हरदीप सिंह *
* प्रोफेसर, हिंदी विभाग,
एससीडी सरकारी कॉलेज,
लुधियाना
शोध सारांश
प्रस्तुत शोध लेख में पंजाब के किसानों द्वारा की जाने वाली ख़ुदकुशियों की संख्या में अचानक तीव्र वृद्धि को लेकर मीडिया की भूमिका और कवरेज की पड़ताल की गई है। यह शोध लेख इस बात की स्थापना करता है कि केवल स्थानीय समाचार पत्रों ने ही इस गंभीर समस्या पर ध्यान दिया है। जिसमें पंजाबी ट्रिब्यून, अजीत आवाज़ पंजाब की, और दैनिक समाचार पत्र अजीत समाचार ही उल्लेखनीय हैं। अंग्रेजी के समाचार पत्रों और टीवी चैनलों ने इस समस्या को गंभीरता से नहीं लिया। न ही इस विषय को लेकर हिंदी और अंग्रेजी चैनलों ने कोई गंभीर भूमिका निभाई है जिससे राज्य या केंद्र सरकार इस समस्या का कोई समाधान खोजने का कोई सार्थक प्रयास करती। यहाँ लगता है कि मीडिया चौथे खम्बे की भूमिका निभाने में चूक कर गया है।
27 अप्रैल, 2015 के ‘दैनिक ट्रिब्यून’ का निम्नलिखित सम्पादकीय के कुछ अंश अवलोकनीय है।
चिराग तले अंधेरा
गहराती अमीरी-गरीबी की खाई
“यह आंकड़ा चौंकाता है कि देश में आत्महत्या करने वाले किसानों में महाराष्ट्र और पंजाब पहले एवं दूसरे नंबर पर हैं। इस साल 116 आत्महत्याओं में 57 महाराष्ट्र से और 56 पंजाब से हैं। यह आंकड़ा इसलिए भी चौंकाता है कि ये दोनों राज्य देश में समृद्धि के प्रतीक माने जाते रहे हैं। जहां महाराष्ट्र की राजधानी मुंबई देश की आर्थिक राजधानी मानी जाती है तो वहीं पंजाब हरित क्रांति की सफलता का प्रतीक। ये आत्महत्याएं इस बात की ओर इशारा करती हैं कि हालात बेहद खराब हैं। नाउम्मीदी के ऐसे हालात क्यों पैदा हुए, यह शोध का विषय है। इन राज्यों में राजनेताओं ने खेती-किसानी के दोहन में अपने सारे संसाधन झोंक दिये। जिससे वास्तविक किसानों का जीवनयापन दुष्कर हो गया। वहीं तस्वीर का असहज पक्ष यह भी है कि नवधनाढ्यों के ऐसे वर्ग का उदय हुआ है जो अपनी कमाई को विदेशों में ठिकाने लगा रहा है। रिजर्व बैंक के आंकड़ों पर नजर डालें तो धनाढ्य भारतीयों की विदेशी यात्रा का खर्च एक साल में छत्तीस गुना बढक़र छत्तीस करोड़ डालर हुआ है। इतना ही नहीं, उपहार में दी जाने वाली रकम ढाई गुना वृद्धि के साथ एक अरब डॉलर हुई है। यह एक-तिहाई गरीबी रेखा के नीचे रहने वाले लोगों के देश का सच है।
आखिर समृद्धि के प्रतीक माने जाने वाले इन राज्यों में वास्तविक धरातल पर समृद्धि क्यों नजर नहीं आती? यह समृद्धि आभासी क्यों है? आर्थिक उदारीकरण के नतीजतन अमीर-गरीब के बीच गहरी होती खाई क्या लोकतंत्र की विसंगतियों को उजागर नहीं करती? एक ओर जहां कामगार व किसान मौत को गले लगाने को मजबूर हैं, वहीं ऐसे करोड़पति किसानों को संख्या लगातार बढ़ रही है जो काले धन को सफेद करने के फेर में किसान बन रहे हैं। राजनेताओं की सशक्त लॉबी महाराष्ट्र में शूगर से लेकर दूध उद्योग तक पर अपना वर्चस्व बना चुकी है। महाराष्ट्र में सूखे की असली वजह शूगर लॉबी का दखल ही है। महाराष्ट्र में पैदा होने वाला गन्ना 70 फीसदी पानी पी जाता है। कमोबेश यही स्थिति उद्योग व अन्य रोजगार के क्षेत्रों में भी है। यानी ज्यादा पूंजी चंद हाथों में सिमटी है। यही पूंजी राजनीति को हांकती है और सत्ता में दखल के बाद आम जनता, कामगार और किसान को हांकती है। यही सिलसिला कालांतर आर्थिक विषमता की खाई को गहरा करता है।
