डॉ. मनोज कुमार श्रीवास्तव*
उन्नीसवीं सदी के प्रारम्भ के साथ जागृत हुयी राष्ट्रीय चेतना बीसवीं शताब्दी के आगमन तक प्रखर रूप ले चुकी थी। बंगाल इसका प्रमुख केन्द्र था। बलवती होती हुयी राष्ट्रीय भावना को क्षीण करने के लिये अंग्रेजों ने बंगाल को विभाजित करने का निर्णय लिया। तत्कालीन वायसराय लार्ड कर्जन के शब्दों में, ‘अंग्रेजी हुकूमत का यह प्रयास कलकत्ता को सिंहासनाच्युत करना था, बंगाली आबादी का बंटवारा करना था, एक ऐसे केन्द्र को स्थापित करना था, जहां से बंगाल व पूरे देश में कांग्रेस पार्टी का संचालन होता था, साजिश रची जाती थी।’1
बंगाल विभाजन के संबंध में भारत सरकार के तत्कालीन गृह सचिव राइसले के कथनानुसार, ‘अविभाजित बंगाल एक बड़ी ताकत है। विभाजित होने से यह कमजोर हो जायेगी, कांग्रेसी नेताओं की यह आंशका सही है और इनकी यह आंशका हमारी योजना की सबसे महत्वपूर्ण चीज है। हमारा मुख्य उद्देश्य बंगाल का बंटवारा करना है, जिससे हमारा दुश्मन बंट जाए, कमजोर पड़ जाए।”2
विभाजित बंगाल के अन्तर्गत पूर्वी बंगाल और असम थे। यहां की जनसंख्या 1.3 करोड़ थी जबकि दूसरे भाग में शेष बंगाल था जिसकी जनसंख्या 5.4 करोड़ थी। इसमें 1.8 करोड़ बंगाली और 3.6 करोड़ बिहारी और उडिय़ा थे। ब्रिटिश सरकार ने बंग-भंग संबंधित प्रस्ताव 19 जुलाई, 1905 को पारित किया परन्तु इसके क्रियान्वयन की तिथि 16 अक्टूबर, 1905 को निश्चित की गयी। बंगाल के विभाजन के विरोध में आंदोलन 7 अगस्त, 1905 से प्रारम्भ हो गये थे। राष्ट्रवादियों ने बंगाल के विभाजन को प्रशासकीय उपाय नहीं अपतिु राष्ट्रवाद के लिये एक चुनौती के रूप में स्वीकार किया।
सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने ‘बंगाली’ में 7 जुलाई 1905 को अपने लेख ‘गम्भीर राष्ट्रीय आपदा’ में सरकार को चेतावनी देते हुए लिखा था कि यदि सरकार अपने इस निर्णय को वापस नहीं लेती तो उसे एक बड़े राष्ट्रीय आंदोलन का सामना करने के लिये तैयार रहना चाहिए। उन्होंने आगे लिखा – ‘विभाजन की यह योजना गुप्त रूप से बनायी गयी, गुप्त रूप से ही इस पर विचार किया गया तथा क्रियान्वित किया गया, इसकी भनक भी जनता को नहीं लगने दी गयी, हम अपने को बेइगात छल और ठगा हुआ महसूस कर रहें हैं।”3
बंग-भंग के विरोध में हो रहे आंदोलन को ‘ए इंग्लिशमैन’ ने 7 अगस्त, 1905 के अंक में लिखा था, ‘कलकत्ता की सड़कों पर अजीब दृश्य था, विद्यार्थियों ने विरोध में लम्बे तिकोने झण्डे लिये हुये थे जिस पर बंगाली में संगठित बंगाल लिखा हुआ था। छात्र अपने शिक्षकों के नेतृत्व में यह प्रदर्शन कर रहे थे।’4
‘अमृत बाजार पत्रिका’ ने 7 जुलाई, 1905 के संस्करण में कहा, ‘बंग-भंग द्वारा हजारों या लाखों ही नहीं करोड़ों लोगों की राष्ट्र की भावना को जैसी ठेस मनमानी ढंग से पहुंचायी गई है उसकी और कोई मिसाल नहीं मिलेगी।’5
