अमलेन्दु त्रिपाठी*
वर्तमान परिदृश्य में मीडिया की जनमत निर्माण की शक्ति की अनदेखी नहीं की जा सकती है। विश्व के विभिन्न देशों में आज इस बात पर बहस, शोध, अध्ययन या चर्चायें चल रही हैं कि यह किन परिस्थितियों में जनता को प्रभावित करता है। किन्तु, इस प्रकार के सभी अध्ययन पश्चिमी देशों की जरूरतों के मुताबिक किए गए हैं। वहां वैयक्तिक आजादी और पूंजीवादी व्यवस्थाएं लागू हैं, वहां का समाज उपभोक्तावाद का पोषक है। इसलिए तमाम ऐसे पहलू जो भारत के लिए महत्वपूर्ण हैं, उनके लिए बेमतलब हैं, इसलिए वे इस दिशा में सोचते नहीं दिखाई देते। बाजार और मीडिया के प्रभाव और दुष्प्रभाव उनके अध्ययन का विषय नहीं है, वे भारतीय परिदृश्य में मीडिया से जनता की उम्मीदों का अध्ययन नहीं करते। वे मीडिया की बाजार पर निर्भरता बढऩे से सरोकारों से उसके भटकाव की चिंता नहीं करते, मगर ये सारे सवाल भारतीय जनता के लिए बहुत जरूरी हैं। इसमें थोड़ा भी भटकाव जनता को ना उम्मीदी के दलदल में धकेल सकता है। पाश्चात्य देशों में कारोबारी प्रतिस्पर्धा के जरिये सामाजिक हितों को मीडिया के माध्यम से पूरा होने की उम्मीद की जाती है, मगर भारत जैसे देश का समाज अलग हैं, यहां की जरूरतें अलग हैं। यहां मीडिया से चौथा स्तंभ और जनता का वकील बनने की अपेक्षा की जाती है। पूर्व में मीडिया ने यह भूमिका निभाई भी है, जैसा की आजादी से पहले अखबारों ने लोगों को आजादी के संघर्ष में एकजुट किया था और तमाम कुरीतियों के खिलाफ लड़ाई लड़ी थी। इन दिनों मिशनरी भाव की मीडिया का मकसद सिर्फ सूचना देना और मनोरंजन करना नहीं बल्कि लोगों को हर क्षेत्र में जागरूक करते हुए स्वच्छ और नैतिक रूप से भी बलवान बनाना था। समाज, राजनीति, अर्थनीति के सम्बंध में जनमत तैयार करना था। समाचारपत्रों में प्रस्तुत सामग्री से समाज पर क्या असर पड़ेगा यह देखा जाता था। गांधी जी ने इसी को कहा था कि ‘पत्रकारिता का उद्देश्य जन सेवा है।’ वे कहते थे कि, जनता की इच्छा को समझना और उसे व्यक्त करना सार्वजनिक दोषों को प्रकट करना ही समाचार पत्रों का काम है।1 इसी वजह से ही महान लक्ष्य के लिए जनता से संवाद के लिए ही पंडित मदन मोहन मालवीय, बाल गंगाधर तिलक आदि स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों ने विचार अभिव्यक्ति के माध्यम के रूप में समाचारपत्रों को ही चुना था। कभी-कभार मीडिया में सरोकार भी दिखते हैं। मीडिया जैसे प्रभावशाली प्लेटफार्म को बाजार के हवाले छोड़कर कारोबारी प्रतिस्पर्धा आने तक सामाजिक मुद्दों से मुंह मोडऩे की हालत में नहीं छोड़े जा सकते। यहां सामुदायिक भावना बहुत महत्वपूर्ण हैं और कई बार व्यक्ति समाज से ज्यादा निर्देशित होता है। ऐसे में विशुद्ध रूप से सामुदायिक तंत्र व्यैक्तिक होता दिखे तो समाज की त्योरियां चढऩी ही हैं। इधर मीडिया पर बाजार का जबर्दस्त प्रभाव देखा जा रहा है। पाश्चात्य मीडिया के बाद बाजार नाम के कारक के भारतीय मीडिया के प्रभावों के तमाम सकारात्मक-नकारात्मक प्रभाव प्रथम दृष्टया दृष्टिगोचर हो रहे हैं, जिसके साये में नये जमाने के तमाम नये सवाल सामने आए हैं, जिनके जवाब तलाशे जाने हैं।