(दैनिक सवेरा, डॉ बरजिंदर सिंह हमदर्द, 4 मार्च, 2016)
पंजाब में खेती अब खुदकुशियों का सौदा बन गई है। दम तोड़ रही खेती ने किसानों की जिंदगी को बंजर बना दिया है। अढाई दशक से कपास पट्टी का किसान अच्छे दिनों की उडीक में है। कभी अमेरिकन सूंडी और कभी सफेद मच्छर और ऊपर से प्राकृतिक कहर किसान के घरों में बिछे हुए सथरों की लड़ी को टूटने नहीं दे रहा। जन्मते ही शिशुओं के सिर कर्ज़ा, सफेद चुन्निओं में वृद्धि और जि़न्दगी के आखरी पहर बजुर्गों का रेल मार्गों पर बैठना पंजाब की खेती पर सूखे की मार की तस्वीर है। लेकिन इस तस्वीर को दिखाने में राष्ट्रीय मीडिया और टीवी चैनल सभी पीछे रह गए हैं। यह चिंताजनक है कि अन्नदाता माने जाने वाले किसान की ख़ुदकुशी जैसे महत्वपूर्ण मुद्दे को छोड़ कर मीडिया इससे कम महत्त्व के मुद्दे वाली ख़बरों की कवरेज और फिज़ूल बहसों में लगा रहता है। यह बात विशेष रूप से पंजाब के किसानों की ख़ुदकुशी को मीडिया द्वारा अनदेखा किए जाने के सम्बन्ध में की जा रही है। मीडिया की यह अनदेखी किसानों को इन्साफ दिलाने में आड़े आ रही है। जिससे मृतक किसान के परिवार को मिलने वाली आर्थिक सहायता सरकारी चक्रव्यूह में फंस कर रह जाती है।
मालवा पट्टी के मुरब्बों के मालिक अब लेबर चौक पर मूँह लपेट कर किसी शौक के लिए खड़े नहीं होते। पुत्री के ब्याह के लिए नया ट्रेक्टर बेचना किसी बाप का चाव नहीं होता। बैंकों के नोटिस और साहूकारों के दबके अब ‘जय किसान’ के नारे का मूंह चिड़ाते हैं। कपास पट्टी में सफेद मछर की मार के बाद फिर से किसानों-मज़दूरों की लाशें जलने लगी हैं। पंजाब में 15 सितम्बर 2015 के बाद रोज़ाना औसतन एक ख़ुदकुशी होने लगी है। किसानों-मजदूरों ने फिर से खेती बचाने के लिए ‘हाँ’ का नारा लगाया है। सरकार ने 643 करोड़ रूपए का मुआवज़ा भेजा है जिसने पटवारियों और दलालों की मिली भगत को मजबूती प्रदान की है। मज़दूरों के 64 करोड़ खजाने में ही फंसे हैं।1 पिछले अढाई दशक किसानों की बचत को भी खा गए हैं। गुज़ारे के लिए गहने बेचना, पेड़ बेचना, घर बेचना, ज़मीन बेचना अब हर रोज़ की दास्तान बन गई है। खुशहाल पंजाब के किसानों को दुखों ने मौत के कुँए पर ला कर खड़ा कर दिया है। मोगा जिला के गाँव सैदेके के किसान अजैब सिंह के घर को ताला लग गया है। उसकी अर्थी को तो कोई कंधा देने वाला भीं नहीं बचा। चारों बेटे मौत के मुंह में चले गए। अजैब सिंह की मौत इस कहानी का अंतिम अध्याय था। पहले ज़मीन छीन गई, फिर जवान पुत्र। गाँव के लोग कहते हैं कि अजैब सिंह भला आदमी था। सरकार को यह बात समझ आती तो इस घर पर अकेला ताला नहीं लटकना था।
