खबर आई मगर सिर्फ बेचने के माध्यम से। नहीं तो सिर्फ नारीवादी समूहों की प्रतिक्रिया न लेकर मीडिया आम लोगों तक इस बात को लेकर जरुर जाता। यह असंवेदनशीलता सिर्फ पुरुषों तक सीमित नहीं है। प्रभावशाली पदों पर बैठी ताकतवर महिलाओं ने नाजुक मौकों पर हानिकारक वक्तव्य दिए हैं। देर रात काम से लौटते हुए एक कामकाजी महिला को मार दिया जाता है और बयान आता है कि रात में बाहर निकलने का दुस्साहस औरतों को नहीं दिखाना चाहिए। मेरा शोध स्त्रियों पर होने वाली हिंसा और उसके समाचार पत्रों में कैसे लिया जाता है, छापा जाता है, उस पर आधारित है। क्योंकि यह भी सच है कि मीडिया ऐसी खबरों को कैसे लेता है, बहुत कुछ वहां की सामाजिक संरचना पर निर्भर करता है। क्योंकि उस मीडिया को चलाने वाले, वहां काम करने वाले भी इसी समाज का एक अंश हैं। इसलिए मीडिया की भूमिका को सामाजिक संदर्भ में भी देखा गया है।
इस शोध में दो घटनाओं का सन्दर्भ लेकर पूरी स्त्री हिंसा की कवरेज़ पर बात की गयी है। शोध कार्य द्वारा निश्चित रूप से कुछ नया तलाशने की कोशिश की गयी है, खास कर मीडिया की भूमिका में। हालांकि स्त्री हिंसा और समाचारपत्रों का दृष्टिकोण के क्षेत्र का दायरा काफी व्यापक है, जिसे इस लघु शोध में समेटना कठिन है। मगर मेरे द्वारा इस विषय को लघु शोध में परिणत करना इस प्रक्रिया में छोटी मगर सकारात्मक हस्तक्षेप जरूर है।
दिल्ली- मुंबई बलात्कार काण्ड: तुलनात्मक अध्ययन
दिल्ली की दामिनी बलात्कार घटना और मुंबई फोटो पत्रकार के बलात्कार की घटना आपराधिक रूप से एक ही श्रेणी में आते हैं, लेकिन महिला यौनिक हिंसा की इन दोनों घटनाओं को समाचारपत्रों ने अलग- अलग ट्रीटमेंट दिया। ख़बरों का लिखा जाना, उसे उचित स्थान देना जिसमें, कितना और कहां और क्या जैसी बातें आती हैं, आदि शामिल हैं। इसके अलावा ख़बरों की संख्या और उन्हें किस विन्दु से कहां उठाया जा रहा है, यह भी मायने रखती है। क्योंकि ख़बरों के प्रस्तुतीकरण से समाचारपत्रों के दृष्टिकोण का पता चलता है। किये गये ख़बरों के अंतर्वस्तु विश्लेषण और सारणी से इतना तो स्पष्ट है कि दिल्ली बलात्कार को मुंबई बलात्कार की घटना से ज्यादा जगह मिली है, खबरों की संख्या और स्थान, दोनों लिहाड़ से।
कितनी जगह किसे मिली:
