न्यू मीडिया का आभासी लोकतंत्र

आदित्य कुमार शुक्ला*

सारांश

साल 2011 न्यू मीडिया की दुनिया में सबसे अहम रहा। इस साल फेसबुक, ट्विटर, यूट्यूब, ब्लॉग और तमाम तरह के दूसरे न्यू मीडिया मंच सुर्खियां ही नहीं बने, बल्कि उन्होंने सरकारों को इतना डरा दिया कि सरकारें इन मंचों पर पाबंदी का रास्ता खोजने लगी। मिस्र क्रांति से लेकर अगस्त क्रांति तक कई आंदोलन इन्हीं मंचों के माध्यम से परवान चढ़े। जिनके सहारे न्यू मीडिया ने अपनी ताकत का अहसास दुनिया भर को कराया। इसके साथ ही इसकी उपभोक्ता जनता को मिला एक ऐसे लोकतंत्र का आभास, जहां सब कुछ जन की मर्जी से चलता है। लेकिन कहीं यह सिर्फ आभास ही तो नहीं! यह सच है कि न्यू मीडिया एक ऐसे उदारवादी लोकतंत्र का निर्माण करता है, जिसमें सभी को समान अधिकार प्राप्त हैं, लेकिन यह वास्तविक नहीं है। यह कई तरह की भ्रांतियों को जन्म देता है-जैसे जो उपभोक्ता इससे नए-नए जुड़े हैं वे इसे लोकतंत्र का वाहक और सहयोगी मानते हैं।

असली मीडिया वही है जो आम आदमी की भागीदारी हर स्तर पर सुनिश्चित करे। जहां तक परंपरागत मीडिया की बात है तो यहां एक दायरा है, जो केवल कुलीन वर्ग तक सीमित है। न्यू मीडिया ने मुख्यधारा की पत्रकारिता द्वारा बनाई गई सीमाओं को तोडऩे का काम किया है। यदि देखा जाए तो केवल कुछ लोग ही समाचारों और विचारों के आदान-प्रदान के लिए न्यू मीडिया का उपयोग करते हैं, हांलाकि यह प्रतिशत सोशल नेटवर्किंग साइट्स के आने के बाद बढ़ा है। बाकी लोग इसका उपयोग, ईमेल, चैटिंग, रिसर्च और सूचनाओं को एकत्र करने के लिए करते हैं। न्यू मीडिया के निरंतर विस्तार के बावजूद लोग अब भी समाचारों के लिए टेलीविजन और न्यूज पेपर का ही सहारा लेते हैं। इसलिए यह कहना उचित होगा कि सूचना की लोकतांत्रिकता से न्यू मीडिया अभी बहुत दूर है। अमेरिकन विचारक नॉम चोमस्की के अनुसार ”न्यू मीडिया उदारवादी लगता है, लेकिन इसकी उदारवादिता शक्तिशाली और कुलीन वर्ग तक ही सीमित है। यह अभी तक आम आदमी से नहीं जुड़ पाया है।” यह आभासी उदारवाद है। एक मंहगा माध्यम होने के कारण, भारत जैसे देश के लिए इस तरह का लोकतंत्र अभी दूर की कौड़ी है, जहां आजादी के 65 वर्षों बाद भी आम आदमी रोटी, कपड़ा और मकान की समस्याओं में उलझा है।

न्यू मीडिया का मायाजाल

सोशल मीडिया अपने स्वरूप, आकार और संयोजन में मीडिया के पारंपरिक रूपों से भिन्न और उनकी तुलना में ज्यादा व्यापकता लिए हुए है। पारंपरिक रूप से मीडिया या मॉस मीडिया शब्दों का उपयोग किसी माध्यम पर आश्रित मीडिया के लिए किया जाता है, जैसे कि कागज पर मुद्रित प्रिंट मीडिया, टेलीविजन या रेडियो जैसे इलैक्ट्रानिक माध्यमों से दर्शक या श्रोता तक पहुंचने वाला इलैक्ट्रानिक मीडिया। सोशल मीडिया इस सीमा से मुक्त है।

न्यू मीडिया आज परिपक्व सेक्टर का रूप ले चुका है। यह अपनी जीवनयात्रा के ढाई दशक पूर्ण कर चुका है। लेकिन अपनी हमेशा ‘न्यू’ रहने की विशेषता के कारण, यह आज भी न्यू मीडिया है। नवीनता और सृजनात्मकता इस मीडिया की स्वाभाविक प्रवृत्तियां हैं। इतना सब होने के बावजूद न्यू मीडिया को लेकर लोग आज भी भ्रामक स्थिति में जी रहे हैं। अधिकांश लोग इंटरनेट के जरिए होने वाली पत्रकारिता को न्यू मीडिया मान बैठे हैं। लेकिन न्यू मीडिया समाचारों, लेखों या पत्रकारिता तक सीमित नहीं है। न्यू मीडिया आज अनगिनत रूपों में हमारे समाने है जैसे-