इसी गाँव की बज़ूर्ग औरत करतार कौर के पास तो अपना घर भी नहीं बचा। खेती-संकट में उसने दोनों बेटे खो दिए। बाद में पति भी जहान से चला गया। पुत्रबधू भी बच्चों सहित घर से चली गई। सब कुछ बिक गया। अब इस औरत के पास सिर्फ गाँव का भाईचारा बचा है। उसे तो बुढ़ापा पेंशन भी नसीब नहीं हुई। बठिंडा के गाँव कोठा-गुरु का किसान छोटू सिंह अब गुरुघर में बैठा है। न घर बचा, न ज़मीन। 15 एकड़ ज़मीन अब साहूकार का नाम हो गई है। सभी किसानो की एक ही कहानी है, फसलों का फेल होना, साहूकार की बही पर कुर्की के आंसू। कर्जो की लकीर मिटाते-मिटाते कई किसान अब खुद मिट गए। पटियाला के गज्जू माजरा का सोलह एकड़ का मालिक किसान का सब कुछ बिकने के बाद वह शामलाट में बैठा है। इस बजुर्ग के हाथों चार लडक़ों की चिता जली है, एक ख़ुदकुशी कर गया, तीन बीमारी ने छीन लिए। मुक्तसर के गाँव गग्गड़ का किसान काका सिंह कभी मुरब्बों का मालिक सरदार था। अब वह दिहाड़ी करता है। फजि़ल्का के गाँव पाका में तो खराब फसल ने 35 घरों को तबाह कर दिया। माँ अब गाँव से गुज़रा नहीं जाता, यह कह कर गाँव कोठागुरू के किसान प्यारा सिंह ने आत्महत्या कर ली और दूसरा जबान लडक़ा भी इसी राह पर चला गया। अब इस मज़दूर जोड़े के पास केवल दु:ख बचे हैं।2
किसान घरों के वारिस छोटे और उनके दु:ख बड़े हैं। कर्ज की गठरी जो पहले बापदादा के सिर थी अब वह बचपन में ही इनके सिर पर आ गई है। कोई सरकार इन बच्चों के आंसुओं की रम्ज़ नहीं पहचान सकी। स्कूल जाने की आयु में इन बच्चों को अपने माँ-बाप के साथ किसान संघर्ष को झेलना पड़ रहा है। जिस प्रकार सरकार की कोई कृषि नीति नहीं, उसी प्रकार ख़ुदकुशी पीडि़त परिवारों के बच्चों के लिए सरकार की न कोई नीति है और न ही नीयत। अगर खेती में सुख होता तो नरमें की चुगाई के दिनों में स्कूलों में बच्चों की संख्या में कमी न आती। जिंदगी के धक्के ने इन बच्चों को कम उम्र में ही स्याना बना दिया है।
पंजाब में कर्ज के कारण आत्महत्या के मामले 1997 से जारी हैं। 1997-2003 में कॉटन बेल्ट मंस फसल खराब हुई थी। इस इलाके में तब किसानों की ख़ुदकुशी के मामले ज़्यादा देखने को मिले। भारतीय किसान यूनियन ने 2004 में पंजाब के 300 गांवों का सर्वे किया था। इसमें 3000 किसानों की ख़ुदकुशी का आंकड़ा सामने आया था। यूनियन के दावे के मुताबिक 1990 से 2013 के बीच सवा लाख किसानों और मज़दूरों ने आत्महत्या कर ली थी। जबकि सरकार के आदेश पर हुए पंजाब एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी, पंजाबी यूनिवर्सिटी और गुरुनानक देव यूनिवर्सिटी के संयुक्त सर्वे के मुताबिक 2000 से 2010 तक ग्रामीण इलाकों में 6926 किसानों और मज़दूरों ने ख़ुदकुशी की। इनमें से करीब 4800 मामलों में आत्महत्या की वजह कर्ज थी। साल 2010 के बाद के ख़ुदकुशी के मामलों का सर्वे होना अभी बाकी है।3