भारत में अब तक के बलात्कार कांड जितने भी हुए हैं, उन सबमें तुलनात्मक रूप से कह सकते हैं कि मीडिया ने जिसे सबसे ज्यादा कवरेज़ दिया वह दिल्ली का ‘दामिनी बलात्कार कांड’ ही है। तो क्या यह पहली और आखिरी कवरेज़ थी जिसे मीडिया ने इतने चरम पर पहुंचाया? इन तमाम प्रश्नों के मद्देनज़र दिल्ली बलात्कार कांड और मुंबई बलात्कार काण्ड की 15 दिनों की ख़बरों को तुलना करना जरुरी हो जाता है। अगर दिल्ली बलात्कार कांड को जगह मिलने की बात करें दिल्ली संस्करण हिन्दुस्तान हिंदी दैनिक के संदर्भ में तो कुल मुख्य और उससे संबंधित ख़बरें 209 हैं। 15 दिनों में ख़बरों को कुल 590 कॉलम और 5, 1/2 विशेष पन्ने दिए गये हैं। वहीं कुल 2636 सेंटीमीटर की जगह दी गयी है। दूसरी ओर मुंबई बलात्कार काण्ड को वहां मुंबई के नवभारत टाइम्स के संस्करण में जगह मिलने की बात करें तो कुल 55 ख़बरें, 175 कॉलम और एक विशेष पन्ना और 803.5 सेंटीमीटर की जगह दी गयी है।
खबरों की विविधता:
ख़बरों की विविधता बहुत हद तक घटनाक्रम पर भी निर्भर करती है। जैसे दिल्ली बलात्कार काण्ड में पूरा देश दामिनी के साथ मिल कर विरोध कर रहा था, मुंबई काण्ड में इस इस जनांदोलन की कमी दिखती है। दिल्ली के दामिनी काण्ड में लोगों का खास कर युवाओं का उग्र विरोध- प्रदर्शन के कारण अखबार ने एक पन्ना पूरे तौर पर फोटो फीचर का रखा है। जबकि मुंबई काण्ड में अखबार द्वारा ऐसी कदम उठाने की कमी दिखती है। जहां तक ट्विटर और फोनिक मुहीम की बात है, दोनों घटनाओं के संन्दर्भ में समानता दिखती है। इसके अलावा अग्रलेख और संपादकीय की संख्या में भी दोनों में तुलनात्मक रूप से अंतर दिखता है। दिल्ली रात दस बजे, पीडि़ता के गांव से खबर और फिल्म प्रमोशन की ख़बरों को भी जिस तरह अखबार ने दामिनी से जोड़ कर उठाया है, मुंबई काण्ड में इसकी कमी दिखती है। इसके साथ ही स्काई लाइन जिसमें ‘शर्मसार दिल्ली’ या मुंबई काण्ड में ‘अब बर्दाश्त नहीं’ में एक समानता दिखती है। संपादकीय पृष्ठ की अगर बात करें तो हिन्दुस्तान दैनिक के दिल्ली संस्करण में कुछ संख्या कम दिखती है, लेकिन अन्य जैसे अग्रलेख, नज़रिया आदि कॉलम में काफी सामग्री छपी है। यानी ख़बरों और घटनाक्रमों की जहाँ एक ओर दामिनी काण्ड में भरमार दिखती है वहीं दूसरी ओर संपादकीय की संख्या तुलनात्मक रूप से कम दिखती है। दूसरी ओर मुंबई घटना क्रम में संबंधित अखबार ने ख़बरों और संपादकीय में बहुत हद तक संतुलन बनाये रखा है, मगर यहां संपादकीय पृष्ठ पर अन्य सामग्रियों की कमी दिखती है।
अखबार की अपनी पहल:
