डॉ. सुमन गुप्ता*
ग्रीन कम्युनिकेशन एवं टिकाऊ विकास के सन्दर्भ में पर्यावरण संरक्षण
विकास जीवन की जरूरत है यह अपने आप में बहुआयामी है। विकास के नाम पर जंगलों को खत्म करना, निर्माण करके बड़ी-बड़ी अट्टालिकाएं खड़ी करना, धरती के प्राकृतिक संसाधनों का दोहन करना, जलदोहन करके उसे व्यापारिक उत्पाद बनाकर उसका विक्रय करना भी विकास की इसी परिपाटी का हिस्सा है। विकास के अंधाधुध प्रयोगों से दुनिया भर में जलवायु परिवर्तन का प्रभाव पडऩे लगा है। जलवायु परिवर्तन पर 1997 में अन्तरराष्ट्रीय समझौते क्योटो प्रोटोकाल को मंजूरी देने की घोषणा की गई थी। इसी प्रकार दक्षिण अफ्रीका के जोहान्सवर्ग में हुए वैश्विक सम्मेलन (2002) में दीर्घकालिक विकास पर चर्चा की गई थी। प्रथम वैश्विक पृथ्वी सम्मेलन 1992 रियो डि जिनेरियो में ग्लोबल वार्मिंग के मुद्दे पर सदस्य देशों के बीच अन्तरराष्ट्रीय सहमति भी बनी थी। टिकाऊ विकास के मूल में वन प्रबन्धन रहा है।
विकास को हमें पर्यावरण के सन्दर्भ में देखना होगा जिसे हम पर्यावरण कहते है उसके मूल में जाने पर यही ज्ञात होता है कि ‘पर्यावरण शब्द से उस परिवेश का ज्ञान होता है जिसके अन्तर्गत एक निश्चित भौतिक एवं जैविक व्यवस्था के तहत जीवधारी रहते हैं, बढ़ते, पनपते और स्वाभाविक प्रवृतियों का विकास करते हैं।1 पर्यावरण न केवल मानव बल्कि विभिन्न प्रकार की जीव-जन्तु एवं वनस्पति के उद्भव विकास एवं अस्तित्व का आधार है। कुछ पर्यावरणविदों का मानना है कि ‘प्रकृति में संकट का सबसे बड़ा कारण मानवीय है। मानव ने ही सबसे अधिक प्रकृति का शोषण किया है। जंगल कटते जा रहे हैं, नदियां प्रदूषित हो रही हैं। ग्लेशियर पिघल रहे हैं और समुद्र का जलस्तर बढ़ रहा है।’2
विकास का चेहरा
विकास का चेहरा कैसा हो इस पर बहुत विचार किया जाता रहा है। विकास का मतलब क्या हो इसका वर्तमान व भविष्य के साथ कैसा रिश्ता हो? विकास, विनाश का रूप न धारण कर सके इस प्रश्न पर गंभीरतापूर्वक विचार करना पड़ेगा कि विकास हमारी जरूरतों पर ही आधारित हो या इसका किफायती और संतुलित स्वरूप भी हो।
विकास, किसका और किसके लिए का सवाल पैदा होता रहता है। मानव सूचकांक में विकास की क्या स्थिति है, यह विकास का मानवीय चेहरा (Development with human face) पर निर्भर करता है। विकास की इस अनिवार्यता में हम कहीं न कहीं अपनी ‘जरूरत’ को ही प्रमुखता देते हैं। इस प्रकार पृथ्वी पर मौजूद संसाधनों के निरन्तर दोहन से कहीं ऐसी स्थिति न पैदा हो जाये कि आने वाली पीढ़ी के लिए कुछ बचे ही नहीं। हमें अपनी सांस के लिए आक्सीजन के लिए सिलेंण्डर तलाश करना पड़े।
ग्रीन कम्युनिकेशन की बात करते समय हमारे समक्ष, संचार का ऐसा खाका भी होता है कि यदि हम लोगों को इसके प्रति जागरूक नहीं कर पायेंगे तो सिर्फ सरकारों के भरोसे ही इसे सुरक्षित नहीं रखा जा सकता है। टिकाऊ विकास के लिए पर्यावरण के प्रति जनसंचार का ऐसा माध्यम भी अपनाना होगा जो सशक्त, प्रभावशाली व दीर्घकालिक प्रभाव रखता हो। इस सम्बन्ध में लोग न सिर्फ सोंचे वरन् अपने व्यवहार में भी उसे उतार सकें। दुनिया में विकास का कोई एक सार्वभौमिक माडल नहीं हो सकता है जिसे दुनिया के सभी देशों व समाज के उपयुक्त कहा जा सके।