वीरवर, 11 फरवरी, 2016 को पंजाबी ट्रिब्यून में ख़बर छपी, ‘‘कर्ज में डूबे किसान ने मौत को गले लगाया, व्यापारी पर केस”।4 शनिवार, 30 जनवरी 2016 को ‘पंजाबी ट्रिब्यून’ के प्रथम पृष्ठ पर खबर छपी कि ‘कर्ज के आगे हार गया मानसा कलां का जरनैल’। गाँव मानसा कलां के नौजवान किसान ने कर्ज की मार सह न सकने के कारण बीती शाम ख़ुदकुशी कर ली। किसान जरनैल सिंह (35) सपुत्र गुरबचन सिंह के सिर पर चढ़े कर्ज की गठरी का भार दिनोंदिन बढ़ रहा था। उसकी लगभग एक एकड़ जमीन होने से घर का गुज़ारा मुश्किल से चलता था। जरनैल सिंह ने ठेके पर जमीन लेकर भी कर्ज उतारने की कोशिश की लेकिन खराब फसल के कारण वह कर्ज उतार न सकने के कारण वह परेशान रहता था। इस लिए उसने आत्महत्या कर ली। उसके दो छोटे-छोटे बच्चे हैं।5
शनिवार, 22 जनवरी, 2016, ‘पंजाबी ट्रिब्यून’ के प्रथम पृष्ठ पर यह समाचार छपा कि भवानीगढ़ के ‘गाँव संघरेहरी में नौजवान किसान निर्मल सिंह ने ज़हरीली वस्तु निगल कर ख़ुदकुशी कर ली है। उसके पास चार किल्ले ज़मीन थी और कर्ज के बोझ के नीचे दबा होने से परेशान था, उसके परिवार में। साल के बेटा और पत्नी है।‘6
किसान की ख़ुदकुशी की इस खबर को अन्य अख़बारों द्वारा स्थान न दिया जाना जहाँ चिंता का विषय है, वहां भारत में 350 से भी ज्यादा टीवी के खबरिया चैनलों द्वारा इस पर कोई चर्चा न किया जाना चिंता की बात है।
इसी अख़बार ने आईसीएसएसआर के पंजाबी विवि द्वारा किए गए सर्वेक्षण का खुलासा करते हुए बताया है कि पंजाब के किसानो के सिर 69,355 करोड़ रुपए का कर्जा है। प्रान्त का छोटा (5 एकड़) और सीमान्त (2 एकड़) किसान अपनी आवश्यकताओं को पूरा करने की स्थिति में नहीं है। इनकी जमीन से होने वाली आय इनके कर्ज के बोझ से आधी भी नहीं है। खेत मजदूर की हालत इससे भी बदतर है। इस सर्वेक्षण में यह खुलासा हुआ कि वर्ष 2014-15 में 69,355 करोड़ कर्ज में से 56,481 करोड़ रूपए संस्थागत और 12,477 करोड़ गैर-संस्थागत अर्थात् साहूकारों से लिया गया कर्ज है। ऊपर से प्राकृतिक प्रकोप के कारण किसान की बचत न हो सकने के कारण उसकी ऋण उतारने की क्षमता नही रहती और वह कर्ज के बोझ के नीचे दबा रहता है।
इस सर्वेक्षण ने पंजाब प्रान्त के सीमान्त, छोटे किसानों और खेतिहर मजदूरों के सिर चढ़े कर्जे के तथ्यों से पर्दा उठा कर इस मुद्दे पर अब तक चल रही केवल 35 हज़ार करोड़ के कर्ज की अटकलबाजियों को ख़त्म कर दिया है।7 इस रिपोर्ट ने पहली बार किसानों और खेत-मजदूरों के सर चढ़े कर्ज की हकीकत बयाँ करने के महत्त्वपूर्ण कार्य किया है। यह रिपोर्ट सरकार, बुद्धिजीवी वर्ग, अर्थशास्त्रियों और किसान-मजदूर जत्थेबंदियों को सोचने-विचारने के लिए झकझोर देने के लिए उत्प्रेरक का काम करेगी। इसके अलावा यह देश के नीति निर्माताओं और उस विकास मॉडल पर भी सवाल खड़े कर रही है जो किसानो और खेत-मजदूरों को घसियारा बना रही है।8