कई बार ख़बरों को उठाने और उन्हें छापने में अखबार की अपनी पहल की भी भूमिका होती है। जिससे मुद्दे को न सिर्फ मजबूती से उठाया जाता है बल्कि उसे चरम तक पहुंचाने में भी इनकी भूमिका होती है। दिल्ली काण्ड में स्टिंग, मुहीम और लगातार लोगों फोटो फीचर और घटना से संबंधित हर छोटे- छोटे पहलू पर ध्यान दिया गया है जबकि मुंबई काण्ड की कवरेज़ में इस बात की कमी दिखती है। दिल्ली बलात्कार काण्ड में ख़बरों के माध्यम से पुलिस की भूमिका पर सवाल उठाया गया है, शासन- प्रशासन दोनों की कमियां हो या इस क्षेत्र में होने वाली उपलब्धियां, दोनों पर प्रकाश डाला गया है। और सबसे बड़ी बात पूरे देश का अपराध व अपराधियों के खिलाफ एकजुट हो जाना, जिसकी वज़ह से अपराधियों के परिवार वालों तक मीडिया की पहुंच और सामाजिक स्तर पर अपराधियों के मनोबल को तोडऩे वाली खबर को पाठक तक पहुंचाना एक नया और सकारात्मक उपाय है, जिसे मीडिया ने उस दौरान उठाया है। मगर जब मुंबई काण्ड के कवरेज़ की बात करें तो अपराधियों के घर तक और उनके सामाजिक जीवन को विराम लगाने वाली ख़बरों का अभाव दिखता है। यहां तक कि 15 दिनों तक लगातार उस खबर को भी बड़ी खबर नहीं बना कर बीच में ही नरेन्द्र मोदी की जीत की खबर को मुख्य खबर के रूप में लिया गया है। इसका नतीजा होता है कि 3 सितम्बर को इस खबर के फालो अप को भी जगह नहीं मिली है।
दिल्ली का दामिनी काण्ड एवं मुंबई का फोटो जर्नलिस्ट बलात्कार कांड की ख़बरों का अंतर्वस्तु विश्लेषण:
क्रम |
तिथि |
समाचार पत्र |
पृष्ठ का नाम |
कुल |
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प्रथम पृष्ठ |
संपादकीय |
राजधानी /महानगर |
राष्ट्रीय |
अंतर्राष्ट्रीय |
अन्य/विशेष |
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|||
1. |
17-12-12 |
हिन्दुस्तान दैनिक |
कुछ नहीं |
कुछ नहीं |
कुछ नहीं |
कुछ नहीं |
कुछ नहीं |
कुछ नहीं |
— |
|
24-08-13 |
नवभारत टाइम्स (फोटो जर्नलिस्ट कांड) |
3 |
1 |
9 |
कुछ नहीं |
कुछ नहीं |
कुछ नहीं |
17.51 |
2. |
18 -12-12 |
हिन्दुस्तान दैनिक (दामिनी काण्ड) |
कुछ नहीं |
कुछ नहीं |
4 |
कुछ नहीं |
कुछ नहीं |
7 |
8.59 |
|
25 -08-13 |
नवभारत टाइम्स (फोटो जर्नलिस्ट कांड) |
3 |
1 |
5 |
कुछ नहीं |
कुछ नहीं |
कुछ नहीं |
9.29 |
3. |
19-12-12 |
हिन्दुस्तान दैनिक (दामिनी काण्ड) |
3 |
1 |
18 |
3 |
कुछ नहीं |
कुछ नहीं |
13.03 |
|
26-08-13 |
नवभारत टाइम्स (फोटो जर्नलिस्ट कांड) |
3 |
कुछ नहीं |
4 |
कुछ नहीं |
कुछ नहीं |
2 |
14.16 |
4. |
20 -12-12 |
हिन्दुस्तान दैनिक (दामिनी काण्ड) |
2 |
1 |
16 |
कुछ नहीं |
कुछ नहीं |
5 |
19.37 |
|
27-08-13 |
नवभारत टाइम्स (फोटो जर्नलिस्ट कांड) |
1 |
कुछ नहीं |
4 |
कुछ नहीं |
कुछ नहीं |
1 |
9.57 |
5. |
21 -12-12 |
हिन्दुस्तान दैनिक (दामिनी काण्ड) |
2 |
1 |
15 |
कुछ नहीं |
कुछ नहीं |
