अनिल कुमार पाण्डेय*
जिस तरह से वायु तरंगें आम जन की सम्पत्ति हैं ठीक इसी तरह से इंटरनेट पर आम आदमी का अधिकार है। इंटरनेट से ही ‘सूचना विस्फोट’ संभव हुआ है। आज सूचनाएं विभिन्न माध्यमों की सवारी कर लोगों के घर तक पहुंच रही हैं। एक समय तक रोटी, कपड़ा और मकान लोगों की मूलभूत आवश्यकता होती थी। समय के साथ लोगों की आवश्यकताओंका विस्तार हुआ और आवश्यकताओं के इस विस्तार में शिक्षा, स्वास्थ्य के साथ ही इंटरनेट भी शामिल हो गया। आज इंटरनेट को कई देशों ने लोगों के मूलभूत अधिकार के रूप में शामिल कर लिया गया है। इंटरनेट को इसके शुरुआती समय में समूह विशेष का विषय माना गया था, लेकिन समय के साथ इसके विस्तार ने जनमाध्यमों को एक नई दिशा दी है। इंटरनेट ने ही हमें एक वैकल्पिक माध्यम उपलब्ध कराया है। वर्तमान में युवाओं के दिनभर का लेखा जोखा इस माध्यम पर उपलब्ध रहता है। आज इंटरनेट का एक नया सामाजिक रूप हमारे सामने है। इंटरनेट ने मनुष्य को मनुष्य बनाने वाले भावात्मक गुणों को भी आत्मसात कर लिया है।
वर्तमान दौर बाजार संचालित अर्थव्यवस्था का है। बाजार का सभी पर प्रत्यक्ष और परोक्ष नियंत्रण है, ऐसे में भला इंटरनेट कहां से बचता। यह बात सही है कि इंटरनेट का कोई भी प्रोप्राइटर नहीं है और होना भी नहीं चाहिए। इंटरनेट विशुद्ध रूप से एक वैश्विक सामाजिक सम्पत्ति है, जिसके नियंत्रण सम्बन्धी अधिकार किसी को भी नहीं दिये जा सकते। कुछ लोग सर्च इंजन को ही इंटरनेट समझ लेते हैं। लोग गूगल और याहू को ही इंटरनेट मानने का भ्रम पाल लेते हैं जबकि ये सभी इंटरनेट पर उपलब्ध विषयवस्तु को प्राप्त करने के सिर्फ साधन मात्र हैं। इंटरनेट तक पहुंच के लिए इंटरनेट सेवा प्रदाता कंपनियों की सहायता आवश्यक है इसके बिना इंटरनेट तक लोगों की पहुंच संभव नहीं है। इंटरनेट सेवा प्रदाता कंपनियों द्वारा विभिन्न एक्सेस गेटों सहित इंटरनेट डाटा की एक्सेसिंग को हमेशा से ही असंतुलित किया जाता रहा है। देश में इंटरनेट संबंधी आधारभूत मानकों के विरुद्ध इंटरनेट सेवा प्रदाताओं द्वारा किये जा रहे इस असंतुलन के कारण ‘नेट न्यूट्रेलिटी’ चर्चा का विषय है। भारत में नेट न्यूट्रेलिटी र बहस कुछ महीने ही पहले भारतीय दूरसंचार विनियामक प्राधिकरण (ट्राई) द्वारा इस विषय पर लोगों की राय मांगने के साथ शुरू हुई। जिसमें लाखों की संख्या में लोगों ने ट्राई को पत्र भेजकर ‘नेट न्यूट्रेलिटी के सिद्धान्त’ का पक्ष लिया। सरकार भी इस बहस पर अंतिम निर्णय लेने से पहले ट्राई द्वारा गठित समिति की रिपोर्ट का इंतजार कर रही थी। अब जबकि समिति की रिपोर्ट आ गई है। ऐसे में लोगों का सरकार से ‘नेट न्यूट्रेलिटी सिद्धांत’ का समर्थन करने की अपेक्षा का होना लाजिमी है।