‘हित बन्धु’ ने 24 जुलाई 1905 को अपने एक लेख के माध्यम से बंगाल विभाजन के विरोध में हो रहे आंदोलन को, सफल बनाने की अपील की थी।6 समाचार पत्र में छप रहे लेखों, विचारों तथा समाचारों से प्रभावित होकर लोगों ने बंग-भंग विरोधी आंदोलन में हिस्सा लिया तथा 16 अक्टूबर, 1905 को पूरे बंगाल में ‘शोक दिवस’ के रूप में बनाने की घोषणा हुयी थी। रवीन्द्रनाथ टैगोर ने ‘आमार सोनार बंगला’ गीत की रचना भी इसी अवसर पर की। ‘वन्दे मातरम्’ के उद्घोष ने इस आंदोलन को और अधिक प्रभावी बना दिया। बंगाल विभाजन के विरोध को और अधिक प्रबल बनाने के लिये स्वदेशी और बहिष्कार आंदोलन चलाए गये। इस आंदोलन के अन्तर्गत स्वदेशी वस्तुओं को स्वीकार करना था तथा विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार करना था।
सुरेन्द्रनाथ बनर्जी के शब्दों में, ‘स्वदेशीवाद जब शक्तिमान था तब उसने हमारे सामाजिक व पारिवारिक जीवन के पूरे ताने-बाने को प्रभावित किया। अगर विवाहों में ऐसी विदेशी वस्तुएं उपहार में दी जाती थीं जिनके समान वस्तुएं देश में ही बन सकती थीं तो वे लौटा दी जाती थीं। पुरोहित अक्सर ऐसे समारोहों में धार्मिक कार्य करने से इंकार कर देते थे जिनमें ईश्वर को भेंट में विदेशी वस्तुएं दी जाती थीं। जिन उत्सवों में विदेशी नमक और विदेशी चीनी का उपयोग किया जाता था उसमें भाग लेने से मेहमान लोग इन्कार कर देते थे।’7 स्वदेशी आंदोलन में उद्योग, शिक्षा, संस्कृति, राजनीति के क्षेत्रों को समाहित किया गया था। स्वदेशी आंदोलन को दबाने के लिये अंग्रेज सरकार ने दमन का सहारा लिया। इसमें पूर्वी बंगाल के लेफ्टिनेंट गवर्नर फुलर की भूमिका महत्वपूर्ण थी उसने आंदोलन को दबाने के लिये सेना का प्रयोग किया। एक मकान को इसलिये गिरवा दिया गया था क्योंकि उस पर वंदे मातरम् लिखा था। एक लड़के को इसलिये सजा दी गयी थी क्योंकि वह घर में वंदे मातरम् गा रहा था। दुकानदारों को यह आदेश था कि वे सेना को सभी सामान मुफ्त में देंगे।
अंग्रेजी समाचार पत्र ‘स्टे्टसमैन’ के संवाददाता ने अपनी रिपोर्ट में लिखा था कि ‘आंदोलनकारियों ने पूरे बाजार पर नियन्त्रण कर लिया था। उन्होंने सामान का उचित मूल्य देने से इंकार कर दिया था। वे लोगों के निजी मकानों में घुस गए और लोगों को घायल कर दिया। 23 नवम्बर की रात्रि में वे पूरे महल में आंधी की तरह घुस गये थे।
‘स्टे्टसमैन’ ने इस संबंध मे लिखा है कि ‘वास्तविकता तो यह है कि गोरखा (सेना) की कार्यवाही को बढ़ा-चढ़ाकर बतलाया गया है। इससे कोई इन्कार नहीं कर सकता कि सेना की उपस्थिति ने हिन्दुओं में व्याप्त भय को कम किया है।’8
