डॉ. संजीव गुप्ता*
डॉ. धरवेश कठेरिया**
यूनेस्को में पिछले दिनों एक सम्मेलन हुआ था, जिसमें सांस्कृतिक अभिव्यक्ति के संरक्षण और संवर्धन के संबंध में चिन्ता तो थी ही साथ ही साथ समर्थन भी था। पिछले वर्षों में संपन्न यूनेस्को की 33वीं सामान्य सभा में भारतीय दल के सदस्य भी थे। इनका उददे्श्य स्पष्ट था, जैसा कि आज दुनिया में सभी कुछ स्पष्ट करने का प्रयास किया जाता है। तात्पर्य यह था कि संस्कृति को भी उपभोग की वस्तु बनाकर प्रस्तुत किया जाए, ताकि इसका भी व्यापार और बाजारीकरण किया जा सके। अर्थात संस्कृति को ‘सांस्कृतिक उत्पाद’ बनाकर व्यवसाय और व्यापार बनाकर विश्वव्यापार संगठन के दायरे में विनिमय किया जा सके। यूनेस्को के इस सम्मेलन में अनेक राष्ट्रों ने अपने देश की संस्कृति की सांस्कृतिक विभिन्नता की सुरक्षा के लिए सरकारों से गुहार लगाई।
इसकी प्रारंभिक चर्चा में, अमेरिका ने इस प्रस्ताव पर विरोध किया। प्रतिभागिता कर रहे कुल 160 देशों में से 158 देशों ने अमेरिका के इस प्रस्ताव का विरोध किया। केवल अमेरिका ने ही इसके पक्ष में वोट दिया। यह स्पष्ट है कि अनेक स्वतंत्र राष्ट्रों ने इस तरह के सम्मेलनों का स्वागत तो किया परंतु वहीं अपने देशों की सांस्कृतिक पहचान, अस्मिता तथा वैविध्य के संरक्षण की भी चर्चा की, क्योंकि अमेरिकी सांस्कृतिक साम्राज्यवाद के इस भय को वे समझ गए थे।
अमेरिका वैश्वीकरण के माध्यम से न केवल आर्थिक और सैनिक क्षेत्र तक सीमित है बल्कि वह राजनीतिक और सांस्कृतिक आधिपत्य भी चाहता है। वह लाभ और अपने व्यवसाय के लिए कई नए क्षेत्रों में भी आधिपत्य चाहता है, जिससे कि उसको लाभ हो सके।
* वरिष्ट सहायक प्रोफेसर, जनसंचार विभाग, माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल, मध्यप्रदेश। ** सहायक प्रोफेसर, संचार एवं मीडिया अध्ययन केंद्र, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा महाराष्ट्र।
इस वैश्वीकरण की प्रक्रिया में सांस्कृतिक आधिपत्य के माध्यम से सामान्य जन की रूचियों के अनुसार सख्ती से इसका समरूपण (homogenization) और भौतिकीकरण (commodification) चाहता है। जैसे-जैसे सामान्यजन की रूचियां बढ़ती जाएगी, वैसे-वैसे उसका व्यावसायिक आधिपत्य भी बढ़ता जाएगा। तद्नुसार सांस्कृतिक उत्पादों का टेक्नालॉजी और यांत्रिक पुर्न: उत्पादन बढ़ता जाएगा। संस्कृति का व्यावसायीकरण, वैश्वीकरण का ही एक स्वाभाविक उपपरिणाम है। उदाहरण के तौर पर अचानक ही पश्चिमी अवधारणांए जैसे कि ‘वेलेंटाइन डे’ का युवाओं के मध्य लोकप्रिय हो जाना अथवा टेलीविजऩ रियालिटी शो के धमाल और लोकप्रिय होते सोप ऑपेरा, इसके ही परिणाम हैं। ‘वेलेंटाइन डे’ के दौरान गिफ्ट्स, कार्ड, शुभकामनांए, युवाओं द्वारा एक दूसरे को दी जाती है। तीसरी दुनिया के देशों में साक्षरता तो बढ़ रही है तो वहीं ‘वाल्ट डिस्ने’ के कार्टून और खिलौने भी बच्चों के मध्य अत्यन्त लोकप्रिय हो गए हैं। इसी तरह बार्बीडाल, पाण्डा, बेनेटन और अनेक पाश्चात्य खिलौनो ने भी अपनी जगह घरों में बना ली है। इस तरह पाश्चात्य ‘संस्कृति’ के प्रभाव से बाजार भी अछूता नहीं रह सका है।