नेट न्यूटे्रलिटी पर दूरसंचार विभाग की हाल ही में जारी बहुत-प्रतीक्षित रिपोर्ट में मोबाइल इंटरेट उपभोक्ताओं के लिए अच्छे और बुरे दोनों संकेत है। रिपोर्ट में नेट न्यूट्रेलिटी की समर्थन के साथ ही ‘ओवर द टॉप’ कही जाने वाली सेवाओं जैसे वॉट्स एप, वाइबर, वीचैट, स्काइप पर मुफ्त में ऑडियो, वीडियो कॉल की दी जा रही सुविधाओं को विनियमित करने की जरूरत पर भी बल दिया गया है। रिपोर्ट तैयार करने वाली समिति की राय है कि ओटीटी सेवाओं के कारण ही मोबाइल सेवा प्रदाता कंपनियों को भारी नुकसान उठाना पड़ रहा है। सेवा प्रदाता कंपतियां सरकार से मिले लाइसेंस की शर्तों के अनुसार सेवा प्रदान करती हैं, जबकि ओटीटी सेवाएं किसी भी सेवा का पालन नहीं करती। कमेटी का तर्क अपनी जगह सही है, लेकिन नेट न्यूट्रेलिटी के अभाव में उपभोक्ताओं के हितों का संपूर्ण संरक्षण संभव नहीं है। पश्चिमी देशों में तो वर्षों से इस विषय पर बहस चल रही है। वहीं कई देशों में नेट न्यूट्रेलिटी के लिए कानून भी आकार ले चुके हैं। चिली दुनिया का पहला देश है जिसने वर्ष 2010 में नेट न्यूट्रेलिटी को बतौर कानून अपनाया है। अमेरिका का संघीय दूरसंचार आयोग भी इसके विरूद्ध निर्णय दे चुका है। जबकि कई विकासशील और अल्प विकसित देशों में आज भी यह समर्थकों और विरोधियों के बीच बहस का विषय है।
नेट न्यूट्रेलिटी एक सिद्धांत है जिसे नेटवर्क तटस्थता, नेट समानता अथवा नेट तटस्थता के नाम से भी जाना जाता है। इस सिद्धांत के अनुसार इंटरनेट सेवा प्रदाता कंपनियों को इंटरनेट पर उपलब्ध वर्चुअल सामग्री को समान मानना चाहिए। कंपनियों को इस सिद्धांत के अनुपालन में इंटरनेट प्रयोगकर्ता द्वारा किये गए उपयोग, इस पर उपलब्ध विषयवस्तु तथा वेबसाइटों के इस्तेमाल एवम् अन्य अतिरिक्त जोड़ी गई सेवाओं के प्रकार और संचार के विभिन्न तकनीकों के आधार पर न तो किसी प्रकार का भेदभाव करना चाहिए और न ही कोई अतिरिक्त प्रभार लगाना चाहिए।1 नेट न्यूट्रेलिटी शब्द का सर्वप्रथम उपयोग सन् 2003 में कोलंबिया विश्वविद्यालय के मीडिया विधि के प्राध्यापक टिंम वू द्वारा किया गया था। यह वह समय था जब इंटरनेट दुनिया में अपने पैर पसार रहा था।
आज के दौर में लोगों में सूचनाओं को प्राप्त करने की ललक पहले की तुलना में अनंत हो गई है और इंटरनेट ही वह माध्यम है जो इन सूचनाओं को लोगों तक उपलब्ध कराता है। इंटरनेट में सूचनाएं फोटो, गीत-संगीत, टेक्स्ट, वीडियो, ग्राफिक्स किसी भी शक्ल में हो सकती है। इंटरनेट सही मायनों में सूचनाओं का समुद्र है। इसकी विषयवस्तु का निर्माण और उपभोग हम आप ही करते हैं। जिनमें कुछ अधिकारिक होती हैं कुछ अनाधिकारिक भी। इस पर उपलब्ध विषयवस्तु पर लोगों का स्वामित्व हो भी सकता है और नहीं भी। सूचनाओं के इस समुद्र से वांछित सूचनाओं को प्राप्त करने के कई तरीके हैं। जिनमें वेबसाइट, ई-मेल, ब्लॉग सहित हजारों सोशल नेटवर्किंग वेबसाइटें आदि (माय स्पेस, फेसबुक, ट्विटर, लिंक्डइन, इमगुर, इंस्टाग्राम) शामिल है। यह सभी एक एक्सेस गेट की तरह होते हैं जिनसे हम सूचनाओं को निर्मित करने के साथ ही पहले से इस आभासी सूचना सागर में अपनी जगह बना चुकी सूचनाओं को एक्सेस कर सकते हैं।