लंदन से प्रकाशित होने वाले ‘डेली न्यूज’ के अनुसार, ‘पन्द्रह दिन के अंदर गणमान्य लोगों को शहर छोडऩे के आदेश दे दिये गये थे। उनका अपराध यही था कि उन्होंने विभाजन के विरोध में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी। गोरखा सेना, पुलिस की कई कंपनिया तैनात कर दी गयी थी और वे लोगों के घरों में भी प्रवेश कर रहीं थीं।’9
विपिन चंद्र पाल ने ‘न्यू इंडिया’ में लिखा था, ‘यदि सरकार उसी तरीके का प्रयोग करेगी तो लोगों के पास केवल यही विकल्प होगा कि वे अपनी नीतियों और योजनाओं के विकास के लिये उसी भावना का निर्माण करें। वे हड़ताल के माध्यम से प्रशासन को पंगु कर सकते हैं।’10
1905 में ही वरीन्द्र कुमार घोष ने ‘भवानी मंदिर’ का प्रकाशन किया था। इसमें क्रांतिकारी गतिविधियों के विषय में विस्तार से जानकारी दी जाती थी तथा 1907 में वर्तमान रणनीति के अन्तर्गत ‘मिलिट्री टे्रनिंग’ और ‘गुरिल्लावार’ का उल्लेख किया गया था।11 1906 में ‘युगान्तर’ का प्रकाशन हुआ था इसने भी लोगों को क्रांतिकारी आंदोलन के लिये प्रेरित किया था, दो साल के भीतर ही युगान्तर की प्रसार संख्या 7000 तक पहुंच गयी थी। एक ब्रिटिश न्यायाधीश के अनुसार, ‘युगान्तर ने प्रत्येक क्षेत्र में क्रांति की भावना को जागृत किया और यह बताया कि किस प्रकार से क्रांति को प्रभावी बनाया जा सकता है।’12
स्वदेशी आंदोलन को दबाने के लिये अंग्रेज सरकार ने सुरेन्द्रनाथ बनर्जी को गिरफ्तार कर लिया था। बनर्जी की गिरफ्तारी के संबंध में ‘केसरी’ ने 17 अप्रैल 1906 को अपने संस्करण में प्रकाशित लेख में लिखा, ‘बनर्जी की गिरफ्तारी, उनके साथ किये गये सुलूक और उन्हें दी गई सजा से यह सिद्ध होता है कि बंगाल एक बार फिर भारतीयों के शासन में हैं। जनमत की उपेक्षा करने वाले सरकारी आदेशों के पीछे नैतिक बल का सर्वदा अभाव है जो सभी कानूनों का उद्गम होता है।’13
‘अमृत बाजार पत्रिका’ ने 19 अप्रैल 1906 को सरकार की कार्यप्रणाली पर टिप्पणी करते हुए लिखा, ‘पूर्वी बंगाल के शासकों ने देश में असंतोष की ऐसी आग लगाई है जिसे पशुबल से कभी बुझाया नहीं जा सकता।’14
‘इंडियन मिरर’ ने बनर्जी की गिरफ्तारी को ‘कानून और संविधान की उपेक्षा बताया।’15 ‘हितकारी’ ने दमनकारी नीति के विरोध में तथा क्रांति के समर्थन में जनमत बनाने के लिये कार्य किया था। 21 अप्रैल 1906 के संस्करण में इस पत्र ने कहा, ‘शस्त्रों को मुकाबला अंतत: शस्त्रों से किया जायेगा और मासूम लड़कों के खून का बदला गोरों का खून बहाकर लिया जायेगा।’16
8 जून 1906 को कलकत्ता में शिवाजी महोत्सव के अवसर पर तिलक ने कहा : ‘इस समय स्वदेशी होना चाहिए……………..स्वदेशी की भावना मां के दूध के साथ ही ग्रहण की जानी चाहिए………नौजवान पीढ़ी के मन में हर ‘विदेशी’ वस्तु के प्रति गहरी घृणा की भावना पैदा की जानी चाहिए और ऐसा विदेशी वस्तुओं को जलाकर किया जा सकता है। स्वदेशी को अपना आदर्श बनाने के लिये पूरा प्रयत्न किया जाना चाहिए……..।’17