भारत में वर्ष 2002 के बाद लोकसभा व विधानसभा के जितने भी चुनाव हुए हैं उन सभी में विकास एक महत्वपूर्ण मुद्दा रहा है। यह मुद्दा इस प्रकार बन गया कि संसद व विधानसभाओं में बैठने वाले जनप्रतिनिधियों को विधान बनाने के बजाय विकास करने का माध्यम मान लिया गया। उनके रिपोर्ट कार्ड को उनके इलाके के विकास को जोडक़र देखा जाने लगा। यहां विकास को सडक़ बिजली और पानी से जोडक़र ही देखा जाता रहा है। इसी के साथ यह भी सच है कि सिर्फ सडक़ बिजली और पानी की उपलब्धता ही विकास का पैमाना नहीं हो सकता है।
जहां तक समाजिक बदलाव के लिए टिकाऊ विकास के लिए संचार का प्रश्न है यह बहुआयामी है। संचार की प्रक्रिया सभी प्रकार के समाज के लिए एक नहीं हो सकती है यह समूह, समाज, समुदाय, उसकी भाषा, बोली संस्कृति और सन्दर्भ की भिन्नता के अनुसार परिवर्तित होती रहती है।3 वास्तव में देखा जाये तो संचार के लिए भी यह अपने आप में एक चुनौती है कि सिद्धान्त और व्यवहार में कैसे उतारा जाये।
ग्रीन कम्युनिकेशन और टिकाऊ विकास में मास मीडिया: संभावनाएं एवं चुनौतियां
पर्यावरण के मुद्दे पर मास मीडिया की भूमिका को यदि हम रेखांकित करने पर यही प्रतीत होता है कि मास मीडिया के सभी माध्यम इसे किसी न किसी रूप में अपनाते रहे हैं। माध्यम चाहे प्रिण्ट रहे हों, इलेक्ट्रानिक, रेडियो, टीवी, सोशल मीडिया या वैकल्पिक मीडिया के हों।
मास मीडिया एकमात्र माध्यम है जो जनता को जागरूक करने तथा उसे व्यवहार में लाने के लिए प्रेरित कर सकता है यद्यपि सभी सर्वेक्षण यही बताते हैं कि मुख्यधारा के मीडिया में सबसे अधिक महत्व राजनीति की खबरों को दिया जाता रहा है। उसके बाद अपराध, सेलिब्रिटी, खेल, और भ्रष्टाचार से जुड़ी खबरें महत्व पाती हैं। सामान्य परिस्थितियों में पर्यावरण और वन्यजीव जैसे मुद्दों पर सबसे कम स्थान व समय मिलता है। विध्वंस व प्राकृतिक आपदा जैसे घटनाक्रमों के समय इन्हें दूसरी खबरों जैसा महत्व स्थान व समय मिलता है।4
मास मीडिया ही वह सशक्त व प्रभावशाली माध्यम है जिसके जरिए हम पर्यावरण और टिकाऊ विकास के प्रति लोगों में चेतना का विस्तार कर सकते हैं और इनकी विभीषिका से सचेत कर जान-माल की रक्षा करते हुए भविष्य को भी सुरक्षित बना सकते हैं ताकि आने वाली पीढिय़ों को भी इसका लाभ मिल सके। इसका सबसे बड़ा कारण मास मीडिया का आमजन तक सीधी पहुंच है। यदि हम पुस्तकों को लेते हैं तो उसका क्षेत्र अकादमिक हो सकता है। इसी प्रकार सभा, गोष्ठी सेमिनार के माध्यम से हम क्षणिक रूप से लोगों के बीच अपनी बात रख सकते हैं लेकिन उससे निरन्तर संवाद में नहीं बना रहा जा सकता हैं। मास मीडिया इसे मुद्दा बना सकता है और मुद्दे के रूप में इसके प्रति लोगों का ध्यान आकर्षित कर सकता है। जब तक कोई बात मुद्दे के रूप में सामने नहीं आती है लोग उसकी अनदेखी कर देते है।