  • सभी प्रकार की वेबसाइटें, ब्लॉग और पोर्टल।
  • ई-समाचार, ई-पत्रिकाएं, वेब आधारित विज्ञापन आदि।
  • ऑरकुट, बिग अड्डा, राइज, माईस्पेस, फेसबुक, गूगल प्लस, लिंक्डइन जैसी सोशल नेटवर्किंग साइट्स।
  • ईमेल, चैटिंग और इन्स्टैंट मैसेजिंग।
  • इंटरनेट के जरिए होने वाले फोन कॉल।
  • मोबाइल फोन में रिसीव होने वाली सामग्री, मोबाइल टेलीविजन, मोबाइल गेम।
  • ऑनलाइन समुदाय और न्यूजग्रुप, फोरम आदि।
  • सीडी-रोम, डीवीडी, मल्टीमीडिया, वीडियो, एनीमेशन, डिजीटल कैमरों से लिए जाने वाले चित्र।
  • एमपी-3 प्लेयरों में सुना जाने वाला संगीत।
  • वर्चुअल रियलिटी पर आधारित सामग्री जैसे-कंप्यूटर गेम आदि।
  • यूजर जेनरेटेड कांन्टेट पर आधारित अनुप्रयोग, जैसे यू-ट्यूब, फिक्लर, विकीपीडिया, सिटीजन जर्नलिज्म आदि।
  • ई-बैकिंग, ई-कॉमर्स, ई-शॉपिंग, ई-प्रशासन, ई-शिक्षा आधारित सुविधाएं और सेवाएं।
  • कंप्यूटर सॉफ्टवेयर, डाउनलोड सेवाएं।

इन प्रकारों को देखकर लगता है कि न्यू मीडिया सीमाओं के विरूद्ध कार्य करने वाली शक्ति के रूप में उभरा है। यह सिर्फ अभिव्यक्ति का माध्यम भर नहीं है। यह एक ऐसा माध्यम है जो किसी भी दायरे में बंधकर रहने नहीं चाहता, इसलिए न्यू मीडिया एक मायाजाल की तरह इसके उपभोक्ताओं को दिन दूने और रात चौगुने आकर्षण की गिरफ्त में फंसाता जा रहा है।

आज की जरूरत-न्यू मीडिया

प्रांरभ में न्यू मीडिया के माध्यमों को टाइस पास करने का अच्छा जरिया माना जाता रहा लेकिन समय के विकास के साथ यह हमारी जिंदगी का एक आभासी बगीचा बन गया है। जहां हर कोई माली की भूमिका में रहने की चाहत रखता है। यह एक बड़ी शिक्षित आबादी के अनिवार्यता बन गया है। कई ऐसे क्षेत्र हैं जहां हम सभी इसका उपयोग करते हैं जैसे-

  1. वैवाहिक और परिवारिक बंधन (ऑनलाइन मैरिज ब्यूरो)
  2. करियर और नौकरी ई-व्यापार
  3. प्रतियोगी परीक्षा
  4. शेयरों की खरीद-फरोख्त
  5. ब्लॉग लेखन
  6. सोशल नेटवर्किंग साइट्स आदि-आदि।

इसके अलावा न्यू मीडिया ने हमारे दैनिक जीवन की कई आवश्यकताओं जैसे रेलवे आरक्षण, ई-मेल, पुस्तकालय, पुस्तके, शब्दकोश, विश्वकोश, रोजगार, ऑनलाइन दोस्ती, संपादकों की सत्तावादी सोच, बैकिंग, यात्रा, ऑनलाइन शिक्षा, साइबर चिकित्सा आदि को आसान कर दिया है। इस तरह कई ऐसे विषय हैं जिनको न्यू मीडिया ने सरल एवं सुगम बना दिया है। विकीलीक्स, फेसबुक, टिवट्र, यू-ट्यूब जैसी तमाम महत्वपूर्ण वेबसाइट्स समाज में एक नए तरह का क्रांतिकारी वातावरण को पैदा करने का काम कर रही हैं।

न्यू मीडिया खबरों को मुख्य स्रोत बन रहा है। 2जी स्पेक्ट्रम और जेपीसी मुद्दे पर लोकसभा के विपक्षी नेताओं के टिव्ट्, सचिन, सहवाग, शाहरूख, अमिताभ और दुनिया की कई महान हस्तियों का सोशल नेटवर्किंग साइट्स के माध्यम से अभिव्यक्तिकरण इसी बात की ओर इंगित करता है कि न्यू मीडिया आज के समाज की आवश्यकता बनता जा रहा है।