इस सर्वेक्षण को लेकर 24 जनवरी, 2016 के ‘अजीत समाचार’ के सम्पादकीय में लिखा कि ‘इस सर्वेक्षण में यह भी उल्लेख किया गया है कि निरंतर बढ़ते ऋण को लेकर बहुत से किसान भारी ऋण बोझ के तले दबे हुए हैं। इससे पंजाब की कृषि के अवसान में होने का खुलासा होता है। पंजाब में जो कभी हरित क्रांति का प्रणेता रहा है, यदि हालात इस प्रकार प्रभावित हो चुके हैं तो अन्य प्रदेशों की स्थिति क्या होगी, इसका अनुमान लगाना कठिन नहीं है। यही कारण है कि विगत लम्बी अवधि से प्रदेश भर में किसानों की ओर से निरंतर आत्महत्या करने का सिलसिला जारी है। निचले स्तर की कृषि के लिए एवं कृषि मजदूरों के लिए संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की सरकार से मनरेगा योजना शुरू की गई थी जिसका काफी प्रभाव भी हुआ देखा जा सकता है, परन्तु इसको पूर्णरूपेण प्रभावशाली बनाने के लिए बड़े पग उठाए जाने की आवश्यकता है। ऐसा इसके क्रियान्वयन में रह गई त्रुटियों एवं कमियों को दूर करके ही संभव को सकता है। पिछले दिनों सिक्किम की राजधानी गंगटोक में कृषि क्षेत्र सम्बन्धी व्यापक बिचार-विमर्श किया गया था। इसमें प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी भी शामिल हुए थे। इस विचार-विमर्श में जहाँ कृषि विभिन्नता की बात की गई, वहीं फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य के बारे में भी विचार-विमर्श किया गया था। किसानों को उनके उत्पादन की समय पर अदायगी के सम्बन्ध में भी चर्चा हुई थी। इस विचार-विमर्श को यदि पूरी तरह अमल में लाया जा सके तो किसानों की मुश्किलें कुछ कम हो सकती हैं। पिछले दिनों केंद्र सरकार की और से फसल बीमा के सम्बन्ध में एक योजना लागू करने की बात सामने आई थी। इस सम्बन्ध में पंजाब सरकार ने भी अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त की है, जिसमें इस योजना में रह गई त्रुटियों का विस्तृत जि़क्र किया गया है। हम महसूस करते हैं कि फसल बीमा योजना पर प्रत्येक पक्ष से पूरा विचार-विमर्श करके इसे क्रियात्मक रूप दिया जाना चाहिए ताकि किसान के मन में फसलों के खराब होने एवं मौसम की अनिश्चितता से पैदा हुए भय को दूर किया जा सके।’9
अपने इसी सम्पादकीय में बरजिंदर सिंह ‘हमदर्द’ आगे लिखते हैं: ‘अब वह समय अवश्य आ गया है कि कृषि के इस व्यवसाय के सम्बन्ध में प्रत्येक दृष्टिकोण से पूरा विचार विमर्श किया जाए एवं इसके संकट के सम्बन्ध में कोई क्रियात्मक हल तलाश किया जाए। इस समय किसानों की आर्थिकता को प्रत्येक पक्ष से मजबूत किए जाने की आवश्यकता है। इसके साथ जहाँ अनाज की सुरक्षा जुडी हुई है, वहीँ करोड़ों परिवार इस व्यवसाय के कारण ही अपना जीवन व्यतीत कर रहे हैं। ऐसा एक सक्षम योजना के निर्धारण से ही सम्भव हो सकता है।’
इस सन्दर्भ में 25 जनवरी, 2016, दिन सोमवार के पंजाबी ट्रिब्यून का निम्नलिखित सम्पादकीय अवतरण उल्लेखनीय है, ‘सरकारों की किसान-मज़दूर विरोधी नीतियों और विकास मॉडल के कारण ही किसान और मज़दूर कर्ज के जाल में इस तरह फंस गए हैं कि उनका इस में से निकलना लगभग असम्भव हो गया है। इस निराशा के आलम में वे नशों और ख़ुदकुशी के आत्मघाती राह पर चल पड़े हैं। यह उनके परिवारों और वारिसों को और अधिक संकटग्रस्त करने वाला है। यह बात स्पष्ट है कि किसानों और मजदूरों के सिर कर्ज की गठरी का दिनोंदिन भारी होते जाने का