हम मीडिया के ऊपर काफी पैसा और समय खर्च करते हैं। इसलिए जरूरी है कि उसपर लागत के हिसाब से भी विचार किया जाए।2 वास्तव में यह उसी सवाल की ओर संकेत करता है कि मीडिया के मिशन और प्रोफेशन के बीच की गतिविधियां समझी जाएं। 2004-05 के दौरान भारतीय मीडिया मनोरंजन उद्योग में करीबी 20 अरब रुपये का निवेश किया गया।3 कोहली द्वारा प्रस्तावित इस आंकड़े को यदि हम 2010-11 के संदर्भ में देखें तो यह क्रमश: 587 अरब और 652 अरब के आस-पास ठहरता है। इसे देखकर यह कहा जा सकता है कि मीडिया विमर्श के नाम पर सिर्फ सामाजिक प्रभाव के चर्चा के अलावा आर्थिक दृष्टि से भी अध्ययन किया जाना जरूरी है। इसलिए इस पर बहस और अध्ययन की आवश्यकता है कि, सामुदायिक सवालों को लेकर मीडिया का रवैया क्या है, इसका झुकाव किस ओर है और क्या समाज को इसको कंट्रोल करने के लिए कुछ उद्यम करने की जरूरत है। वह किन मुद्दों को उठाता है और क्यों, इनका प्रसार कैसे करता है और लोगों की प्रतिक्रिया क्या है। इसके लिए हमें मीडिया का बाजार और जनसरोकार के संबंधों पर पड़ताल करने की जरूरत है।
बाजार के सिद्धांत पूरी तरह से मीडिया पर लागू नहीं होते हैं, यह मसला थोड़ा पेचीदा है। यहां उत्पाद की बिक्री बढऩे पर लाभ बढऩे का सीधा संबंध नहीं है और न ही बड़े पैमाने पर उत्पादन करने पर लागत घटने का ही पारस्परिक सीधा संबंध दिखाई देता है। (एक बारगी कोई भी संस्थान अपनी प्रसार संख्या नहीं बढ़ाना चाहता, क्योंकि विज्ञापन से मिलने वाले राजस्व को घटा दें तो भारत में अखबार लागत से कम कीमत पर बेचे जाते हैं। यह विज्ञापन ही अखबारों के सामथ्र्य और अस्तित्व का आधार है। जो अलग-अलग अखबारों के लिए अलग-अलग होता है। विज्ञापन के रेट बढऩा और ज्यादा विज्ञापन मिलना समय समय पर ऑडिट ब्यूरो ऑफ सरकुलेशन, भारतीय रीडरशिप सर्वे जैसी एजेंसियों के प्रसार संख्या से संबंधित आंकड़ों पर निर्भर करता है। चूंकि एबीसी के सर्वे साल में एक या दो बार ही होते हैं तो बीच के सत्र में उसी आधार पर बड़ी कंपनियों की ओर से विज्ञापन मिलते रहते हैं। इस दौरान प्रसार बढ़ाये जाने पर लागत बढऩे से नुकसान बढऩे का अंदेशा रहता है। जब कि बाजार के सामान्य सिद्धांत के मुताबिक बिक्री बढऩे पर लागत स्थिर रहने पर भी मुनाफा बढऩा तय है।) अखबारों का अस्तित्व पाठकों की संख्या पर ही निर्भर है। जिस अखबार में जितने अधिक पाठक होंगे अर्थात् उसकी प्रसार संख्या जितनी अधिक होगी विज्ञापन उतना अधिक मिलेगा और लाभ भी बढ़ेगा। लाभ बढ़ाने की ही गरज से अखबारों में प्रसार संख्या बढ़ाने की होड़ लगी रहती है। इसलिए अखबारों के नीति नियंताओं की पूरी कोशिश धीरे-धीरे प्रसार संख्या बढ़ाकर नंबर वन की सीट हथियाना और उसके माध्यम से विज्ञापन बाजार में हिस्सेदारी बढ़ाने की होती है। जिस अखबार की पाठक संख्या में गिरावट आती है वहां प्रबंधन की परेशानी बढ़ जाती है। इसके अलावा अखबारों का प्रबंधन खुद भी आंकलन करता है। इसके लिए समाचारपत्रों को नए पाठक वर्ग भी तैयार करने पड़ते है।4 इसके लिए सभी वर्गों के लिहाज से ज्यादा से ज्यादा खबरें देकर सर्व स्वीकार बनाने की कोशिश की जाती है। उसे कालात्मक रूप से लोगों की अभिरुचि के मुताबिक पेश करने की भी प्रवृत्ति देखी जा रही है।5