एक्सेस गेट और इंटरनेट डेटा के एक्सेसिंग का ये असंतुलन इंटरनेट सेवा प्रदाताओं द्वारा ज्यादा लाभ अर्जित करने के तहत किया जाता है, जिसमें विशेष एक्सेस गेट या इंटरनेट डेटा को अन्य की तुलना में ज्यादा एक्सेसिंग स्पीड उपलब्ध करायी जाती है। परिणामत: इंटरनेट में उपलब्ध सूचनाओं की एक्सेसिंग असंतुलित हो जाती है। इंटरनेट उपलब्ध कराने के नाम पर इंटरनेट सेवा प्रदाता कंपनियां शुल्क लेती हैं लेकिन किसी खास वेबसाइट या एप्लीकेशन (अनुप्रयोग) के लिए इंटरनेट सेवा प्रदाता कंपनियां अतिरिक्त शुल्क ले कर इनकी एक्सेसिंग स्पीड बढ़ा देती हैं। जबकि शेष एप्लीकेशन की एक्सेसिंग स्पीड कम कर दी जाती है। इंटरनेट सेवा प्रदाता कंपनियों के द्वारा कुछ विशेष वेबसाइटों और एप्स के लिए अनुकूल स्थितियां निर्मित कर दूसरी वेबसाइटों की रफ्तार को सुस्त कर देने से वे इंटरनेट सेवा प्रदाता के रूप में अपेक्षित तटस्थता को भंग करती हैं। हाल ही में कई इंटरनेट प्रदाता कंपनियों के द्वारा कुछ विशेष इंटरनेट पैकेज भी तैयार किए गए हैं, जिनसे कुछ खास वेबसाइटों को ही एक्सेस किया जा सकता है। हालांकि देश में इस तरह के इंटरनेट पैकेजों को लोगों के विरोध के चलते इंटरनेट सेवा प्रदाता कंपनियों को इन्हें वापस लेना पड़ा।
वास्तविकता में इंटरनेट सेवा प्रदाताओं द्वारा किया गया यह कार्य सूचनाओं के प्रवाह को असंतुलित करने जैसा है। विश्व में सूचनाओं के प्रवाह को संतुलित करने को लेकर कई आंदोलन भी हुए हैं। गुटनिरपेक्ष आंदोलन से कुछ हद तक सूचनाओं का प्रवाह संतुलित हुआ था। गुटनिरपेक्ष न्यूज एजेंसी पूल इसी आंदोलन की उपज थी। दरअसल विकसित देशों के विश्व में सांस्कृतिक साम्राज्यवाद को स्थापित करने के उद्देश्य के कारण विश्व में सूचनाओं का प्रवाह असंतुलित हो गया था। जनमाध्यमों पर विकसित देशों के वर्चस्व के चलते सूचनाओं पर इनका नियंत्रण स्वाभाविक था, जिसके कारण ही सूचनाओं का प्रवाह एक तरफा था। अविकसित, अल्पविकसित और विकासशील राष्ट्रों को वही सूचनाएं प्राप्त होती थीं जिन्हें विकसित राष्ट्र देना चाहते थे।2
आज भी विश्व के बड़ी न्यूज एजेंसियों पर इन्हीं राष्ट्रों का स्वामित्व है वहीं कई मीडिया घराने आज वैश्विक हो चुके हैं। लेकिन उस समय कई अविकसित राष्ट्रों के पास इतने संसाधन भी नहीं थे कि वे खुद के टेलीविजन चैनल, अखबार और रेडियो स्टेशन स्थापित कर सकें। ऐसे में उन्हें सूचनाओं के लिए विकसित राष्ट्रों की न्यूज एजेंसियों पर ही निर्भर रहना पड़ता था। स्पष्ट हो कि ये एजेंसियां वही खबरें और विषयवस्तु प्रसारित करती थीं जो संबंधित देश की सभ्यता संस्कृति को पोषित करने के साथ ही देश की अच्छी छवि का निर्माण करती हो।3
