सुरेन्द्र कुमार*
भारत में मीडिया की संकल्पना जनहित को मूल मे रख कर की गई थी। स्वतंत्रता संग्राम में मीडिया की भूमिका किसी से छिपी नहीं है। मीडिया किसी व्यक्तिगत स्वार्थपूर्ति से परे भारत की आजादी और उसके नव निर्माण को समर्पित थी। इसी वजह से तत्कालीन समाचार पत्र-पत्रिकाओं की बागडोर स्वतंत्रता सेनानियों के हाथ में थी। परन्तु आज पत्रकारिता का परिदृश्य पूरी तरह से बदल चुका है यह मिशन से प्रोफेशन हो चुका है। प्रिन्ट हो या इलेक्ट्रानिक दोनों ही कार्पोरेट कल्चर में पूरी तरह से रंग चुके हैं। आमतौर पर माना जा रहा है कि बाजारीकरण के उदय से ही मीडिया में पेड न्यूज़ की आहट दिखाई पडऩे लगी थी। कॉरपोरेट हाउस, राजनीतिक पार्टियां नगद या गिफ्ट पैकेज के माध्यम से अपने कान्फ्रेन्स व कार्यक्रमों के संबंध में अनुकूल व उचित स्थान मीडिया में दिलाते रहे हैं। पेड न्यूज़ वह $खबर है जो धन देकर प्रकाशित और प्रसारित कराई गयी हो। यह प्राय: राजनैतिक चुनावों में देखने को मिल रहा है जब प्रत्याशी अपना चुनावी खर्च कम दिखाने के लिए विज्ञापन के बदले खबर छपवाते हैं। इसका सबसे बड़ा लाभ यह है कि खबर विज्ञापन के बदले ज्यादा विश्वसनीय होती है।
पहले न्यूज़ को ‘प्वाइंट ऑफ व्यू’ माना जाता था किन्तु वैश्वीकरण के इस दौर में ‘न्यूज मात्र प्वाइंट ऑफ व्यू’नहीं रही बल्कि प्रोडक्ट भी बन गई है। इसीलिए इसमें वही सब बुराइयां स्थापित होने लगी जो प्रोडक्ट में होती हैं। उत्पाद का संबंध व्यापार से है और व्यापार के लिए आवश्यक है व्यावहारिकता न कि सैद्धांतिकता। इसी वजह से मीडिया की दुनिया में प्रयोज्यता को वरीयता दी जाती है। मूलत: प्रयोज्यता संचार को जन-जन तक अग्रेषित करने के संदर्भ में प्रयुक्त की जाती है। किन्तु आजकल जिस प्रकार शब्दों के सही अर्थ विलुप्त हो रहे हैं उसी का परिणाम है कि प्रयोज्यता का अर्थ भी मीडिया में अर्थोपार्जन हो गया है।
भारत में लोकतांत्रिक प्रक्रिया और खास कर चुनावों में मीडिया का हस्तक्षेप और उसकी भूमिका बढऩे की व्याख्या लोक विमर्श (हैबर मास) के क्षय, आम सहमति के निर्माण, वर्चस्व, मास सोसायटी थ्योरी, मीडिया, मोनोपोली जैसी सैद्धांतिकियों के दायरे में एक हद तक देखा और पढ़ा जा सकता है। पश्चिमी देशों में मीडिया के विस्तार और प्रभाव तथा समाज के साथ मीडिया के अंतर्संबंधों की विशिष्टताएं तो हैं लेकिन भारतीय संदर्भ में मीडिया की कई प्रवृत्तियों के जवाब पश्चिम में चले मीडिया विमर्श के सहारे तलाशे जा सकते हैं। हालांकि भारतीय मीडिया और समाज के रिश्तों की कुछ विशिष्टताएं ऐसी हैं जहां पश्चिम का विमर्श या तो खामोश है या फिर कुछ उलझे-से सूत्र छोड़ता है। इन विशिष्टताओं के अध्ययन की परंपरा का विकास अभी होना है इसलिए भारतीय मीडिया विमर्श जितने सवालों के जबाव देने में सक्षम हैं उससे कई गुना ज्यादा सवाल और गुत्थियां अनसुलझी रह जाती हैं।