इसके अलावा पाठकों से जुड़ाव व्यक्त करने के लिए उनके मन के अनुरूप तमाम कार्यक्रम मेले आदि आयोजित किये जाते हैं, जिससे अखबार की इमेज सुदृढ़ हो, लोगों को अपनापन लगे। सभी अखबार ब्रांड वैल्यू बढ़ाने के उपाय करते देखे जाते हैं। इसके लिए ज्यादा से ज्याद लोगों की समस्याओं को अखबार में जगह देने की भी नीति अपनाई जाती है। नये नये वर्गों को खुद से जोडऩे के लिए विपणन के नये हथकंडे अपनाये जाते हैं। उपहार, कूपन योजना आदि का मकसद यही है। लोगों को रिझाने के लिए अखबारों की ओर से किये जाने वाले प्रयासों का जिक्र करते हुए तमाम वरिष्ठ पत्रकार बताते हैं कि अंग्रेजी हो या हिंदी अखबार ध्यान खींचू लाइन लगाने में कोई कम नहीं है। हेड लाइन वो जो कैंची हो और मौलिक भी लगे। जो कहानी के सार को कह डाले और पाठक की नजर भी थाम ले। एक विदेशी अखबार स्काई लाइन के अनहोली टेरर शीर्षक के बहाने सुधीश पचौरी कहते हैं कि अखबार की ताकत खबर को बनाने और उसकी प्रस्तुति में ही निहित होती है। यहां भाषा का सब से ज्यादा ध्यान दिया जाता है। जब अखबारों में ज्यादा विजुअल्स नहीं होते थे प्राय: खबर ड्राई ही होती थी। तब भाषा और उसकी सटीकता ही संप्रेषण का काम करती थी। यदि हम जामा मस्जिद बम धमाकों की बाबत बात करें तो पाते हैं कि अखबारों की प्रमुख खबरों के टाइटिल अभिव्यंजना मूलक ही रहे। (जितना है उससे ज्यादा अर्थ देने वाले, सीधे भावना को संबोधित करने वाले।) इसका कारण वह भाव प्रधान नया पाठक वर्ग है जो इधर हिंदी भाषा बोलने वालों में बना है। यह निचले तबके का वह वर्ग है जो बहुत पढ़ा लिखा एलीट भाव का नहीं है बल्कि सामान्य बोलचाल की हिंदी को ही समझता है। वह बिहार से बंगाल, यहां से राजस्थान और यूपी से कहां-कहां से नहीं आया है। उसे खबर चाहिए, ऐसे नये अनंत पाठकों को खींचने के लिए हिंदी अखबारों ने ऐसी भाषा शैली विकसित की है जिसमें तमाम बार भड़काऊ भाषा वाले टाइटिल भी सक्रिय किये जाते हैं।6
मीडिया अक्सर कहता भी है कि वह जनरुचि के अनुसार काम करता है। वह जो दिखाता सुनाता और प्रकाशित करता है, वह जन रुचि के मुताबिक ही होता है। इस तरह वह लोगों की जरूरत को पूरा करता है। चैनलों में प्रसारित होने वाले टैलेंट हंट वाले कार्यक्रमों का जिक्र करते हुए कहते हैं कि चैनलों को नया दर्शक, उपभोक्ता हर वक्त चाहिए। उसकी रुचियों को जगाकर वह उसे दर्शक बनाकर उपभोक्ता बनाता है और इस तरह बाजार को विस्तार देता है। उधर बाजार प्रतिभागियों को नाम और दाम का सपना दिखाता है। सब तो नहीं बन सकते इंडियन आइडल, कुछ बन सकते हैं यह सपना इस स्वप्न विहीन समाज में कुछ कम तो नहीं है। अखबारों की नीति भी इससे अलग नहीं