कुछ नहीं |
6.43 |
|
28-08-13 |
नवभारत टाइम्स (फोटो जर्नलिस्ट कांड) |
कुछ नहीं |
कुछ नहीं |
3 |
कुछ नहीं |
कुछ नहीं |
कुछ नहीं |
5.85 |
6. |
22 -12-12 |
हिन्दुस्तान दैनिक (दामिनी काण्ड) |
2 |
कुछ नहीं |
8 |
कुछ नहीं |
कुछ नहीं |
कुछ नहीं |
10.99 |
|
29-08-13 |
नवभारत टाइम्स (फोटो जर्नलिस्ट कांड) |
1 |
कुछ नहीं |
2 |
कुछ नहीं |
कुछ नहीं |
कुछ नहीं |
7.35 |
7. |
23 -12-12 |
हिन्दुस्तान दैनिक (दामिनी काण्ड) |
3 |
कुछ नहीं |
14 |
कुछ नहीं |
कुछ नहीं |
कुछ नहीं |
14.15 |
|
30-08-13 |
नवभारत टाइम्स (फोटो जर्नलिस्ट कांड) |
कुछ नहीं |
1 |
2 |
कुछ नहीं |
कुछ नहीं |
कुछ नहीं |
5.14 |
8. |
24 -12-12 |
हिन्दुस्तान दैनिक (दामिनी काण्ड) |
1 |
कुछ नहीं |
18 |
कुछ नहीं |
कुछ नहीं |
कुछ नहीं |
15.04 |
|
31 -08-13 |
नवभारत टाइम्स (फोटो जर्नलिस्ट कांड) |
1 |
कुछ नहीं |
कुछ नहीं |
कुछ नहीं |
कुछ नहीं |
कुछ नहीं |
0.93 |
9. |
25 -12-12 |
हिन्दुस्तान दैनिक (दामिनी काण्ड) |
3 |
2 |
13 |
6 |
कुछ नहीं |
कुछ नहीं |
15.97 |
|
09 -09 -13 |
नवभारत टाइम्स (फोटो जर्नलिस्ट कांड) |
कुछ नहीं |
1 |
1 |
कुछ नहीं |
कुछ नहीं |
कुछ नहीं |
5.28 |
10. |
26 -12-12 |
हिन्दुस्तान दैनिक (दामिनी काण्ड) |
2 |
3 |
8 |
3 |
कुछ नहीं |
कुछ नहीं |
9.28 |
|
02-09-13 |
नवभारत टाइम्स (फोटो जर्नलिस्ट कांड) |
1 |
कुछ नहीं |
1 |
कुछ नहीं |
कुछ नहीं |
कुछ नहीं |
1.38 |
11. |
27 -12-12 |
हिन्दुस्तान दैनिक (दामिनी काण्ड) |
1 |
3 |
5 |
कुछ नहीं |
कुछ नहीं |
कुछ नहीं |
7.44 |
|
03-08-13 |
नवभारत टाइम्स (फोटो जर्नलिस्ट कांड) |
कुछ नहीं |
कुछ नहीं |
कुछ नहीं |
कुछ नहीं |
कुछ नहीं |
कुछ नहीं |
— |
12. |
28 -12-12 |
हिन्दुस्तान दैनिक (दामिनी काण्ड) |
1 |
1 |
4 |
3 |
कुछ नहीं |
कुछ नहीं |
5.54 |
|
04-09-13 |
नवभारत टाइम्स (फोटो जर्नलिस्ट कांड) |
1 |
1 |
कुछ नहीं |
कुछ नहीं |
कुछ नहीं |
कुछ नहीं |
3.36 |
13. |
29 -12-12 |
हिन्दुस्तान दैनिक (दामिनी काण्ड) |
1 |
कुछ नहीं |
1 |
1 |
कुछ नहीं |
कुछ नहीं |
2.12 |
|
05-09-13 |
नवभारत टाइम्स (फोटो जर्नलिस्ट कांड) |
कुछ नहीं |
कुछ नहीं |
1 |
कुछ नहीं |
कुछ नहीं |
कुछ नहीं |
0.86 |
14. |
30 -12-12 |
हिन्दुस्तान दैनिक (दामिनी काण्ड) |
1 |
1 |
16 |
6 |
कुछ नहीं |
कुछ नहीं |
20.23 |
|
06-09-13 |
नवभारत टाइम्स (फोटो जर्नलिस्ट कांड) |
कुछ नहीं |
कुछ नहीं |
1 |
कुछ नहीं |
कुछ नहीं |
कुछ नहीं |
0.51 |
15. |
31 -12-12 |
हिन्दुस्तान दैनिक (दामिनी काण्ड) |