मिसाल के तौर पर मौजूदा समय में भारतीय मीडिया के बहुचर्चित विषय पेड न्यूज की पश्चिम में कोई समानांतर पंरपरा नहीं है। चुनाव खर्च पर कोई सीमा न होने के कारण कई देशों में पेड न्यूज उस शक्ल में नहीं दिखता, जिसे लेकर भारतीय लोकतंत्र में गहरी चिन्ता है। नेताओं और राजनीतिक दलों द्वारा चुनाव के दौरान मीडिया में स्पेस खरीदने को कई देशों में नीति विरूद्ध नहीं माना जाता है। बल्कि कई देशों में घोषित तौर पर राजनीतिक दल टेलीविजन पर समय खरीदते हैं। इसी तरह एक और महत्वपूर्ण सवाल-क्रॉस मीडिया ओनरशिप यानी एक ही मीडिया संस्थान द्वारा मीडिया के अलग-अलग रूपों (प्रिंट, वेब, टीवी आदि) के संचालन का है। भारत में क्रॉस मीडिया ओनरशिप को लेकर न कोई गंभीर बहस है और न ही कोई कायदा- कानून जबकि पश्चिमी देशों में इसे लेकर काफी सतर्कता है और इसके रेगुलेशन अब काफी हद तक शक्ल ले चुके हैं।
भारतीय मीडिया की विशिष्टताओं की बात करते समय सबसे पहले ध्यान पेड न्यूज के चलन पर जाता है। वर्तमान संदर्भ में इसकी चर्चा राजनीतिक और खासकर चुनाव के दौरान किए गये पैकेज कवरेज को लेकर है। देखा जाय तो इस तरह की चीजों में कुछ लोग ही लिप्त पाये जाते थे, जिनकी आसानी से पहचान की जा सकती थी पर हाल तक यह चीज़े नियम न होकर अपवाद की तरह थीं। इस तरह की ख़बरें संदिग्ध समझी जाती थीं क्योंकि भले ही ख़बर पूरी तरह सही व वस्तुनिष्ठ होने का दावा करे पर जिस अन्दाज से घटनाओं या व्यक्ति के बारे में चापलूसी की जाती थी वह आसानी से पकड़ में आ जाती थी। धीरे-धीरे इस तरह के निजी विचलनों ने संस्थागत रूप धारण कर लिया।
1980 के दशक में जब टाइम्स आफ इंडिया समूह की पत्र – पत्रिकाओं का प्रकाशन करने वाली कम्पनी बेनेट कोलमैन कंपनी लिमिटेड में समीर जैन एक्जीक्यूटिव हेड बने तभी से भारतीय मीडिया के कामकाज की शैली व नियमों में बदलाव आने शुरू हो गए। मूल्यों को तय करने में गलाकाट प्रतियोगिता के अलावा बीसीसीएल को देश का सबसे अधिक मुनाफे वाला मीडिया समूह बनाने के लिए मार्केंटिंग का सबसे ज्यादा रचनात्मक इस्तेमाल किया गया।
मीडिया के क्षेत्र में आगे चलकर जिस चीज ने ने काफी खलबली पैदा की वह था 2003 में बीसीसीएल द्वारा पैसे के बदले प्रकाशन यानी ‘पेड कंटेंट’ की मीडियानेट नाम से सेवाएं आंरभ करना। इसके तहत पैसों के बदले पत्रकारों को किसी प्रोडक्ट के लॉच या व्यक्ति से संबंधी कार्यक्रमों व घटनाओं को कवर करने के लिए भेजने का खुला प्रस्ताव दिया गया। जब दूसरे अखबारों ने इस तरह की गतिविधियों से पत्रकारिता के उसूलों के उल्लंधन का सवाल उठाया तो बीसीसीएल के अधिकारियों व मालिकों ने तर्क दिया कि इस तरह के एडवरटोरियल्स टाइम्स आफ इंडिया में नहीं छप रहें हैं। केवल वे शहरों के रंगीन स्थानीय पेजों के लिए हैं जिसमें ठोस ख़बरों के प्रकाशन के स्थान पर समाज की हल्की फुल्की मनोरंजक बातों के बारे में सामग्री प्रकाशित की जाती है। यह भी कहा गया कि अगर जनसंपर्क से जुड़ी एजेंसियां पहले ही अपने ग्राहकों के बारे में ख़बरें छपवाने के लिए पत्रकारों को रिश्वत दे रही हैं तब इस तरह की एजेंसियों जैसे बिचौलियों के खत्म करने में क्या बुराई है। पर भले ही बीसीसीएल के प्रतिनिधि अपनी पत्र-पत्रिकाओं व चैनलों में पैसे लेकर अनुकूल खबरें छापने व दिखाने की बात का खंडन करें पर सच यह है कि ख़बरों से जुडी इमानदारी व निष्पक्षता से समझौता किया गया है।
पेड न्यूज और मीडिया प्रवृत्ति-