मुख्य कारण लागतों के मुकाबले कृषि-फसलों की कम कीमतें, मौसम या प्राकृतिक प्रकोपों की मार से फसलों का पूरा मुआवज़ा न मिलना और साहूकारी कर्ज का नियमित न होना है। इसके आलावा कृषि क्षेत्र में बढ़ते हुए मशीनीकरण के कारण काम के बिना किसानों और मजदूरों के लिए रोज़गार मुहय्या करने का कोई वैकल्पिक बंदोबस्त भी नहीं होता। इन कारणों से किसानो-मज़दूरों की आय निरंतर घटती जा रही है। और वे हर चढ़ते सूर्य के साथ अधिक आर्थिक संकट और कर्ज के जंजाल में फँसते जाते हैं।10
नई मोदी सरकार ने नई फसली बीमा योजना के द्वारा किसानों को राहत देने की कोशिश की है लेकिन यह पर्याप्त नहीं है। इसके पूर्व यूपीए सरकार ने भी मनरेगा तहत छोटे किसानों और मजदूरों को लाभ पहुँचाने का प्रयास किया था लेकिन प्रांतीय सरकारों और अफसरशाही की अडचनों के कारण इसका पूरा कायदा नहीं हो सका।
किसानों की ख़ुदकुशी की समस्या जितनी दिखाई देती है असल में यह उससे भी भयावह है। मीडिया में इसकी रिपोर्टिंग तो होती है किन्तु समस्या की गंभीरता के हिसाब से यह बहुत ही कम है। ज्यादा से ज्यादा किसी छोटे से कोने में अख़बार में खबर छप जाती है जिस पर किसी का ध्यान नहीं जाता। ऐसा नहीं है कि मीडिया केवल विज्ञापन ही विज्ञापित करता है। अनेक अवसरों पर मीडिया की वजह से बड़े मुद्दे भी सामने आए हैं जिन पर सरकार को कार्रवाई करनी पड़ी है। लेकिन टीवी की कानफोडू बहसों में कभी भी किसानों की ख़ुदकुशी की चर्चा ने इतना जोर नहीं पकड़ा कि किसी प्रान्त के मुख्य मंत्री अथवा देश के प्रधानमन्त्री को इसका संज्ञान लेना पड़ा हो और उन्होंने इस दिशा में कोई ठोस कदम उठाए हों।
यदि इतिहास पर दृष्टि डालें तो 1990 ई. में प्रसिद्ध अंग्रेजी अखबार ‘द हिन्दू’ के ग्रामीण मामलों के संवाददाता पी. साईंनाथ ने किसानों द्वारा नियमित आत्महत्याओं की सूचना दी। आरंभ में ये रपटें महाराष्ट्र से आईं। जल्दी ही आंध्रप्रदेश से भी आत्महत्याओं की खबरें आने लगी। शुरुआत में लगा की अधिकांश आत्महत्याएँ महाराष्ट्र के विदर्भ क्षेत्र के कपास उत्पादक किसानों ने की है। लेकिन महाराष्ट्र के राज्य अपराध लेखा कार्ययालय से प्राप्त आँकड़ों को देखने से स्पष्ट हो गया कि पूरे महाराष्ट्र में कपास सहित अन्य नकदी फसलों के किसानों की आत्महत्याओं की दर बहुत अधिक रही है। आत्महत्या करने वाले केवल छोटी जोत वाले किसान नहीं थे बल्कि मध्यम और बड़े जोतों वाले किसानों भी थे। राज्य सरकार ने इस समस्या पर विचार करने के लिए कई जाँच समितियाँ बनाईं। भारत के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने राज्य सरकार द्वारा विदर्भ के किसानों पर व्यय करने के लिए 110 अरब रूपए के अनुदान की घोषणा की। बाद के वर्षों में कृषि संकट के कारण महाराष्ट्र, कर्नाटक, केरल, आंध्रप्रदेश, पंजाब, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में भी किसानों ने आत्महत्याएँ की। इस दृष्टि से 2009 अब तक का सबसे खराब वर्ष था जब भारत के राष्ट्रीय अपराध लेखा कार्यालय ने सर्वाधिक 17,368 किसानों के आत्महत्या की रपटें दर्ज की। सबसे ज़्यादा आत्महत्याएँ महाराष्ट्र, कर्नाटक, आंध्रप्रदेश, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में हुई थी। इन 5 राज्यों में 10765 यानी 62′ आत्महत्याएँ दर्ज हुई।11