वर्ग आधिपात्य की दृष्टि से देखें तो संस्कृति के वैश्वीकरण के फलस्वरूप लोगों की दृष्टि भी बदलती जा रही हैं। उसमें वैविध्य स्पष्ट है। यहां संस्कृति किसी अपील की तरह नहीं है, या कला या इसके सौंदर्य के लिए नहीं है, बल्कि गरीबी और कृपणता से बचाव की घबराहट से दूसरी तरफ ध्यान आकर्षण करने के लिए है। परिणाम स्वरूप लोगों की ऊर्जा और उनमें परिवर्तन के लिए संघर्ष के लिए भी है।
माईकल पारेन्टी का कथन है कि ‘अब हमारी संस्कृति को उपयुक्तता के साथ इस तरह अभिव्यक्त किया जाने लगा है- जैसे ‘मास कल्चर’ (MASS CULTURE), पापुलर कल्चर (popular CULTURE), और यहां तक की मीडिया कल्चर (MEDIA CULTURE), आदि। इसका संचालन भी विश्व की बड़ी-बड़ी ट्रांसनेशनल कंपनियां और कार्पोरेशंस के द्वारा किया जा रहा है, जिनका मुख्य उददेश्य अपने लिए धन कमाना और अपने स्वत: के लिए विश्व को सुरक्षित बनाना है। उनका उद्देश्य है कि ‘‘मूल्यों (values) का उपयोग न हो वरन मूल्यों (values) का आदान-प्रदान हो। सामाजिक सृजनता के स्थान पर सामाजिक नियंत्रण हो’’।
इस ‘‘मास संस्कृति” का उपयोग बड़े-बड़े स्वार्थों के लिए किया जा सके तथा इस ओर से हमारा ध्यान भंग हो सके। मीडिया में सांस्कृतिक वैविध्य, स्वतंत्रता तथा अनेकवाद एक महत्वपूर्ण अवयव है। ये सभी यूरोपियन दृश्य-श्रव्य मॉडल के पब्लिक सर्विस प्रसारण के अंग है। स्वतंत्रता तथा अनेकवाद सांस्कृतिक आदान-प्रदान तथा लोकतंत्र में सांस्कृतिक वैविध्य के अंग है। भविष्य में वैश्वीकरण और टेक्नालॉजी के द्वारा और अधिक परिवर्तन आने की संभावना है। अत: ऐसी नीतियां जहां आवश्यक है वहीं अधिनियम की भी आवश्यकता है जिसमें सांस्कृतिक वैविध्य और अनेकवाद को क्षेत्रीय, राष्ट्रीय तथा वैश्विक स्तर पर प्रोत्साहन प्राप्त हो।
संदेशों के ट्रांसनेशनल व्यवस्था में विशादीकरण अथवा विस्तार आया है। दूसरी तरफ नेटवर्क में स्थानीय निर्माण और वितरण भी परिलक्षित हुआ है। अत: केबल तथा माइक्रोवेब टेक्नालॉजी ने ‘मास मार्केट’ में विभेदीकरण किया है तथा बड़े-बड़े विज्ञापन और कार्पोरेट्स से मीडिया में भी विभक्तीकरण आया है। वैश्विक के साथ-साथ क्षेत्रीय और स्थानीय बाजार भी उन्हें उपलब्ध हुआ है। इसके लिए क्षेत्रीय संस्कृतियों की पहचान भी की गई है, ताकि मीडिया की घुसपैठ आसान हो सके। स्थानीय अर्थशास्त्र और संस्कृति की भी पहचान आवश्यक हो गई है। प्रश्न यह भी उपस्थित हुआ है कि वैश्विक और स्थानीय को कैसे जोड़ा जाए। इसमें संस्कृति की भूमिका कैसी हो?