पेड न्यूज़ की कोई सविधिमान्य परिभाषा नहीं है। चुनाव आयोग ने भारतीय प्रेस परिषद से कहा था कि वह पेड न्यूज़ को परिभाषित करें। पेड न्यूज़ को लेकर न्यायपालिका या चुनाव आयोग या प्रेस परिषद किसी भी तरह की कार्रवाई करे, या किसी तरह के दिशा-निर्देश दे, उससे पहले जरूरी है कि इस परिघटना की विधिसम्मत परिभाषा निश्चित कर ली जाए। इसके बिना तो जो मीडिया संस्थान पेड न्यूज़ के लिए दोषी ठहराए जा रहे हैं, वे भी कह सकते हैं कि हम जो कर रहे हैं वह पेड न्यूज़ नहीं है और पेड न्यूज़ पर तो रोक लगनी ही चाहिए। जहाँ तक पेड न्यूज़ का मतलब ‘संपादकीय सामग्री के स्थान पर छपी या दिखाई गयी उस सामग्री से है, जो देखने में तो समाचार लगे, पर उसके लिए अख़बार या चैनल ने भुगतान लिया हो। यानी कोई समाचार जो दरअसल विज्ञापन की तरह छपना या दिखना चाहिए, अगर समाचार की तरह और समाचार की जगह छपे या दिखे तो उसे पेड न्यूज़ कहेंगे। इसे बिकी हुई खबर भी कह सकते है। प्रेस परिषद ने पेड न्यूज़ को इस तरह परिभाषित किया है-
“कोई समाचार या विश्लेषण अगर पैसे या किसी और तरफदारी के बदले किसी भी मीडिया (इलेक्ट्रॉनिक या प्रिंट) में जगह पाता है तो उसे पेड न्यूज की श्रेणी में रखा जायेगा।”
“Paid news or paid content are those articles in newspapers, magazines and the electronic media, which indicate favourable conditions for the institution that has paid for it. The news is much like an advertisement but without the ad tag. This kind of news has been considered a serious malpractice since it deceives the citizens, not letting them know that the news is, in fact, an advertisement. Secondly , the payment modes usually violate tax laws and election spending laws. More seriously, it has raised electoral concerns because the media has a direct influence on voters.”
Ashutosh Nandi, Cuttack
तत्कालीन केन्द्रीय सूचना और प्रसारण मंत्री अंबिका सोनी ने राज्यसभा में इस मुद्दे पर ध्यानाकर्षण प्रस्ताव पर कहा था कि ‘‘ऐसी मीडिया रिपोर्ट आई है कि इलेक्ट्रानिक और प्रिंट मीडिया ने खास व्यक्ति, संगठन या कॉरपोरेट के पक्ष में छापने या प्रसारण करने के लिए पैसे लिये। यह दरअसल न्यूज़ की शक्ल में विज्ञापन है। इसे पेड न्यूज सिंड्रोम कहा जा रहा हैं।“ खबर कोई भी खरीद सकता है। उद्योग, कारोबार और मनोरंजन जगत खबरें खरीदता रहा है। लेकिन पेड न्यूज़ के संदर्भ में 2009-10 में जो बहस चली, वह मुख्य रूप से चुनाव के बाद जब कई हारे और जीते दिग्गजों ने यह खुलासा किया कि उन्होंने चुनाव के दौरान मीडिया में अच्छे कवरेज के लिए पैसा दिया या उनसे पैसा मांगा गया था। अखबार और चैनलों ने पेड न्यूज़ से इस कदर कमाई की इसका अन्दाजा इस बात से लगया जा सकता है कि पंजाब केसरी जैसे क्षेत्रीय अखबार ने हरियाणा विधान सभा चुनाव के दौरान तकरीवन बारह करोड़ कमाए। यह खुद अखबार ने स्वीकार किया। इसी तरह चैनलों ने प्रत्याशियों की सभाओं आदि के एक घंटे लाइव कवरेज के लिए ढ़ाई-ढ़ाई लाख तक वसूले। इससे यह अनुमान लगया जा सकता है कि मीडिया किस कदर पाठक वर्ग को पैसे के बदले खबर से दिग्भ्रमित करता रहा। मीडिया की आपसी रस्साकसी और मीडिया मालिकों के निजी स्वार्थों के तहत जनता की आवाज कहीं गुम सी हो गयी। पहले जहां मालदार उम्मीदवार