स्वामी विवेकानंद ने राष्ट्र को सशक्त करने के लिये आह्वान करते हुए कहा : ‘यदि संसार में कोई पाप है तो वह दुर्बलता ही है। सभी प्रकार की दुर्बलता से बचो, दुर्बलता पाप है, दुर्बलता मृत्यु है और सत्य की यह पहचान है जो कुछ तुम्हें शारीरिक, बौद्धिक और आध्यात्मिक दृष्टि से दुर्बल बनाता है उसका विष के समान परित्याग कर दो। उससे जीवन सम्भव नहीं है, वह सत्य नहीं हो सकता।’18
स्वदेशी आंदोलन में छात्रों की भागीदारी सर्वाधिक रही। उन्होंने विदेशी वस्त्रों की दुकानों के आगे धरना दिया। सरकार ने विद्यार्थियों का दमन करने के लिये हर संभव कोशिश की। स्वदेशी आंदोलन को सफल बनाने के लिये अरविन्द घोष के उन सात लेखों ने महत्वपूर्ण भूमिका अदा की जिन्हें ‘वन्देमातरम्’ में 11 से 23 अप्रैल, 1907 के मध्य’ शान्तिपूर्ण असहयोग’ के अन्तर्गत प्रकाशित किया गया था। ‘कर्मयोगी’ के 31 जुलाई, 1909 के अंक में ‘देशवासियों के नाम खुला पत्र’ में अरविन्द घोष ने लिखा था, ‘स्वयं सेवा और शान्तिपूर्ण प्रतिरोध हमारे दो तरीके हैं। शांतिपूर्ण प्रतिरोध की नीति आंशिक रूप से स्वयं सेवा और सरकार पर नियंत्रण का विस्तार चाहती है। यह नीति सहयोग की भावना का विरोध करती है जब तक हमारी विधायिका, वित्त और प्रशासन पर प्रभावकारी हिस्सेदारी नहीं होती, तब तक कोई प्रतिनिधित्व नहीं, कोई कर नहीं का सिद्धांत पालन किया जायेगा जो कि अठारहवीं सदी में अमेरिका में प्रसिद्ध था। इसलिये कोई नियंत्रण नहीं, कोई सहयोग नहीं यहां भी यह मूलमंंत्र होना चाहिए। हम इस ‘असहयोग’ को अधिक सुविधाजनक शब्द ‘बायकॉट’ नाम देते हैं। यह औद्योगिक क्षेत्र में, शिक्षा, सरकार, न्यायपालिका और प्रशासन सभी पर लागू होगा।’19
अरविन्द घोष के ही शब्दों में, ‘यदि सहायता और मौन स्वीकृति क्रमश: सारे देश से वापस ले ली जाए तो भारत में अंग्रेजी सत्ता का कायम रहना बहुत कठिन हो जायेगा। यह एक ऐसा हथियार है जो भारत में ब्रिटिश भाक्ति की जड़े काट सकता है और अगर अपेक्षित कुशलता और धैर्य से इसका उपयोग किया जाए तो यह भारत से अंग्रेजी राज्य को समाप्त कर सकता है।’20
स्वदेशी और बहिष्कार आंदोलन के प्रभाव के संबंध में 22 जनवरी 1909 के ‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ के समाचार से हमें स्वदेशी और बहिष्कार के प्रभाव की जानकारी मिलती है, ‘सूती वस्त्रों की मांग में गिरावट 89,065,000 मीटर हो गयी जो कि प्रतिशत में 18.6 में और कीमत में 1,514,213 पौण्ड थी तथा प्रतिशत में 23.7 थी।’21