2 |
कुछ नहीं |
10 |
कुछ नहीं |
कुछ नहीं |
कुछ नहीं |
9.94 |
|
07-09-13 |
नवभारत टाइम्स (फोटो जर्नलिस्ट कांड) |
1 |
कुछ नहीं |
कुछ नहीं |
कुछ नहीं |
कुछ नहीं |
कुछ नहीं |
0.18 |
ग्राफ द्वारा चार्ट का विवरण :
उपरोक्त ग्राफ के द्वारा यह समझा जा सकता है कि एक जैसी घटना को कैसे अलग- अलग ट्रीटमेंट दी गयी है। दिल्ली की घटना और मुंबई की घटना यानी दामिनी बलात्कार की घटना और फोटो जर्नलिस्ट की घटना ने समाचार पत्र के सभी पन्नों पर स्थान पाया है, अंतर्राष्ट्रीय पन्ने को छोड़ कर। लेकिन तुलनात्मक रूप से अगर विश्लेष्ण किया जाये तो ख़बरों की प्रमुखता उन्हें दिए गये पन्नों के आधार पर तय हो जाती है। दिल्ली का हिन्दुस्तान दैनिक के 15 दिनों (17 दिसंबर से 31 दिसंबर, 2012) का संस्करण और मुंबई के नवभारत टाइम्स के 15 दिनों (24 अगस्त से 7 सितम्बर, 2013) के संस्करण का पृष्ठ के आधार पर ख़बरों को दिया गया स्थान इस प्रकार है,
हिन्दुस्तान ने निर्धारित तिथि में कुल 15 दिनों ने प्रथम पृष्ठ पर 27 ख़बरें छापीं जबकि नवभारत टाइम्स ने फोटो जर्नलिस्ट की घटना को पहले पन्ने पर 15 दिनों में 15 बार स्थान दिया। इसी तरह संपादकीय में हिन्दुस्तान ने 14 कवरेज़ जिसमें संपादकीय के अलावा अग्रलेख और कॉलम भी शामिल हैं। इसी तरह मुंबई की फोटो जर्नलिस्ट काण्ड को संपादकीय पृष्ठ पर कुल 5 कवरेज़ मिली है। राजधानी और सिटी पन्ने को मिला कर दिल्ली की घटना ने 49 कवरेज़ प्राप्त किये तो मुंबई की घटना ने 33 कवरेज़। दिल्ली की दामिनी कांड ने राष्ट्रीय पन्ने पर 22 ख़बरों का स्थान पाया जबकि मुंबई रेप कांड ने एक भी कवरेज़ राष्ट्रीय पन्ने पर नहीं है। अंतर्राष्ट्रीय पन्ने पर दोनों घटनाओं ने कोई स्थान नहीं पाया है। विशेष या अन्य पन्ने पर दिल्ली की दामिनी की घटना ने 12 कवरेज़ जबकि मुंबई की फोटो जर्नलिस्ट कांड ने महज़ 3 ख़बरों का ही स्थान पाया है।
कुल 15 दिनों के ख़बरों की प्रतिशतता का आकलन करें तो दामिनी बलात्कार काण्ड और फोटो जर्नलिस्ट बलात्कार काण्ड की ख़बरों का प्रतिशत इस पाई चार्ट द्वारा समझा जा सकता हैं
इस तरह स्पष्ट है कि हालांकि दोनों ही घटनाएं बलात्कार की हैं मगर दोनों घटनाओं को समाचारपत्रों ने अलग- अलग ट्रीटमेंट दिया है। दिल्ली की दामिनी बलात्कार कांड की घटना जहां कुल 15 दिनों में समाचारपत्रों में 64’ कवरेज़ पाती है वही मुंबई के फोटो जर्नलिस्ट बलात्कार की घटना 15 दिनों में 36’ कवरेज़ मिला है। यानी की दोनों घटनाओं में 28’ का अंतर है।