है। इसके अलावा जिस तरह राजनीति पॉपुलिस्ट है, लोकप्रियता वादी है, मीडिया भी (यह इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर ज्यादा लागू होती है।) हर पॉपुलिज्म काउंटर पॉपुलिज्म को जन्म देता है मीडिया में यह रोज दिखता है। राजनीति में भी नजर आता है। मेरठ की एक घटना का जिक्र करते हुए पचौरी बताते हैं कि यहां एक मेले में अग्निकांड हुआ। अनेक लोग मारे गए। घटनास्थल पर भीड़ जमा हो गई। इसमें मृतकों के परिजन रहे होंगे, जिज्ञासु भी रहे होंगे कि देखें क्या हुआ। यह मीडिया के पॉपुलिस्ट मुहावरे का आम जनता द्वारा (प्रति लोकप्रियतावाद) काउंटर पॉपुलिज्म था। इसमें घटना से विचलित लोगों ने अपना गुस्सा उतारा। यह पॉपुलिस्ट किस्म का व्यवहार रहा। इसमें उग्र भीड़ ने सब से पहले मीडिया पर आक्रमण किया। वे टीवी वैनों पर हमला करने लगे, चैनल वालों से भिड़ गए और चाहा कि वो-वो संख्या बताएं जो कि जनता या उस भीड़ ने मान रखी है। वे खबर ठीक करने के लिए मरने वालों की उस संख्या को बताने पर जोर दे रहे थे जो उन लोगों का यकीन था। उनका मानना था कि प्रशासन संख्या कम कर के ही बताएगा। आजाद मीडिया जनता की बात कहे, सरकार की बात नहीं कहे, मीडिया से भीड़ की यह उम्मीद बेजा नहीं थी। मीडिया के पॉपुलिस्ट मुहावरे को भीड़ इसी तरह ले सकती है। जनता इसी वजह से मीडिया को आजाद मानकर अपनी आवाज मानती है। भीड़ प्रशासन पर भरोसा नहीं करती। वह जनता का एक नाराज हिस्सा बनता है। यह भीड़ निराश जनता का क्षणिक प्रतिरोध ही है।7
इस तरह जनता मीडिया से समय-समय पर अपनी उम्मीदें व्यक्त करती रहती है। जनता के दिल दिमाग को छूने वाली उनसे जुड़ाव से संबंधित खबरें परोसाना मीडिया की मजबूरी ही है ताकि उसकी स्वीकार्यता बढ़े। इसके अलावा नये पाठक वर्ग तैयार करे, उसमें हिस्सेदारी पायें। वरिष्ठ पत्रकार मधुकर लेले ने फिक्की और पीडब्ल्यूजी के अनुमान के हवाले से अपनी किताब में बताया था कि तमाम वजहों से मीडिया उद्योग लगातार प्रगति कर रहा है। भारत में मनोरंजन उद्योग और मीडिया का कारोबार 2007 में 43700 करोड़ रुपये से बढ़कर 2011 तक एक लाख करोड़ हो जाने का अनुमान था। इसमें प्रिंट मीडिया की हिस्सेदारी 12800 करोड़ से बढ़कर 23200 करोड़ होना था।8 इसके अलावा नवंबर 2013 में केंद्रीय सरकार के वाणिज्य राज्यमंत्री के हवाले से एक अखबार में रिपोर्ट प्रकाशित की गई है, जिसके मुताबिक भारत का मीडिया उद्योग अगले साल तक दोगुना होकर करीब 21 अरब डालर का हो जाएगा। इस तरह बढ़ती संभावनाओं के दोहन की होड़ में तमाम अखबार और समाचार और मनोरंजन चैनल लगे हुए हैं।