अत: निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि पंजाब के किसानों की खुुदकुशी की ख़बर केवल पंजाबी और एक आध हिंदी अंग्रेजी समाचार पत्रों में ही छपती है। इसके अलावा किसी भी राष्ट्रीय दैनिक अथवा टीवी चैनल ने न तो इसकी कवरेज की और न ही इस पर कोई गंभीर चर्चा की। जबकि अन्य प्रान्तों में इस गम्भीर समस्या पर प्रभावशाली ढंग से विचार किया गया है। पंजाब में केवल पंजाबी और हिंदी में छपने वाले अजीत और पंजाबी ट्रिब्यून ने ही इस सर्वेक्षण की रिपोर्ट को प्रकाशित करके इस पर सम्पादकीय लिखे हैं लेकिन उसमें भी वह तेवर नज़र नहीं आया कि सरकार इस विषय के तहत किसानों और खेती मजदूरों को गहरे आर्थिक संकट से बाहर निकालने के लिए फसल की उपयुक्त कीमत का निर्धारण, खेती फसल बीमा योजना को प्रभावशाली ढंग से लागू करने और आय बढ़ाने के लिए फसलों की विभिन्नता कार्यक्रम को लागू करने के लिए पर्याप्त आर्थिक सहायता राशी मुहैय्या करने के साथ-साथ उन्हें कर्ज मुक्त करने की भी कोई योजना बनाए।
सन्दर्भ :
- भुल्लर, चरनजीत, बुरे दिनों ने मार डाली नरमा पट्टी की किसानी, पंजाबी ट्रिब्यून, 25 जनवरी, 2016, पृष्ठ 2
- वही
- http://www.bbc.com/hindi/india/2014/04/140428_farmers_sucide_punjab_last_mile_electionspl2014_pk
- http://epaper.punjabitribuneonline.com/717989/Punjabi-Tribune-Delhi-Edition/PT_11_February_2016_Delhi#page/1/2
- ‘पंजाबी ट्रिब्यून’, शनिवार, 30 जनवरी 2016, ‘कर्ज के आगे हार गया मानसा कलां का जरनैल’
- 22 जनवरी, 2016, ‘पंजाबी ट्रिब्यून’
- पंजाब के ग्रामीण इलाक़ों में हमारे एस्टीमेट के मुताबिक़ 35,000 करोड़ रुपए का कर्जा है। इसमें से करीब 38 फीसदी गैरसंस्थागत कर्ज है। उसमें आढ़तिए ही ज़्यादा हैं। पर किसानों पर कर्ज आढ़तियों का था। इसकी वजह फसल की पेमेंट आढ़तियों के ज़रिए होना है। जिनकी ब्याज दर 18 फीसदी से 30 फीसदी तक है। इनका ब्याज बैंकों से ज़्यादा है, जो औसतन 13-14 फीसदी तक कर्ज देते हैं। सरकार ने पिछले साल 4800 करोड़ की बिजली सब्सिडी़, 1000 करोड़ की उर्वरक सब्सिडी और 700 करोड़ रुपए की सिंचाई सब्सिडी दी। मुश्किल यह है कि इसका बड़ा हिस्सा सात-आठ एकड़ वाले किसानों को चला जाता है। छोटे किसानों को सब्सिडी का लाभ नहीं मिलता। (प्रो. सुखपाल सिंह, सर्वे सदस्य, पीएयू )
- http://www.bbc.com/hindi/india/2014/04/140428_farmers_sucide_punjab_last_mile_electionspl2014_pk
- हमदर्द, सिंह बरजिंदर, सम्पादकीय, अजीत समाचार, 24 जनवरी, 2016
- वही
- सम्पादकीय, पंजाबी ट्रिब्यून, 25 जनवरी, 2016
- Farmers’ suicide rates soar above the rest द्वारा : पी. साईनाथ, द हिन्दू, अभिगमन तिथि: 26 जनवरी 2016