जैकसन का कथन है कि ‘‘उत्पादन के वैश्वीकरण व्यवस्था के फलस्वरूप अंतरराष्ट्रीय स्वरूप के कारण लोगों में सेवा, माल इत्यादि के प्रति जटिलता आ गई है। भौगोलिक सीमाओं की समाप्ति के फलस्वरूप असमानता उत्पन्न हो गई है।
पर्सी बार्नेविक, चीफ एक्जीक्यूटिव आफीसर, ए.बी.बी. का कथन है कि ‘वैश्विक प्रबंधक खुले विचारों के होते है, वे यह भी जानते है कि विभिन्न देशों के लोग क्या करते है? क्या चाहते हैं? वे उनकी सांस्कृतिक सीमा में ही काम करना चाहते हैं। लेकिन यह मानना त्रृटिपूर्ण होगा कि वैश्वीकरण की संस्कृति पूरी तरह गैर पारंपरिक है। ये संस्कृतियां भी अपनी प्रतिकूलता में भी है और मौलिकता लिए हुए भी। आज टेलीविजऩ के विभिन्न चैनलों में भारतीय संस्कृति की परंपरा भांगड़ा, डांडिया, गरबा, गज़ल, कब्बाली, मुसायरा आदि अपने मूल रूप में ही प्रस्तुत किए जा रहे हैं, बल्कि इन्होंने अपना अंतरराष्ट्रीय स्वरूप भी प्राप्त कर लिया है।
लोक और पारंपरिक रूप जनरुचि के लिए संस्कृति का समरूपण (homogenization) प्रस्तुत करते है। टेक्नालॉजी के द्वारा ‘मास पब्लिक’ के लिए संस्कृति का पुर्न: उत्पादन किया जा रहा है। जिसके कारण जनता में भी इसके प्रति समरूपण आया है। इस तरह से मनोरंजन उद्योग वैश्विक संस्कृति की रीढ़ बन गई है। आगे इस तरह से पारंपरिक रूपों के द्वारा लाभ की खेती की जा रही है और वैश्वीकरण के द्वारा संस्कृति के मुगलों (cultural mougals) द्वारा इसका लाभ उठाया जा रहा है। इस तरह सांस्कृतिक साम्राज्यवाद के माध्यम से ‘पापुलर संस्कृति’ को प्रोत्साहन भी दिया जा रहा है। क्योंकि इसके माध्यम से बाजारवाद को बढ़ावा मिलता है। उनके लिए एक विश्व बाजार भी तैयार होता है।
भारत में आज इसे देखा जा सकता है, देश में विज्ञापनों में कई मिलियन डालर्स खर्च किये जा रहे हैं। उददेश्यों के लिए विषय तैयार किये जा रहे है। सबसे पहले दर्शक उपभोग की वस्तु देखते हैं, तत्पश्चात जनरुचि का समरुपण होता है, और विज्ञापनों के माध्यम से वह उपभोक्ताओं के पास जाता है। बहुजन (poliferation) तथा कंवर्जेन्स मीडिया का अंतरराष्ट्रीयकरण है। यहां तक कि स्वामित्व संगठन, वित्तीय, निर्माण, वितरण, विषयवस्तु ग्रहणता तथा नियमों में भी।
आज ग्लोबलाईजेशन के चलते मीडिया तथा मीडिया अनुभव ने भी राष्ट्रीय मीडिया का चरित्र बदल दिया है। साथ-साथ स्वामित्व (ownership), संग्रहीकरण (conglomoration) तथा अंतरराष्ट्रीयकरण का दायरा भी सशक्त रूप से बढ़ा है।
मीडिया के एकाधिकार और व्यावसायीकरण के फलस्वरूप आमजन से इसका विभाजन (stratification) हो रहा है, इसका कारण बह लोगों की सूचना तथा सांस्कृतिक आवश्यकताओं को पूरा नहीं कर रहा है। इसमें विचारों की बहुलता, सांस्कृतिक विभिन्नता की अभिव्यक्ति और भाषा सम्मिलित है।