वरिष्ठ पत्रकार पी साईंनाथ सवाल उठाते हुए कहते हैं कि इस देश में तीन दिन के भीतर 147 किसान आत्महत्या करते हैं, यह मीडिया को नजर नहीं आता। 2012 में छत्तीसगढ़ ने जीरो आत्महत्या दिखलाया है और पश्चिम बंगाल ने डाटा नहीं जमा कराया है, इसके बावजूद यह आंकड़ा 14000 तक आ गया है। तीन दिन में 3000 बगो कुपोषण और भूख से जुड़ी बीमारियों से मरते हैं। इन्हीं तीन दिनों में सरकार बड़े-बड़े कॉरपोरेट हाउस और कंपनियों को 6800 करोड़ तक की आयकर की छूट दी जाती है।9 एक चुनावी सभा में बीजेपी के मुख्यमंत्री पद के दावेदार डॉ. हर्षवर्धन ने नोबेल प्राप्त अर्थशास्त्री डॉ. अमत्र्यसेन के हवाले से बताया भी था कि, खाद्य पदार्थों की महंगाई, खाद्य सुरक्षा को प्रभावित करती है। इस बात को भी मीडिया ने महत्वपूर्ण स्थान दिया। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि, मीडिया सरोकारों से विमुख नहीं है। सितम्बर 2011 में जब सरकार को गांव में 26 रुपया रोज से ज्यादा कमाई वालों को गरीब मानने के सिद्धांत को खारिज करना पड़ा था। तब से आज तक रसोई के जरूरी सामानों की कीमतें दस से लेकर चालीस फीसदी तक बढ़ चुकी हैं। इस पर सिर्फ एक रुपया बढ़ाकर गरीबों को सहायता देने से हाथ खड़े करने की साजिश की पोल खोलने में मीडिया ने कोई कसर नहीं छोड़ी थी। विभिन्न लेखों और रिपोर्टों के जरिये योजना आयोग के प्रस्तावित आंकड़ों की बखिया उधेड़ी थी, बताया था कि, मौजूदा कीमतों के लिहाज से दिल्ली में रोज मर्रा के जरूरी सामान के लिए एक व्यक्ति को न्यनतम 35 रुपये की जरूरत पड़ेगी, क्योंकि दिल्ली में अभी आटा 20 रुपये प्रति किलो और चावल सामान्य 28 रुपये प्रति किलो है। प्रति व्यक्ति न्यूनतम खुराक 250 ग्राम आटा और चावल पर ही प्रतिदिन 12 रुपये खर्च करने होंगे। इसके अलावा सरसो का तेल, आलू, प्याज, हरी सब्जी, दाल, दूध, चाय, नमक, मसालों पर 30 रुपये अतिरिक्त खर्च करने होंगे। यह स्थिति तब है जब सिर्फ दाल रोटी चावल और मामूली सब्जी ही बनाई जाए।10 शासन के निकायों असंवेदनशीलता की आलोचना हुई। जन आक्रोश देखते हुए मुख्य विपक्षी दल के प्रवक्ता ने भी सरकार से पूछा कि सरकार को बताना होगा कि 26 रुपये की परिभाषा को क्यों नकारा था और 27 रुपये की परिभाषा को लागू करने का क्या मकसद है। अर्थशास्त्रियों के विश्लेषण प्रकाशित कर सरकार को आगाह किया गया, प्रसिद्ध अर्थशास्त्री सुरजीत भल्ला ने सवाल उठाया था कि जब आयोग के मुताबिक, गरीबों की संख्या 15 फीसदी कम हो गई है तो इन वर्षों में राशन की दुकानों के जरिए खाद्यवितरण की राशि इतनी तेजी से क्यों बढ़ी है। वरिष्ठ पत्रकार पी. साईंनाथ सवाल उठाते हैं कि, हमारे लिए यूनिवर्सल पीडीएस के लिए पैसा नहीं है, हमारे पास वर्गों के कुपोषण के लिए पैसा नहीं है। हमारे यहां मनरेगा 365 दिन नहीं, 100 दिन का रोजगार है और पीडीएस सीमित है। यह सब मीडिया को नजर नहीं आता। मेरा सिर्फ इतना कहना है कि भारत में मीडिया राजनीतिक तौर पर आजाद है, मगर मुनाफे के प्रभाव में है। यह कोई सेंशरशिप नहीं है, लेकिन यह मुनाफे की कैद में है। यह हाल तब है जब, 2020 तक जनसंख्या के एक अरब तीस करोड़ के आंकड़े के पार कर जाने का अनुमान है।