बन सकता है क्रांति और सामाजिक परिवर्तन का माध्यम

पिछले साल की वैश्विक घटनाओं पर अगर दृष्टिपात किया जाए तो हम अहसास कर सकते हैं कि न्यू मीडिया क्रांति और सामाजिक परिवर्तन के एक माध्यम के रूप में उभरा है। फिर चाहे वह अन्ना आंदोलन हो, अरब देशों की क्रांति हो या विकीलीक्स का बवाल हो। भ्रष्टाचार के खिलाफ भारत में सबसे सफल अगस्त क्रांति को सफल में बनाने में फेसबुक से जुड़े 1.5 लाख समर्थकों का पूरा सहयोग रहा। इस आंदोलन के प्रारंभिक 3 दिनों में ही माइक्रोब्लॉगिंग साइट टिवट्र पर 44 लाख से ज्यादा टवीट् किए गए। अरब देशों की क्रांतियों को यू-टयूब, फेसबुक और टिवट्र ने ही जीवंतता प्रदान की। विकीलीक्स ने अपने केबल लीक्स के माध्यम से दुनिया भर की शक्तिशाली ताकतों को अपने घुटने के बल ला दिया और दिखाया कि चंद लोगों के माध्यम से न्यू मीडिया किस तरह की क्रांतियों का जन्मदाता बन सकता है।

वहीं ब्लॉगिंग के माध्यम से होती स्वतंत्र अभिव्यक्ति कई शासकों के लिए खतरा साबित हो रही है। चीन में सोशल नेटवर्किंग साइट्स और माइक्रोब्लॉगिंग साइट्स को प्रतिबंधित कर दिया गया है। 30 करोड़ से ज्यादा हिट रखने वाले यहां के ब्लॉगर हुनहुन चीन के कम्युनिस्ट भाासन के लिए बाधा बने हुए हैं। इसलिए लोग न्यू मीडिया को एक नए तरह का लोकतंत्र भी बुलाने लगे हैं। भारत में साहित्य, राजनीति, फिल्मों और अन्य सभी विषयों पर दैनिक रूप से लिखे जाने वाले सैकड़ों ब्लॉग पोस्ट इसकी सफलता की कहानियां खुद ही बयां करते हैं। यह कंपनियों के सत्तावादी व्यवहार को चुनौती देने के उपभोक्ताओं के लिए बड़ा मंच बन गया है न्यू मीडिया। न्यू मीडिया के विशेषज्ञ परमीत जे. नाथन के अनुसार, एक नकारात्मक टवीट् और फेसबुक स्टेटस किसी भी कंपनी की विश्वसनीयता को गिरा सकता है, इसलिए कंपनियां अब फेसबुक और टिवट्र के हर हलचल को बहुत ही गंभीरता से ले रही हैं।

आसमां में उड़ तो सकते हो, पर पांव टिकाने का जमीन नहीं

पत्रकारिता के बदलते स्वरूप की बात करें तो यह साफ-साफ देखने को मिलता है कि, न्यू मीडिया ने दबे-कुचले समाज को भी अपनी अभिव्यक्ति को पंख देने का काम किया है। इसने परंपरागत मीडिया की निर्भरता से मुक्ति दिलाने का उपाय हमारे समाने प्रस्तुत किया है। अगर यह कहा जाय कि न्यू मीडिया ने समाज को एक ऐसा फलक प्रदान किया है जिसके सहारे हम अपनी अभिव्यक्ति को बिना किसी मूल्य के संसार की सैर करा सकते हैं। न्यू मीडिया ने सही अर्थों में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को यथार्थ रूप दिया है। लेकिन यह एक आभासी स्वतंत्रता है। जो उन आत्माओं का स्वर्ग है जो पूर्णरूप से इस आभासिकता के दास हो चुके हैं। यहां न हर कोई संपादक है हर कोई पाठक। न तो कोई छोटा है न कोई बड़ा। इन मंचों पर देश और समाज की समस्याओं की उत्तेजक चर्चा तो होती है, लेकिन सरोकार रखने वाले कम ही दिखाई देते हैं। क्योंकि यहां लोग कंमेंट करने के बाद अपने कत्र्तव्य से इतिश्री कर लेते हैं। इसीलिए यहां आभासी क्रांतियों का जन्म होता है। लाखों-करोड़ों लोगों के बीच संवाद स्थापित करने वाली सोशल नेटवर्किंग साइटों एक ऐसे काल्पनिक जगत की रचना की है जहां हजारों फॉलोवर के आंकडों को लोग अपनी उपलब्धि समझ लेते हैं। वास्तव में वे बेहद अकेले हैं। हाल ही में लंदन की 42 वर्षीय महिला, सिमोन बैक तथा आईआईएम की छात्रा मालिनी की आत्महत्या इस आभासी जगत का यथार्थ सत्य है। यह घटना साबित करती है कि न्यू मीडिया ने उपभोक्ताओं को उडऩे के लिए एक विस्तृत आसमान तो दिया, लेकिन पांव टिकाने के लिए इंच भर जमीन नहीं दे पाया। यहां कोई अपना नहीं है, सब कुछ पराया है। जो लोग इस आभासी जगत को अपना मान बैठे हैं, वेे इसके यथार्थ स्वरूप से बहुत दूर  हैं।