भारत के पूर्व राष्ट्रपति श्री के. आर. नारायणन ने 26 जनवरी, 2000 को चेतावनी दी थी कि ‘‘नव धनाढ्य निर्लज्ज रूप में अपरिष्कृत उपभोग में लिप्त हैं और निचले वर्ग के लोगों में कुण्ठाएं पैदा कर रहे हैं। हमारे समाज का आधा हिस्सा मादक पेय पदार्थ का उपयोग करता है, जबकि दूसरा आधा भाग हाथ भर कर गंदा मिट्टी युक्त पानी पीने को मजबूर हैं।’’
संस्कृति के संदर्भ के इनके द्वारा बड़े फूंक-फूंक कर कदम रखें जा रहे हैं। इन सांस्कृतिक कार्यक्रमों में ज्यादा से ज्यादा भीड़ एकत्र करना और उनकी मनोरंजन की भूख मिटाना है। यही कारण है कि टेलीविजन सीरियलों को रोचक आकर्षक ढंग से प्रस्तुत किया जाता है। ज्यादा से ज्यादा सामान्य लोगों के मध्य घुसपैठ, कार्यक्रमों में संवेदनशीलता, यह सब ‘पापुलर कल्चर’ का ही रूप है। संस्कृति भी ‘सांस्कृतिक जंक फूड’ की तरह हो गई है। इस संस्कृति में छटपटाहट, भडक़ीलापन, प्रोत्साहन और लोकप्रियता का आव्हान है।
इसी तरह इसे आदर्श के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है, यह मनोरंजन के साथ-साथ वैश्विक बाजार की स्थापना भी करता है और यह संस्कृति, ‘मनोरंजन की संस्कृति’ में बदल गई है। राजनीतिक, प्रोपेगण्डा, छवियां, मूल्य, सेक्स, वर्ग भेद, उपभोक्तावाद तथा सांस्कृतिक सामाज्यवाद को प्रोत्साहन और बढ़ावा देती है।
20वीं सदी के चिन्तक एवं सामाजशास्त्री सी. डब्ल्यू. मिल्स का मत है कि मास मीडिया अलोकतांत्रिक नियंत्रण के रूप में रहता है और इसमें कुछ उत्तर प्राप्त करने की संभावनाएं रहती हैं। इसी कारण पिछले दो तीन दशकों में समाज में भारी परिवर्तन आए हैं। समाज के बदले परिवेश में संचार क्रांति तथा सूचना समाज जैसी विशिष्टताएं उभर कर आई हैं। इसमें डेनियल बेल ने अमेरिका में तथा वायईटो ने जापान में नए मुहावरों को प्रचलित किया है जैसे उत्तर औद्योगिक समाज तथा सूचना समाज आदि।
मेक्वेल का कथन है कि ‘ग्लोबल मीडिया की संस्कृति मूल्य युक्त है, वास्तव में ये पश्चिमी पूंजीवाद के मूल्यों को साकार रूप दे रहे हैं। जिसमें व्यक्तिवाद तथा उपभोक्तावाद, सुखवाद तथा व्यवसायीवाद सम्मिलित है। यह कुछ के लिए सांस्कृतिक विकल्प है, कुछ के लिए सांस्कृतिक क्षितिज है। यह पूर्व की विद्यमान स्थानीय, स्वदेशीय, पारंपरिक तथा अल्पसंख्यक संस्कृतियों के लिए चुनौती देती है।