नोट: दोनों अखबारों के कुल ज़बरों में बिजनेस और खेल की पन्नों/ ख़बरों को शामिल नहीं किया गया है।
निष्कर्ष
कुल मिला कर निष्कर्ष के रूप में यह मैंने अपने शोध से जो प्राप्त किया है उसमें यह सबसे पहले बात सामने आई कि आज भी मीडिया के कई नए रूप आने के बाद भी समाचार पत्रों का महत्त्व $खत्म नहीं हुआ है। आज भी लोग उसे पड़ते हैं और उसमें छपी ख़बरों पर ध्यान देते हैं। इसके अलावा समाचार पत्रों पर लोगों का विश्वास आज भी बना हुआ है कि वहां से लोगों को न्याय मिलता है ख़बरों के माध्यम से। लेकिन लोग यह भी मानते हैं कि स्त्री हिंसा की ख़बरें ख़ास कर बलात्कार की ख़बरों का एंगल इस तरीके से उठाया जाता है कि ख़बरें रोचक बनें, वहां समाचारपत्र विशुद्ध रूप से व्यापार के रूप में ख़बरों को देखते हैं। अखबार कभी न्याय की पहल नहीं करते बल्कि महज़ सूचनाओं को फैलाते हैं। यहीं वजह है कि मुंबई काण्ड को समाचार पत्रों ने उतनी जगह नहीं दी। कारण था कि न दिल्ली काण्ड की तरह इस काण्ड ने देश भर में जोर नहीं पकड़ा था।
इस तरह पूरे शोध से इस निष्कर्ष पर पहुंचा गया है कि ‘मीडिया पूरी तरह एक वायर की तरह काम करता है। जिस तरह एक बिजली के तार में विद्युत तरंग महज़ एक विन्दु से प्रवाहित की जाती है और अपने आप पूरे तार में तरंग प्रवाहित हो जाती है, मीडिया में ख़ास कर सूचनाओं का प्रवाह इसी तरह होता है। इसे हम मीडिया का वायर सिद्धांत भी कह सकते हैं। आज के समय में ख़ास कर सामाजिक संदर्भ की ख़बरें, जिसमें स्त्री हिंसा की ख़बरें भी समाहित हैं, मीडिया इसी तर्ज पर काम करता है। मीडिया के इस सिद्धांत को मैकॉम्ब और डोनाल्ड शा के एजेंडा सेटिंग की अवधारणा (1972), डीफ्ल्यूर एवं रोकेश के मीडिया सिस्टम डिपेंडेंसी थ्योरी (1989 , जिसमें यह बताया गया है कि समय के साथ मीडिया की कई चीजें अप्रासंगिक हो जाती है) तथा लेज़रफेल्ड की ओपिनियन लीडर की अवधारणा (1940- 44 ) को आधार बना कर तैयार की गयी है। यह नवीन सिद्धांत बताता है कि सामाजिक मुद्दों के प्रस्तुति में मीडिया, ओपिनियन लीडर की भूमिका में हो जाता है और लोग एजेंडा सेटर की भूमिका को अपना लेते हैं। मीडिया को ओपिनियन लीडर इसलिए कहा गया है क्योंकि वह खबरों को बाज़ारी शक्तियों के आधार पर अपने तरीके से अन्य जगह पहुंचाता है। सूचना पहुंचाने की यह प्रक्रिया वायर की तरह होती है। यानी वायर के रूप का मीडिया एक मीडिया से दूसरे मीडिया तक होते हुए लोगों द्वारा तैयार किये गये मुद्दे को एक मीडिया से दूसरी मीडिया तक पहुंचाता है। पुन: ख़बरों को वापस लोगों या सोसाइटी के बीच भी पहुंचाता है। इसका उदाहरण