यह नहीं कहा जा सकता है कि पर्यावरण को क्षति सिर्फ अमीर या गरीब ही पहुंचा रहे हैं। पर्यावरण को क्षति पहुंचाने में अमीर-गरीब, निरक्षर साक्षर सभी की भूमिका है। जिसके पास जितने संसाधन हैं वे उतना ही उसका दोहन करने के लिए तैयार रहते हैं। कहीं यह जीवन की जरूरत से जुड़ा होता है कहीं यह समृद्धि का कारण।
भारत ने आपदा प्रबन्धन के लिए एक अलग विभाग का ही गठन किया गया है जिससे आपदा की स्थिति का मुकाबला किया जा सके। सभी राज्यों में भी इसी तंत्र पर आधारित व्यवस्थाएं हैं। जब भी बाढ़, भूकम्प, सूखा, भूस्खलन, जैसी स्थितियां आती हैं सरकारें फेल हो जाती हैं। जब बेमौसम ज्यादा गर्मी महसूस होती है, समय से बरसात नहीं होती है या बादल फटने जैसी स्थिति में बरसात थमने का नाम नहीं लेती है। तापमान गिरने से बर्फ जमने की असामान्य स्थिति पैदा हो जाती है या दुबई में बर्फ गिरती है। तब हमें याद आता है पर्यावरण। इसी के साथ हमें यह भी याद आता है हमारे पुरखे पेड़ों की पूजा क्यों करते थे। सूरज और चन्द्रमा को देखकर उसकी पूजा क्यों करते थे? जब हम इनसे भलीभांति अवगत नहीं थे तब हम इन्हें एक शक्ति मानकर पूजा करते थे।
जहां तक प्राकृतिक आपदा का सवाल है। हम इसे कश्मीर की बाढ़ और उत्तराखंड की त्रासदी से अच्छी तरह से समझ सकते हैं। उत्तराखंड में किस प्रकार नदियों की तलहटी में लगातार भवन इमारतों के निर्माण यह जानते हुए भी होते रहे कि कि नदियां कभी भी अपना मार्ग बदल लेती हैं पुराने मार्ग पर फिर से आ सकती हैं, इसके बावजूद राज्य सरकारों की आंख मूंदे रहने की रणनीति के चलते यह सब कुछ होता रहा जिसके कारण जन-धन की बड़े पैमाने पर हानि हुई। प्रकृति का नियम है कि विध्वंस और विनाश के बाद जीवन उपजता है। पहाड़ों का निर्माण भी इन्हीं प्रक्रिया के तहत हुआ। उत्तराखंड में 16-17 जून 2013 को केदारनाथ में आयी आपदा के बाद विषेशज्ञ समिति की सिफारिशों मे इस बात पर विशेष बल दिया गया था कि विकास और पर्यावरण के बीच सन्तुलन बनाना होगा।5
पर्यावरण को सही रखने में हरित आच्छादन की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। फारेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया की 1992 की रिपोर्ट का अध्ययन यही बताता है कि देष के 415 जिलों में वन आच्छादन के मामले में चेतावनी की स्थिति है। देश में 52 जिले ऐसे रहे जहां कोई वन क्षेत्र ही नहीं है। इनमें से 15 जिले बिहार तथा 11 उत्तर प्रदेश के थे।6
इसके एक दशक बाद उद्योग एवं वाणिज्य मंत्रालय की 2013 की वन क्षेत्र की रिपोर्ट के में कहा गया कि देश में पिछले वर्षों की तुलना में कुल 5871 वर्गकिमी. वन क्षेत्र ही बढ़ा है। केन्द्रीय भवन एंव पर्यावरण मंत्रालय द्वारा जारी रिपोर्ट में कहा गया है कि 2011 से 2013 के बीच सिर्फ 5871 वर्गकिमी. में वनक्षेत्र की वृद्धि हुई है।