तीसरी दुनिया के देशों को इनके देश की खबरों से ही वंचित रखा जाता था। अगर उन्हें स्थान मिलता भी था तो वे नकारात्मक प्रकृति के होते थे। इससे लोगों में अपनों के प्रति दुराभाव और इन माध्यमों प्रचारित और प्रसारित इनकी अन्य विषयवस्तु के प्रति स्नेह उपजता था। विकसित देशों का मानना था कि उपनिवेश स्थापित कर बड़ा क्षत्रप बनाने से बेहतर गरीब देशों को सांस्कृतिक रूप से गुलाम बनाकर इन पर अपना नियंत्रण रखा जा सकता है। अविकसित राष्ट्रों में सांस्कृतिक एवम् राष्ट्रीय चेतना के विकास के साथ ही इसका विरोध शुरू हुआ। परिणामत: सत्तर के दशक के शुरुआती वर्ष में विश्व के कई अविकसित राष्ट्र भारत के नेतृत्व में लामबंद हुए और कई चर्चाओं के बाद सयुंक्त राष्ट्र के विश्व में शिक्षा, सामाजिक और सांस्कृतिक मामलों के संगठन यूनेस्को ने इस सूचना असंतुलन को अपने संज्ञान में लिया और इसे दूर करने के लिए मैक ब्राइड की अध्यक्षता वाले एक सोलह सदस्यीय कमीशन का गठन किया। जिसके तहत ही सन् 1980 में ‘मैनी वॉयसेस वन वल्र्ड’ नाम से एक रिपोर्ट आयी जिसमें तत्कालीन सूचना असंतुलन, असुंतलन के कारण और उसके निदान को बताया गया था।4 अल जजीरा जैसे समाचार चैनल इसी असंतुलन को संतुलित करने के सफल प्रयास थे। इन्हीं भगीरथी प्रयासों से ही माध्यम साम्राज्यवाद के मिथक का तोड़ा जा सका है और इन वैश्विक मीडिया घरानों और एजेंसियों की साम्राज्यवादी करतूतों को सब के सामने लाया जा सका है। ऐसा नहीं है कि अब सूचना साम्राज्यवाद का अस्तित्व खत्म हो गया है। यह खेल अभी भी चल रहा है, लेकिन आज हमारे पास इसके कई विकल्प उपलब्ध हैं। आज सूचना साम्राज्यवाद की पुनरावृत्ति सी होती नज़र आ रही है। इंटरनेट को व्यावसायिक तौर पर सेवा प्रदाताओं द्वारा नियंत्रित करने का प्रयास किया जा रहा है। सूचनाओं के नियंत्रण का कार्य एजेंसियों के स्थान पर इंटरनेट सेवा प्रदाता टेलीकॉम कंपनियों ने ले लिया है। इंटरनेट आज विश्व माध्यम बन चुका है। इसमें समाहित सूचनाएं समान हैं, ऐसे में इन सूचनाओं की एक्सेसिंग भी समान रूप से होनी चाहिए वो भी बिना किसी भेदभाव के।
ये प्रमाणित तथ्य है कि जिस देश में सूचनाओं का आदान प्रदान निर्बाध रूप से संपन्न होता है। वही देश तेजी से विकास पथ पर अग्रसर होता है। नेट न्यूट्रेलिटी सूचनाओं के निर्बाध सहभागिता और एक्सेसिंग को सुनिश्चत करता है। आज सूचना का स्वतंत्र प्रवाह और नेट न्यूट्रेलिटी एक दूसरे के पर्याय बन चुके हैं। डिजिटल इंडिया वर्तमान सरकार की महत्वपूर्ण परियोजनाओं में से एक है। लक्ष्य है इंटरनेट और कम्प्यूटर के माध्यम से देश को प्रगति के मार्ग पर ले जाना और भारत को विश्व में ई-शक्ति के रूप में स्थापित करना। ऐसा नेट न्यूट्रेलिटी के बिना संभव होना नहीं दीख पड़ता है।
संदर्भ :-
- टिम वू (2013), ‘‘नेटवर्क न्यूट्रेलिटी ब्राडबैण्ड डिस्क्रिमिनेशन’’ (पीडीएफ) ए जर्नल आन टेलीकाम एण्ड हाई टेक लॉ।
- विल्वर एल. श्राम, मास मीडिया एण्ड नेशनल डेवलपमेंट : द रोल आफ आफ इनफॉरमेशन इन द डेवलपिंग कंट्रीज, स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस,1964, पृ.65.
- मस्सौदी, मुस्तफा, ‘द न्यू वल्र्ड इनफॉरमेशन आर्डर’ करेन्ट इश्युज इन इंटरनेशनल कम्युनिकेशन, लांगमैन, न्यूयार्क, पृ. 311-320.
- मैनी वॉयसेस, वन वल्र्ड यूनेस्को पेरिस, 1984, पृ. 236