‘स्टेट्समैन’ के अनुसार ”1905 के आंदोलन से दुर्गापूजा की बिक्री पर असर पड़ा। मारवाड़ी व्यापारियों ने ‘मानचेस्टर चैम्बर आफ कामर्स’ से कहा कि वह अपनी सरकार पर जोर डाले कि वह विभाजन को समाप्त कर दें, लेकिन इसका कोई नतीजा नहीं निकला। जेसार, ढाका, नदिया, बर्दगन, माल्दा, आरा और हजारीबाग इन आठ जिलों में सितम्बर 1905 में विदेशी वस्त्रों की बिक्री कुल 10 हजार रूपये थी जबकि एक वर्ष पहले इसी अवधि में 77 हजार रूपये की बिक्री हुयी थी।’22
निष्कर्षत:
उपरोक्त विश्लेषण के आधार पर यह कहा जा सकता है कि बंग-भंग आंदोलन के प्रति लोगों को जागरूक करने में तथा ‘स्वेदशी’ और ‘बहिष्कार’ से लोगों को जोडऩे में समाचार पत्रों की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण रही। यद्यापि भारतीय समाचार पत्रों ने जहां इस आंदोलन से लोगों को जोडऩे तथा सफल बनाने में जागरूकता उत्पन्न करने का कार्य किया तथा अंग्रेजी सरकार की दमनात्मक कार्यवाईयों का विरोध किया वहीं विदेशी समाचार पत्रों ने अंग्रेजो की कार्यवाई को उचित ठहराने का प्रयास भी किया।
सन्दर्भ :
- आधुनिक भारत, एन सी ई आर टी, पृष्ठ संख्या-85
- विपिन चंद्र, भारत का स्वतंत्रता संघर्ष, पृष्ठ संख्या-258
- आर सी मजूमदार, स्ट्रगल फार फ्रीडम, पृष्ठ संख्या-26
- आर सी मजूमदार, स्ट्रगल फार फ्रीडम, पृष्ठ संख्या-27
- ताराचन्द्र-भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन का इतिहास खण्ड (II),पृष्ठ संख्या-10
- आर सी मजूमदार, स्ट्रगल फार फ्रीडम,पृष्ठ संख्या-28
- आधुनिक भारत एन सी आर टी, पृष्ठ संख्या-172
- आर सी मजूमदार, स्ट्रगल फार पृष्ठ संख्या-47
- आर सी मजूमदार, स्ट्रगल फार पृष्ठ संख्या-48
- आर सी मजूमदार, स्ट्रगल फार पृष्ठ संख्या-53
- आर सी मजूमदार, स्ट्रगल फार पृष्ठ संख्या-198
- आर सी मजूमदार, स्ट्रगल फार पृष्ठ संख्या-199
- ताराचन्द्र : भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन का इतिहास खण्ड (IV),पृष्ठ संख्या-346
- ताराचन्द्र : भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन का इतिहास खण्ड (IV),पृष्ठ संख्या-346
- ताराचन्द्र : भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन का इतिहास खण्ड (IV),पृष्ठ संख्या-346
- ताराचन्द्र : भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन का इतिहास खण्ड (IV),पृष्ठ संख्या-347
- सत्याराय, भारत में राष्ट्रवाद, हिन्दी माध्यम क्रार्यान्वय निदेशालय, दिल्ली विश्वविद्यालय, पृष्ठ संख्या-35
- सत्याराय, भारत में राष्ट्रवाद, हिन्दी माध्यम क्रार्यान्वय निदेशालय, दिल्ली विश्वविद्यालय, पृष्ठ संख्या-35
- आर सी मजूमदार, स्ट्रगल फार पृष्ठ संख्या-76
- बी एल फडिय़ा, भारतीय राजनीतिक चिन्तन, पृष्ठ संख्या-161
- आर सी मजूमदार, स्ट्रगल फार पृष्ठ संख्या-42
- ताराचन्द्र : भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन का इतिहास खण्ड (IV),पृष्ठ संख्या-355