7 यह वृद्धि भी सबसे अधिक पश्चिम बंगाल (3810) और उड़ीसा (1444)राज्य में हुई है। बिहार, झारखंड एवं तमिलनाडु का नम्बर इसके बाद आता है। इसी रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि आन्ध्र प्रदेश, मध्यप्रदेश, कर्नाटक व छत्तीसगढ़ में वनक्षेत्र में कमी आयी है। 2013 की रिपोर्ट के अनुसार भारत में कुल 697898 वर्गकिमी. वनक्षेत्र है जो कुल भौगोलिक क्षेत्र का मात्र 21 प्रतिशत है।8 हवा, धूप, पानी जैसे अनिवार्य तत्वों पर वैश्विक तौर पर मंडरा रहे संकट के बादलों से हमारा अस्तित्व ही खतरे में पडता नजर आ रहा है। पेड़ कटते जा रहे है, वन एवं पर्यावरण मंत्रालय की 2013 की रिपोर्ट के अनुसार देश में सिर्फ 5,871 वर्ग किमी. वनक्षेत्र में वृद्धि हुई है। उत्तर प्रदेश को यदि हम देखें तो यह हमारे भौगोलिक क्षेत्र के मात्र 2.86 प्रतिशत है। उत्तर प्रदेश में 6895 वर्गकिमी. वनक्षेत्र ही है।9
पर्यावरण संरक्षण और टिकाऊ विकास में सरकारों की भूमिका
पर्यावरण संरक्षण और टिकाऊ विकास सिर्फ जनता से जुड़ा प्रश्न नहीं है क्योंकि राज्य सरकारों की नीतियों की एक बड़ी भूमिका है। विकास का पैमाना वहीं तैयार करती हैं। यही कारण है कि जब वे किन्ही परियोजनाओं को मंजूरी देती है या उनकी योजना बनाती हैं तो उनकी पर्यावरण क्लियरेंस भी आवश्यक होती है। बड़े बांध बनाना, सडक़ बनाना, बिजली और पानी की व्यवस्था के साथ ही जनता की बुनियादी जरूरतों को पूरा करना एक लोकतांत्रिक राज्य के लिए अनिवार्य हैं। वहीं पर्यावरण को क्षति न पहुंचे और हम ऐसा विकास माडल अपनायें जिससे भविश्य में उसका खामियाजा न भुगतना पड़े। आबादी, पर्यावरण, विकास और अर्थव्यवस्था भी एक दूसरे से जुड़े हुए हैं।
यूनेस्को के नेचुरल साइंस के यूनिट के प्रोग्राम आफीसर डा. रामबुझ ने पर्यावरण संरक्षण की लखनऊ में एक वर्कशाप में कहा कि ‘टिकाऊ विकास के लिए पर्यावरण, समाज और अर्थव्यवस्था तीन महत्वपूर्ण स्तम्भ हैं।10 सरकारों को अपनी नीतियां यह देखते हुए भी बनानी पड़ेगी कि जिस प्रकार गांवों से शहरों की ओर पलायन जारी है उसका परिणाम होगा कि 2050 तक षहरों में 70 फीसदी आबादी आ जायेगी। बांध, सडक़, बिजली परियोजनाएं, जल संसाधन, खनन, औद्यौगिकीकरण विकास की आवश्यकता भी बढ़ती ही जायेगी। लोग अब पूर्व स्थितियों में वापस नहीं जा सकते हैं ऐसे में चुनौती और भी बढ़ जाती है कि जनता के हितों को ध्यान में रखते हुए पर्यावरण संरक्षण किया जा सके।
किसी भी देश में टिकाऊ विकास के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए सरकारों के लिए जरूरी है कि वे सामाजिक और आर्थिक मुद्दों पर प्रभावशाली तरीके से काम करें तथा राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर लीगल फ्रेमवर्क में काम करने के साथ ही बहुस्तरीय सहमति भी बना सकें।11
पर्यावरण संरक्षण में मास मीडिया की स्थिति