विश्व में सांस्कृतिक साम्राज्यवाद का प्रतिपादन करने वाले हर्बट शिलर का मत है कि जनसंचार टेक्नालॉजी का परिणाम है। यदि इसे फलना-फूलना है, तो उसे विशाल, बड़े श्रोता समूह की आवश्यकता होगी। अत: भारी मात्रा में समाचार, मनोरंजन, जितने भी संभव हो सके उतने देशों में उसे बेचना होगा। सांस्कृतिक साम्राज्यवाद सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक आभास है। इसके द्वारा स्थानीय जनता पर प्रभाव डाला जाता है। इन्हें इस सीमा तक प्रभावित किया जाता है कि ये लोग अपनी संस्कृति से घृणा करने लगें और विदेशी संस्कृतियों का अनुसरण करें।
डेनिस मेक्वेल का कथन है कि 19वीं – 20वीं शताब्दियों में जिस प्रकार की संस्कृतियां विचारों में रोपित की गई थी, वे राष्ट्रीय आंदोलन के पुर्न: खोज में घनिष्ट रूप में सांस्कृतिक परंपराओं से जुड़ी हुई थी।
मीडिया के वैश्वीकरण उददेश्य इस बात को आगे बढ़ाते हैं कि ज्यादा से ज्यादा समरूप संस्कृति हो, जिसे हेमलिंक ने सांस्कृतिक सामंजस्य कहा है। अर्थात जिसमें किसी भी देश की संस्कृति के विकास के निर्णय केवल सशक्त केंद्रीय राष्ट्र के पक्ष में किये जाते हैं और अन्य राष्ट्रों को स्वतंत्र होने के लिए उन पर थोपे जाते हैं।
निष्कर्ष:
- अमेरिका संस्कृति को ‘सांस्कृतिक उत्पाद’ बनाकर उसका बाजाऱीकरण किये जाने का प्रयास कर रहा है।
- अमेरिका सांस्कृतिक समरूपण करके उसका भौतिकीकरण करने में लगा है।
- संस्कृति का व्यावसायीकरण, वैश्वीकरण का ही एक स्वाभाविक परिणाम है।
- तीसरी दुनिया के देशों में साक्षरता तो बढ़ रही है, वहीं पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव से ‘बाल्ड डिस्ने’ के कार्टून और खिलौने भी बच्चों के बीच लोकप्रिय हो गये हैं।
- संस्कृति के वैश्वीकरण के फलस्वरूप लोगों की दृष्टि बदल रही है। जिससे उनमें परिवर्तन के लिए संघर्ष भी हो रहा है।
- ‘थिंक लोकली एण्ड एक्ट ग्लोबली’ की भावना मास मार्केट में प्रबल हुई है।
- आज वैश्वीकरण के दौर में भी भारतीय संस्कृति की परंपराएं अपनी मौलिकता के साथ टेलीविजन पर पूरे विश्व में मूल रूप में ही प्रस्तुत की जा रही है।
- राष्ट्रीय मीडिया आम लोगों की सूचना तथा सांस्कृतिक आवश्यकताओं को ठीक से पूरा नहीं कर रहा है।
- सांस्कृतिक साम्राज्यवाद के द्वारा ‘पापुलर संस्कति’ को प्रोत्साहित किया जा रहा है।
- सांस्कृतिक वैविध्य और अनेकवाद को क्षेत्रीय, राष्ट्रीय और वैश्विक स्तर पर प्रोत्साहित किये जाने हेतु नीतियों एवं अधिनियमों की आवश्यकता महसूस की जा रही है।
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रिपोर्ट संदर्भ:
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- FICCI- KPNG, Report 2011, 12, 13, 14.
वेबसाइट संदर्भ:
- www. ascionline.org
- www. indiantelivision.com
- www. deloitte.com
- www. pitchonnet.com
- www. ecxchange4media.com
- www. mediaresearch.com