न्यू मीडिया का आभासी लोकतंत्र

सुप्रसिद्ध राजनैतिक चिंतक हेराल्ड जे. लास्की ने अपनी किताब ‘ग्रामर ऑफ पॉलिटिक्स’ में लोकतंत्र के लिए दो शर्तों की चर्चा की है। पहली, विशेषाधिकार का अभाव और दूसरी सबके लिए समान अवसर। बीसवीं शताब्दी ने फ्रांसिसी राज्य क्रांति के तीन बड़े मूल्यों स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व को दुनिया भर में फलीभूत होते हुए देखा है। इन विचारों के परिदृश्य में यदि हम इंटरनेट के साइबर स्पेस और ब्लॉगिंग को देखें तो उसका नया अवतार एक तरह से ईश्वर की बनाई हुई दुनिया के समानांतर एक ऐसी नई दुनिया की रचना करता है जिसमें मानव सभ्यता के उक्त मूल्यों को सही अर्थों में स्थापित होते हुए देखते हैं। इस दुनिया में किसी के पास कोई विशेषाधिकार नहीं है और सबको अपनी बात कहने सुनने की समान आजादी है। इस दुनिया ने मित्रता के संसार को वास्तविकता से उठाकर एक आभासी स्पेस में बदल दिया है। यानि एक ऐसे आभासी लोकतंत्र का निर्माण किया जो वास्तविक लोकतंत्र से भिन्न है। भारत जैसा देश जो मानव जीवन की मूलभूत समस्याओं से दो-चार हो रहा है, उसके लिए इस आभासी लोकतंत्र का औचित्य क्या हो सकता है ? न्यू मीडिया के 13 करोड़ उपभोक्ताओं के आभासी लोकतंत्र को क्या हम 1 अरब 22 करोड़ की आबादी लोकतंत्र कह सकते हैं ? कदापि नहीं। इस आभासी लोकतंत्र को यथार्थवादी संजीवनी की जरूरत है।

उपसंहार

इस आभासिकता के बावजूद ऑक्सफोर्ड इंटरनेट इंस्टीट्यूट के समाजशास्त्री एच. डटन न्यू मीडिया को लोकतंत्र के ‘पांचवे खंभे’ की संज्ञा दे चुके हैं। हालांकि, भारतीय संदर्भों में न्यू मीडिया उतना प्रभावकारी नहीं है। लेकिन, डटन के मुताबिक ऐसा तभी होगा, जब न्यू मीडिया के जरिए दोतरफा संवाद हो। ऐसा होने से जननीतियां बनाने में जनता की हिस्सेदारी तेजी से बढ़ेगी। निश्चित रुप से पश्चिमी देशों की तुलना में भारत में ‘डिजीटल खाई’ बहुत अधिक है और समाज का निचला तबका फिलहाल अपनी बात इन माध्यमों के जरिए कहने की स्थिति में नहीं है। बावजूद इसके इंटरनेट के विस्तार के बीच न्यू मीडिया की लोकप्रियता को खारिज नहीं किया जा सकता। सोशल मीडिया के मंचों से जुड़ी कुछ समस्याएं जायज हैं, लेकिन गणतंत्र को मजबूती देने में इसकी संभावनाओं के आगे ये समस्याएं बहुत छोटी हैं। यूं फेसबुक, ट्विटर जैसे मंचों के जरिए जनता से जुड़ाव की संभावनाएं सरकार को भी समझ आती है। ऐसा नहीं होता तो प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह माइक्रोब्लॉगिंग साइट ट्विटर पर दस्तक नहीं देते। दिक्कत यह है कि यह बड़े कदम पूरी शिद्दत के साथ नहीं उठाए जाते। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का फेसबुक पर भी पेज है। इस पेज के ढाई लाख से अधिक सदस्य हैं। इसका अर्थ यह कि उनकी बात एक झटके में ढाई लाख लोगों तक पहुंच सकती है और फिर शेयर और लाइक होते हुए कई और लाख लोगों तक। मीडिया की नजर में भी उनका यह पेज है। लेकिन इस पेज पर जनता से संवाद नहीं दिखता। यानि कि ढाई लाख आभासी लोगों का समूह देश के निर्माण को कोई कार्य नहीं कर रहा। अगर इस आभासिकता को वास्तविकता के स्तर पर उतार लिया जाए तो बात बन सकती है।

सन्दर्भ सूची

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    http://in.jagran.yahoo.com/sakhi/?page=article&articleid=6198&edition=201102&category=1
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