प्रिण्ट माध्यम एक टिकाऊ माध्यम होने के बावजूद इसकी एक सीमा है कि यह पढ़े-लिखे लोगों तक अपनी पहुंच बना सकता है। दुनिया के दूसरे देशों में प्रिण्ट मीडिया सीमित होता जा रहा है और मीडिया विश्लेषकों द्वारा यह कहा जाने लगा है कि प्रिण्ट मीडिया का भविश्य समाप्त हो गया हैं। भारत जैसे देश में प्रिण्ट मीडिया फल-फूल रहा है और इसकी प्रसार संख्या भी निरन्तर बढ़ती जा रही है। समाचार पत्रों के पंजीयक के अनुसार भारत में पंजीकृत समाचार पत्रों की संख्या 99,660 है।12 इसका प्रमुख कारण प्रिण्ट मीडिया की विश्वसनीयता के साथ ही देश में साक्षरता की दर में विस्तार व एक बड़े मध्यवर्ग का तैयार होना भी है।
एक ओर हम पर्यावरण संरक्षण की बात करते हैं वहीं दूसरी ओर प्रिण्ट मीडिया में समाचार पत्रों में इसके पृष्ठों के विस्तार की होड़ है। प्रथम प्रेस आयोग ने इन्हीं सब बातों पर विचार करते हुए प्राइस पेज शिडिल्यूल की सिफारिशें की थीं कि समाचार पत्र का दाम उसके पृष्ठों के आधार पर तय होना चाहिए। इससे कागज की अनावश्यक खपत भी कम होगी और अनैतिक प्रतिस्र्पधा से भी मुक्ति रहेगी। 12 पृष्ठ से लेकर एक सौ बीस पृष्ठ के दैनन्दिन अखबारों की आवश्यकता क्या है? पर्यावरण और टिकाऊ विकास पर बात करते समय इस पर भी विचार करना ही पड़ेगा। इसका तात्पर्य यह कतई नहीं कि हमें प्रिण्ट मीडिया को समाप्त कर देना चाहिए क्योंकि कागज पेड़ों से बनता है। कागज की रिसाइकलिंग भी होती है और इसे पुन: इस्तेमाल किया जा सकता है। यदि हम इस प्रकार के तर्क देने लगे तो फिर एसी, फिज्र, रेफ्रिजरेटर, गाडिय़ों से और मोबाइल टावरों से निकलने वाली गैसे पर्यावरण को कहीं अधिक हानि पहुचाती हैं। प्रिण्ट मीडिया के स्थायित्व को देखते हुए पर्यावरण संरक्षण में अन्य माध्यमो की अपेक्षा कहीं अधिक उपयोगी हो सकता है। इसे कभी भी कहीं भी पढ़ा जा सकता है। प्रिण्ट का क्षेत्र अब सिर्फ प्रिण्ट ही नहीं रह गया है। प्रिण्ट को बेबसाइट के जरिए या ई पेपर के जरिए हूबहू डिजिटल फार्म में भी देखा व पढ़ा जा सकता है।
जाने-माने पत्रकार और ग्रामीण भारत को केन्द्रित कर समाचार पत्रो का अध्ययन करने वाले पी. साईनाथ का प्रिण्ट मीडिया के भविष्य के बारे में यह कथन मायने रखता है कि आने वाले पांच सालों में ब्राडबैंड के विस्तार के कारण प्रिण्ट मीडिया का भविष्य बहुत संकट के दौर से गुजरेगा। 13 फोटो, आडियो-वीडियो का निष्चित रूप से लोगों के मन मस्तिष्क में कहीं अधिक पड़ता है क्योंकि वे इसे लाइव देख सकते है। जो साक्षर नहीं हैं वे भी देखकर समझ सकते हैं। इसकी भी अपनी सीमा है, हम इसे हर जगह नहीं ले जा सकते। इलेक्ट्रानिक माध्यमों पर यह फ्लैश की तरह आता है। भारत में पावर की कमी के कारण बहुत से लोग जब अपने मोबाइल तक चार्ज न कर पाते हों दूसरे गांव में जाकर चार्ज करना पड़ता हो ऐसे में इलेक्ट्रानिक माध्यमों पर टोटल शिफ्ट नहीं हो सकता है। जहां तक आने वाले कुछ माह में ‘4 जी’ के विस्तार और लोगों के हाथ में मोबाइल होने का प्रश्न है जिस पर वे सब कुछ देख जान सकेंगे। पर्यावरण संरक्षण जैसे विषयों पर कोई स्वयं इतना प्रयास जानने का क्यों करेगा यह भी एक बड़ा प्रश्न है जब तक उसकी स्वयं ऐसे प्रश्नों पर कोई रूचि न हो। टीआरपी पर आधारित इलेक्ट्रानिक मीडिया की टीआरपी पर्यावरण के लिए कितनी मिलेगी यह भी एक बड़ी चुनौती इस माध्यम के सामने है।