मीडिया को विज्ञापन दिया करते थे, विज्ञापन की दरें तय होती हैं जिससे यह पता चल जाता था कि उम्मीदवार ने विज्ञापन के बदले कितनी रकम चुकाई होगी। चुनाव खर्च की सीमा निधार्रित होने के कारण अधिक विज्ञापन देना संभव नही था। मीडिया ने इसका तोड़ पेड न्यूज़ के रूप में निकाला हैं। इसमें उम्मीदवार मीडिया घरानों को कुछ सफेद व कुछ काले धन के रूप में भुगतान करता है। बदले में उम्मीदवार के पक्ष में बढ़ा-चढ़ाकर खबरें छापी जाती हैं। अगर विपक्षी उम्मीदवार ने भी पैसे खर्च नहीं किये तो उसके बारे में नाकारात्मक खबरें छाप दी जाती हैं या फिर उसे कवरेज ही नहीं दिया जाता है। इन खबरों का असर भी विज्ञापन के मुकाबले कहीं ज्यादा होता है। इस तरह से उम्मीदवार चुनाव आयोग से चुनावी खर्च और मीडिया घराने आयकर विभाग से अपनी कमाई छुपाने में कामयाब हो जाते हैं।
पेड न्यूज कारपोरेट सेक्टर या कंपनीयों अन्य व्यावासायिक प्रतिष्ठानों द्वारा उपयोग में लाए जाने वाला मार्ग हो गया है। पत्रकारिता के व्यवसायिक होने के कारण अब पेड न्यूज़ एक आवश्यक अंग बनता जा रहा है। समाचार जगत भी लोगों की आंखों से पर्दा हटाने के स्थान पर पर्दे के सामने एक काल्पनिक चित्र प्रदर्शित करने लगे, जो कि पत्रकारिता का एक दुखद पहलू भी है। लोकतंत्र के चौथे प्रहरी के रूप में जिस उद्देश्य को लेकर कार्य होना चाहिए, व्यावसायिक प्रतिस्पर्धा के इस युग में कहीं न कहीं मीडिया विचलित होता दिखाई दे रहा है। जहां तक पत्रकारिता जगत में चुनौतियों की बात है तो उसका हमारे सामने अंबार लग गया है। अख़बार और टी वी समाचार चैनलों में खबर एक वस्तु बन गई है। खबर को जब वस्तु व उत्पाद के तौर पर पेश किया जायेगा तो वह खबर नहीं हो सकती। खबरों की बात करें तो ज्यादातर मीडिया संस्थान अपनी पहचान खोने में लगे हैं और दुकान की शक्ल अख्तियार करने लगे हैं व ज्यादातर कर्मी विक्रेता बन गए हैं, जिसकी कई झाकियां हमें इस बार के लोक सभा और विधान सभा चुनाव के दौरान देखने को मिली। जिस प्रकार जनता द्वारा निर्वाचित होने के बाद जन प्रतिनिधियों का जनता से सीधा नाता टूट रहा, उसी प्रकार पत्रकारों का पत्र व खबरों के मूल सरोकारों से दूरियां बनती दिख रही है। ऐसी स्थिति खासकर पिछले एक दशक में ज्यादा हुई हैं। मुक्त बाजार वादी अर्थव्यवस्था के आगमन के साथ मीडिया का चरित्र तेजी से बदलने लगा है मीडिया घराने जनसरोकार से दूर होते गए और उनमें सारे वसूलों को दरकिनार कर मुनाफा कमाने की होर मच गयी है।
मनोरंजन का पेड न्यूज-
राजनीतिक पेड न्यूज़ के बीच एक और एैसा क्षेत्र है जिसकी चर्चा आम तौर पर नहीं होती। यह क्षेत्र है मनोरंजन का। 2009 में विज्ञापनों के कुल कारोबार में राजनीतिक विज्ञापन और मनोरंजन से जुड़े विज्ञापनों का हिस्सा दो प्रतिशत रहा है। परंपरागत रूप से मनोरंजन उद्योग का बजट ज्यादा होता है। लेकिन 2009 में एक तरफ लोक सभा और कई राज्यों के विधान सभा चुनाव के कारण राजनीतिक विज्ञापन बढ़ गये। वहीं आर्थिक मंदी के कारण मनोरंजन उद्योग ने अपने विज्ञापन बजट में कटौती की। मनोरंजन उद्योग का भी समाचार माध्यमों के साथ कारोबारी हितों का रिश्ता हैं, जिसकी वजह से मनोरंजन जगत की कौन सी खबर वास्तविक है और कौन सी विज्ञापन या प्रमोशन, यह समझ पाना मुश्किल है।