इसके लिए और खाद्यान्न की जरूरत पड़ेगी जब कि अभी भी करीब 360 मिलियन करोड़ लोग आधिकारिक गरीबी रेखा के नीचे जीवन जी रहे हैं, मतलब बगैर सरकारी सहायता के ये अपने लिए भोजन नहीं जुटा सकते। इन्टरनेशनल फूड पॉलिसी रिसर्च इन्स्टीट्यूट द्वारा 2010 में जारी रिपोर्ट में विश्व के 84 देशों की सूची में भारत का स्थान 67वां है।11 यह सूचकांक तीन मूल्यों बाल कुपोषण, बाल मृत्युदर और कुल जनसंख्या में कैलोरी डेफीसीएंट के प्रतिशत के आधार पर तैयार किया जा सकता है। इस सूची में श्रीलंका 39वां, पाकस्तिान 52वां, नेपाल जैसे देश भी 56वां स्थान रखते हैं। जो भारतीय नागरिकों से बेहतर स्थिति में हैं। इसका तात्पर्य यह है कि भारत में बाल कुपोषण, बाल मृत्युदर और भूखे लोगों का प्रतिशत श्री लंका नेपाल और पाकिस्तान से भी ज्यादा है। इसके अलावा एक सर्वेक्षण के मुताबिक भारत के 37 प्रतिशत लोग गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन कर रहे हैं, मतलब इनके पास अनिवार्य खाद्य पदार्थ खरीदने के लिए धन नहीं है।
राजनीतिक दलों को जन सरोकारों से संबंधित मसलों को लेकर प्रचार सभाओं में अपना दृष्टिकोण और एजेंडा रखना पड़ रहा है। खाद्य सुरक्षा, खाद्य अधिकार, भुखमरी, गरीबी, कुपोषण, बेरोजगारी, सिचाई के साधनों की समस्या, पीने के पानी की समस्या, पौष्टिक भोजन की समस्या, खाद व बीज की समस्या, किसानों को कृषि तकनीकों की जानकारी का अभाव और मंहगे उपकरण तथा भू-अधिग्रहण आदि को खबरों और लेखों के जरिये गंभीरता से उठाया है। इन मुद्दों की अनदेखी नहीं किया है। यह मीडिया की देन है। आंकड़ों के मुताबिक एक साल में अखबारों में प्रकाशित 57 हजार 432 खबरों में से अमर उजाला ने 2010 इन मुद्दों पर 424, जागरण ने 226, हिन्दुस्तान ने 301 खबरें प्रकाशित किया। यदि हर रोज के हिसाब से देखें तो यह आंकड़ा प्रतिदिन करीब एक पड़ता है। 2011 में यह आंकड़ा और बढ़ जाता है। इस साल तीनों अखबारों ने क्रमश: 472, 237 और 319 खबरें इस संबंध में प्रकाशित की। इसका प्रतिशत निकालें तो साल दर साल इस तरह आएगा। 2010 में अमर उजाला 0. 73 दैनिक जागरण ने 0.39 और हिंदुस्तान ने 0.52 प्रतिशत खबरें प्रकाशित की, जबकि 2011 में यह आंकड़ा बढ़कर क्रमश: 0.82, 0.41 और 0.55 प्रतिशत हो गया। साल दैनिक जागरण, अमर उजाला और हिन्दुस्तान ने क्रमश: 1584, 1296, 1080 लेख प्रकाशित किए, अर्थात् तीनों अखबारों का औसत देखें तो करीब 1320 लेख प्रकाशित किए गए (संपादकीय पृष्ठ पर सारे कॉलम फिक्स होने से इसमें जगह में बदलाव की स्थिति नहीं रही, 2011 में भी यह समान ही रही)। इस दौरान 2010 में दैनिक जागरण, अमर उजाल और हिन्दुस्तान ने क्रमश: 47,67 और 47 लेख जन सरोकारों पर चर्चा के लिए लिखे। 2011 में यह आंकड़ा 46, 77 और 23 हो जाता है। जो जन सरोकारों को लेकर अखबारों की मानसिकता और जन पक्षधरता को व्याख्यायित करता है। इसका प्रतिशत निकालें तो अमर उजाला दैनिक जागरण और हिंदुस्तान ने महंगाई, खाद्यसुरक्षा का अधिकार, कुपोषण और किसानों की समस्याओं को विचारों में क्रमश: 2010 में 5.16, 2.96, 4.35 और 2011 में 5.94, 2.90, 2.12 प्रतिशत स्थान दिया। ये आंकड़े जनसरोकारों को लेकर अखबारों के रुख की बोलती कहानी है। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि, आम आदमी अखबारों के लिए त्याज्य नहीं है और इस संबंध में विचारों के पन्ने पर इनको पर्याप्त स्पेस मिला है। हालांकि 2010 की तुलना में 2011 में इसमें मामूली गिरावट देखी गई है। इसकी एक वजह है कि, संपादकीय पृष्ठ पर तमाम लेख और विचार सामयिक घटना पर लिखे जाते हैं। इस दौरान इन विषयों से जुड़ी कम घटनाओं के सामने आने को इसकी वजह मानी जा सकती है। जनता की सूचना का प्रमुख स्रोत मीडिया ही है, समाज के तकरीबन सभी लोगों ने बताया कि, उनकी जानकारी का स्रोत मीडिया ही है, चाहे वह अखबार हों या टीवी चैनल, यही नहीं लोगों का समाचारों पर पूरा भरोसा भी है, 74 फीसदी लोगों ने अखबारों, टीवी की सभी या ज्यादातर खबरों को सगाी माना, सिर्फ 26 फीसदी का कहना था, कह नहीं सकते। मतलब साफ है कि वे असमंजस की स्थिति में है। समाज को आज भी मीडिया पर पूरा भरोसा है। सर्वे के नतीजे बताते हैं कि, लोग समाचारों में छपी घटनाओं पर कभी न कभी चर्चा करते रहते हैं, वे आसपास रहने वाले राजनीतिक दलों के प्रतिनिधियों के सामने भी इन मसलों पर बात करते हैं, जाहिर सी बात है कि, ये बातें सत्तारूढ़ दलों के कार्यकारी लोगों तक पहुंचेगी, जिसका अर्थ हुआ कि, जनमत निर्माण और किसी विषय को मुद्दा बनाने में मीडिया की अहम भूमिका होती है, इस प्रक्रिया को शुरू करने का कार्य मीडिया ही करता है। 50 फीसदी उत्तरदाताओं ने कहा कि, वे कभी भी अखबारों में प्रकाशित खबरों पर चर्चा नहीं करते, वर्ना 28 फीसदी का जवाब था कि वे घटनाओं पर स्थानीय नेता से बात करते हैं, जबकि 18 फीसदी का कहना था कि वे कभी-कभी इन विषयों पर बात कर लेते हैं। 62 फीसदी लोगों ने किसी विषय पर राय बनाने में मीडिया से मिली जानकारी को आधार बताया, जबकि 25 फीसदी लोग स्व अनुभव और 13 फीसदी लोगों ने आसपास के लोगों से चर्चा के दौरान प्रभावित होने की बात स्वीकार की। यह जनमत निर्माण में मीडिया की भूमिका पर एक मुहर की तरह है। सर्वे में 81 फीसदी लोगों ने महंगाई और गरीबी को मुद्दा माना है और 65 फीसदी का कहना है कि अखबारों में आम लोगों की समस्या गरीबी महंगाई, कुपोषण और किसानों से संबंधित समस्याओं पर खबरें और लेख प्रकाशित होते रहते हैं। 15-10 फीसदी उत्तरदाताओं का कहना था कि कभी-कभी या किसी-किसी समस्या को समाचार पत्र प्रमुखता देते हैं। सर्वे का सबसे महत्वपूर्ण नतीजा यह है कि, हताश लोगों को मीडिया से बड़ी उम्मीदें हैं और लोग जागरूक हुए हैं और अपने मसले उठाने में अखबारों की मदद भी लेने लगे हैं। ये लोगों का भरोसा है कि, अपने से संबंधित करीब साठ फीसदी उत्तरदाताओं ने कभी न कभी अपनी समस्या उठाने और लोगों तक अपनी बात पहुंचाने के लिए मीडिया के दफ्तर का रुख किया है। सिर्फ 42 फीसदी शहरी उत्तरदाताओं ने कभी भी मीडिया की मदद न लेने की बात कही। यह जवाब अपने आप में मीडिया से आकांक्षा और भरोसा बताने के लिए काफी है। इन दिनों खाद्य सुरक्षा को लेकर हो रही चर्चा का श्रेय भी लोग मीडिया को ही देते हैं। लोगों को अपेक्षा है कि वह उनकी बात को प्रमुखता से उठाए।