इसी प्रकार मीडिया के उन माध्यमों पर के बारे में भी सोचना पड़ेगा जिससे निकलने वाले इलेक्ट्रोमैगनेटिक विकिरण दूरगामी प्रभाव मानव और प्राणियों पर डालते हैं। इलेक्ट्रोमैगनेटिक रेडियेशन का प्रभाव का नतीजा है कि इन टावरों का प्रभाव चिडिय़ो पर तथा अन्य कीटों व जीवों पर पड़ता है जिनसे हमारा फसल तंत्र तक प्रभावित होता है।
मास मीडिया के क्षेत्र में रेडियो की पहुंच सबसे अधिक है। इसका उपयोग भी किया जा सकता है। रेडियो सस्ता और सुलभ साधन होने के साथ ही खेत की मेड़ से लेकर गाड़ी मोटर ओर घरों तथा सार्वजनिक स्थलों पर भी सुविधाजनक ढंग से प्रयोग किया जा सकता है मोबाइल में रेडियो के आने से इसका क्षेत्र और भी व्यापक हो गया है।
मास मीडिया में मीडिया इन कनवर्जेंस तथा क्रास मीडिया ओनरशिप के कारण समाचार का एकपक्षीय एकरूपीय प्रवाह होता जा रहा है जो ‘रेजिमेंटेशन ऑफ थॉट’ में परिवर्तित हो रहा है। इलेक्ट्रानिक मीडिया के एजेण्डा सेटिंग को ही समाचार पत्र भी आगे बढ़ा रहे हैं।
पर्यावरण का मुद्दा सिर्फ भारत का नहीं है इसका सम्बन्ध दुनिया भर से है। मीडिया में पर्यावरण को लेकर कितनी जगह मिली कितना समय मिला यह केन्द्रीय पर्यावरण मंत्रालय के सीएमएस मीडिया रिसर्च के पर्यावरण सम्बन्धी खबरों पर किए एक अध्ययन से जाना जा सकता है।14 सीएमएस के अध्ययन के अनुसार -प्राइम टाइम 7 बजे से 11 बजे तक डीडी न्यूज, आजतक, 24×7, सीएनएन-आईबीएन, एनडीटीवी, स्टार न्यूज एबीपी, जीन्यूज चैनलों का 2009 से 2013 तक के अध्ययन से यही निष्कर्ष निकलता है कि कुल समय में से एक प्रतिशत से भी कम समय पर्यावरण और वन्यजीव से सम्बन्धित खबरों पर दिया गया।
2009 में यह कवरेज मात्र 1.53 प्रतिशत रहा जबकि राजनीति से जुड़ी खबरें 20.36 फीसदी रहीं। 2010 में खेल की खबरें 17.93 प्रतिशत, पर्यावरण से सम्बन्धित खबरें 1.29 प्रतिषत ही थीं। 2011 से 2013 तक राजनीति की खबरें सामाजिक खबरों से आगे निकल गईं। इसका परिणाम हुआ कि 2009 के आंकड़े से भी नीचे पर्यावरण की खबरें पहुंच गईं। इनका प्रतिशत मात्र 0.32 रहा। यह पर्यावरण संरक्षण के लिए गम्भीर स्थिति स्थिति कही जा सकती है। इन पांच सालों के अध्ययन रिपोर्ट से यही अर्थ निकलता है कि मीडिया ने कभी कभार ही मौसम, कृषि, प्राकृतिक आपदा और वन्यजीवों पर खबरें प्रसारित की।
अभी हाल ही में आयी सीएमएस की 2014 की रिपोर्ट भी लगभग यही खाका खींचती है। जनवरी से मार्च (2014) में अध्ययन के आंकडों के अनुसार मुख्यधारा के छ: इलेक्ट्रानिक चैनलों में पर्यावरण और वन्यजीवों पर लगभग 3 प्रतिशत से लेकर साढ़े सात प्रतिषत तक समय दिया गया जबकि प्राकृतिक दुघर्टना के मामलों में यह दस प्रतिषत से 18 प्रतिषत रहा। यदि हम कृशि और मौसम के बारे में बात करें तो यह प्रतिषत 0.14 से लेकर 2.27 प्रतिषत तक रहा।
अब आइये प्रिंट पर भी एक निगाह डाल लें कि यहां पर्यावरण और टिकाऊ विकास की क्या स्थिति रही?