मनोरंजन जगत में मीडिया का संगठित और बड़े पैमाने पर पहली बार इस्तेमाल ‘‘कौन बनेगा करोड़पति” कार्यक्रम के लिए प्रमोशन के लिए किया। स्टार प्लस पर दिखाए जाने वाले इस कार्यक्रम को प्रिन्ट और टी.वी. समाचार चैनलों के जरिए जमकर प्रचारित किया गया। इस कार्यक्रम के प्रचार के लिए देश भर के समाचार-पत्रों और टी.वी समाचार चैनलों के प्रतिनिधियों को हवाई मार्ग से मुंबई ले जाया गया और इस कार्यक्रम के एंकर अभिताभ बच्चन ने हर किसी को एक्सक्लूसिव इन्टरव्यू दिए। किसी भी अखबार या चैनल ने यह बताने की जरुरत नहीं महसूस की कि ये दौरे प्रयोजित थे। इस कार्यक्रम की सफलता से समाचार माध्यम और मनोरंजन उद्योग के बीच रिश्तों का नया दौर शुरू हुआ जो लगातार गहरा होता चला गया।
मनोरंजन उद्योग और समाचार माध्यमों से लंबे समय से जुड़े जुगनू शारदेय का कहना है कि फिल्मों के कलाकारों के लिए अब शहर -दर-शहर घूमकर फिल्म का प्रमोशन करना एक महत्वपूर्ण काम हो गया है। फिल्मों की कामयाबी की कहानी अब फिल्मों के रिलीज होने के बाद नहीं बल्कि रिलीज से पहले ही लिख दी जाती है। और इसमें समाचार माध्यमों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। फिल्म समीक्षकों और फिल्म निर्माताओं का भी एक तंत्र बन गया है जिसकी पड़ताल जरूरी है। कई फिल्म वितरक चैनलों पर फिल्म समीक्ष के तौर पर बात करते देखे जा सकते हैं। जबकि वितरण के ध्ंाधे में होने के कारण उनके लिए निष्पक्ष होकर फिल्म की समीक्षा कर पाना संभव नहीं है। फिल्मी कलाकारों की छवि बनाने में भी समाचार माध्यमों का इस्तेमाल किया जाता है और फिल्म इंडस्ट्री में मीडिया और पब्लिसिटी एडवाइजर की भूमिका बढ़ा है।
अब जबकि टी.वी. 18 जैसे समूह एक साथ फिल्म निमार्ण, वितरण, मनोरंजन चैनल और समाचार चैनलों के कारोबार में है। और स्टारडस्ट तथा शोटाइम जैसी फिल्मी पत्रिकाओं का प्रकाशन मैग्ना पब्लिशिंग अब अपनी एक सब्सिडियरी कंपनी के जरिए फिल्म निर्माण के कारोबार में भी है। मनोरंजन जगत से जुड़ी कोई खबर कब खबर है और कब प्रचार, यह जानने का कोई जरिया नहीं है। टेलीविजन धारावाहिकों का प्रचार टी.वी. न्यूज चैनलों पर जमकर किया जाता है और अपने ही समूह के किसी चैनल के धारावाहिक पर कार्यक्रम बनाते हुए इस तथ्य का खुलासा भी नहीं किया जाता। मिसाल के तौर पर एन.डी.टी.वी. के न्यूज़ चैनल पर एन.डी.टी.वी. इमेजिन और स्टार न्यूज़ पर स्टार प्लस के सीरियल के बारे में प्रचार न्यूज़ की शक्ल में होता है।
कुल मिलाकर समाचार की निष्पक्षता और शुचिता पर चौतरफा हमले हो रहे हैं। राजनीतिक पेड न्यूज़ इसका एक आयाम भर है। पेड न्यूज पर विचार करते समय अगर सिर्फ राजनीतिक पेड न्यूज़ को निशाने पर रखा गया तो यह एक एकांगी दृष्टिकोण होगा।
सन्दर्भ सूची
- मंडल, दिलीप, मीडिया का अंडरवल्र्ड, राधाकृष्ण प्रकाशन नई दिल्ली-2011
- समयांतर, सितंबर-2010, फरवरी-2011
- पेड न्यूज पर प्रेस परिषद द्वारा प्रकाशित रिपोर्ट-2009
- राज्यसभा की कार्यवाही 5 मार्च, 2009
- फिक्की, के. पी. एम. जी इंडियन भी एंड एटरटेंमेंट रिर्पोट-2010
- http://www.network18online.com
- प्रकाश, विजय, भारतीय प्रसार माध्यम, संवाद, प्रकाशन, मुबंई-2006