हम प्रत्यक्ष कुछ घटनाओं के सन्दर्भ में देख सकते हैं। जैसे दिल्ली के दामिनी बलात्कार काण्ड में जहां लोगों ने मुद्दे को उठाया, जिसमें उनकी भूमिका बिलकुल एजेंडा सेटर सी दिखी, चूंकि ओपिनियन लीडर एक ही होता है इसलिए मुख्य मीडिया हाउस ने भी, जिसने ओपिनियन लीडर बन कर मुद्दे को अपने तरीके से उठाया और बाकी मीडिया हाउस ने उस सूचना को ग्रहण कर के प्रसार कर उसे आगे बज़ाते हुए वापस लोगों तक पहुंचाया। दूसरी ओर मुंबई बलात्कार काण्ड में लोगों की भूमिका एजेंडा सेटर के रूप में नहीं आई जिसकी वजह से मीडिया में खबर उस रूप में नहीं छपी, जबकि उक्त दोनों मुद्दे बलात्कार काण्ड के ही थे। इस तरह मीडिया में यानी मुख्य विन्दु (main switch) में एक जगह खबर रूपी विद्युत धारा प्रवाहित हुई या कह सकते है कराई गयी लोगों द्वारा। इसके बाद अपने आप से वायर रूपी मीडिया में हर जगह खबर रूपी तरंग दौड़ गयी, जिससे पब्लिक के बीच से उठाये मुद्दे को पब्लिक के पास ही दुबारा पहुंचा कर मीडिया ने खबरों का एक बाज़ार भी तैयार किया। जबकि दूसरे केस में लोगों द्वारा एजेंडा सेटिंग की कमी रह गयी और खबरें भी उस तरह नहीं आयी।
‘मीडिया के वायर सिद्धांत’ को इस मॉडल से भी समझा जा सकता है
मीडिया का वायर सिद्धांत का मॉडल
संदर्भ सूची
- Chatterjee, M. (2006), Violence against women. Jaipur: Aavishkar Publishers, Distributors.
- सेन, अमर्त्य. (2006), हिंसा और अस्मिता का संकट. नयी दिल्ली: राजपाल एंड संस.
- डॉ मालती, के एम. (2010), स्त्री विमर्श: भारतीय परिप्रेक्ष्य. नयी दिल्ली: वाणी प्रकाशन.
- केडिया, कुसुमलता. मिश्र रामेश्वर. (2004), स्त्रीत्व धारणाएं एवं यथार्थ. वाराणसी: विश्वविद्यालय प्रकाशन.
- कस्तवार, रेखा. (2004), स्त्री अध्ययन की चुनौतियां नयी दिल्ली: राजकमल प्रकाशन.
- खेतान, प्रभा. (2007), बाज़ार के बीच: बाज़ार के खिलाफ. नयी दिल्ली: वाणी प्रकाशन.
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- The Indian penal code, 27 editions
- वोल्स्टनक्राफ्ट, मेरी. (2009), स्त्री-अधिकारों का औचित्य- साधन, नयी दिल्ली: राजकमल प्रकाशन.
- यादव, राजेंद्र. (2007), आदमी की निगाह में औरत. नयी दिल्ली: राजकमल प्रकाशन.
पत्रिकाएं:
- गवर्नेस नाऊ. पत्रिका पाक्षिक, (2014) जनवरी प्रथम अंक. नॉएडा, उत्तर प्रदेश
- हंस पत्रिका. (2012), अंक. सितम्बर, नयी दिल्ली
- मीडिया विमर्श वार्षिकांक. (2009), भोपाल.
- तहलका पत्रिका. (2013), सितम्बर, नयी दिल्ली.
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