इस अध्ययन में जल, जलवायु परिवर्तन, जंगल, वन्यजीव, पर्यावरणीय पर्यटन, और कृषि को शामिल किया गया था। हिंदी के 48 तथा अंग्रेजी के 82 दैनिक समाचार पत्रों के अध्ययन के आधार पर सीएमएस मीडिया लैब की रिपोर्ट के अनुसार 2013 में राजनीति की खबरें 28.28 प्रतिशत, अन्तरराष्ट्रीय खबरें 8.86 प्रतिशत रहीं। वहीं पर्यावरण की खबरों का प्रतिशत सिर्फ 0.20 रहा।15
निष्कर्ष
पर्यावरण का संकट एक सामाजिक संकट है जो सामाजिक संरचना में होने वाले बदलाव के फलस्वरूप विभिन्न रूप धारण कर लेता है। इसके कारणों में न सिर्फ सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक कारण भी निहित हैं। यद्यपि वैश्विक स्वरूप में यह संकट सामाजिक से अधिक राजनीतिक, वर्गीय मुद्दा व आर्थिक रूप में ही प्रकट होता है जिसमें विकसित देष, विकासशील देश और तीसरी दुनिया के देशों के बीच प्राकृतिक संसाधनों के दोहन, शोषण, प्रदूषण को लेकर बहस जारी है।
पर्यावरण संरक्षण सिर्फ नारा न रह जाये इसके लिए हमें मास मीडिया में मुद्दे के रूप में लाना होगा। पृथ्वी पर यदि रहने लायक स्थितियां ही नहीं रह जायेंगी तो हम कहां होगें और हमारी आने वाली पीढ़ी कहां होगी हमें इसके बारे में भी विचार करना होगा।
‘जब जंगल नहीं होगें तौर शेर नहीं होंगे और शेर नहीं होंगे तो हम नहीं होंगे।’ यह एक वाक्य है, जो विज्ञापन की पंचलाइन हो सकता है। यह हमारे जीवन की परिस्थितिकी की एक हकीकत भी है। पर्यावरण के संकट को देखते हुए आवश्यक है कि जागरूक बनाया जाये जिससे वर्तमान की जरूरतों के साथ ही आने वाली पीढ़ी की जरूरतों के लिए भी संसाधनों की उपलब्धता बनी रहे जो मानव के अस्तित्व में बने रहने के लिए अनिवार्य तत्व है।
संदर्भ :
- डा. अर्जुन सोलंकी/ डा. सुनीता बकावले, देषबन्धु दिल्ली दिसम्बर 12,2014 पृ. 9
- डा. सूर्यकांत, उक्त
- Jan Servaes,(2013) Sustainable Development and Green Communication, African and Asian Perspectives, Publisher Palgrave Macmillan, London.
- http://cmsenvis.nic.in/
- http://hindi.indiawaterportal.org/
- Forest Survey of India: India State of Forest Report 1992
- http://www.downtoearth.org.in/content/india-s-green-cover-has-increased-outside-demarcated-forests
- Forest Survey of India: India State of Forest Report 2013
- Forest Survey of India: India State of Forest Report 2013 p.203
- डा. रामबुझ, दैनिक जागरण, लखनऊ, जनवरी18, 2015 पृष्ठ-द्ब (विशेषांक)
- Huong Ha, Tek Nath Dhakal (2013) Governance Approaches to Mitigation of and Adaptation to Climate Change in Asia,Publisher Palgrave Macmillan, London.
- Press in India Report 2013-14p.iii
- साईनाथ, पी., (साक्षात्कार) राज्यसभा चैनल, दूरदर्शन, 10 जनवरी, २०१५ सायं30 बजे
- http://cmsenvis.nic.in/Environmental-Trends-in-News-Channels-2009-13.pdf
- http://cmsenvis.nic.in/print.asp