अध्ययन का उद्देश्य
भूख, गरीबी, बेरोजगारी, सूखा, बाढ़, बिचौलियों से शोषित किसानों द्वारा आत्महत्या करना आदि अनेक ऐसे मामले हैं जो कहीं न कहीं खाद्य सुरक्षा की समस्या के कारण घटित हो रहे हैं। यह किसी भी भासन व्यवस्था के लिए चुनौती होती है। लोकतांत्रिक देश में व्यवस्था और शांति का राज तभी बना रह सकता है जबकि वहां के लोग और मीडिया अपनी जिम्मेदारी का अनुभव करें। सामाजिक सरोकारों तथा मानवाधिकारों को लेकर सरकार तथा जनता के बीच सेतु का काम मीडिया करती है। मीडिया के बढ़ते प्रभाव को नकारा नहीं जा सकता। उपरोक्त सभी मुद्दे जन सरोकारों से जुड़े हैं। खाद्यान्न संकट भारत की प्रमुख समस्या है जिसे केंद्र सरकार ने कानून के सहारे दूर करने की कोशिश की है। हिन्दी प्रिंट मीडिया की भूमिका खाद्य सुरक्षा को लेकर संवेदनशील रही है और उसने संबंधित मुद्दों को प्रमुखता से कवरेज दी है। जिससे न केवल स्थानीय प्रशासन बल्कि केंद्र व राज्य सरकार पर एक मनोवैज्ञानिक दबाव बनाने में सफलता मिली। वैसे तो सभी भारतीय भाषाओं के समाचार पत्रों ने इस प्रकार की खबरों को छापा लेकिन हिन्दी प्रिंट मीडिया की भूमिका का अध्ययन आवश्यक लग रहा था।
शोध विधि
उद्देश्य की पूर्ति के लिए विभिन्न पुस्तकों, हिन्दी के प्रमुख समाचार पत्रों, पत्रिकाओं का अध्ययन किया गया। समीक्षात्मक व्याख्या के लिए विद्वान लेखकों के लेखों के आधार पर विषय को समझने का प्रयास किया गया है। विषय की गंभीरता तथा प्रिंट मीडिया की स्थिति को स्पष्ट करने के लिए रैंडम विधि से समाचार पत्रों में प्रकाशित खबरों के सर्वेक्षण का भी सहारा लिया गया है। ताकि विषय की गंभीरता के साथ न्याय किया जा सके।
अध्ययन का महत्व
खाद्य सुरक्षा भारत ही नहीं वरन् वैश्विक समस्या है। जिसको जड़ से समाप्त करना एक बड़ी चुनौती है। गरीबी, भुखमरी, बेरोजगारी, अशिक्षा, काम के समान अवसर की कमी, किसानों की समस्यायें, आत्महत्या, बिचौलियों के कारण किसानों के लाभ पर डाका, प्रशासनिक उपेक्षा, हल्की राजनीतिक बयानबाजी आदि अनेकों ऐसे विशय हैं जिन पर गंभीरतापूर्वक विचार किया जाना आवश्यक है। सरकार ने तो खाद्य सुरक्षा कानून बनाकर एक रास्ता खोल दिया है। किंतु कानून बनने से ही उपरोक्त चुनौतियां समाप्त नहीं होंगी। यह जरूरी है कि प्रशासनिक स्तर पर इसे पारदर्शी तरीके से लागू कराया जाए। जिसमें जन सहभागिता के साथ मीडिया की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण हो जाती है। चूंकि हिन्दी के समाचार पत्रों की पहुंच अधिक लोगों तक है और वे दूर तक प्रभाव छोडऩे में सफल हो सकते हैं जैसा कि वे करते आये हैं। मीडिया हमारे दैनिक जीवन के प्रत्येक अंग को प्रभावित कर रही है। इसके महत्व को समझना होगा। प्रिंट, इलेक्ट्रानिक और सोशल मीडिया भारत की प्रगति और भांति तथा व्यवस्था बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है। आज तेज भागती जिंदगी में कहीं न कहीं हमारे मानवीय अधिकारों का अतिक्रमण हो रहा है, सामाजिक दायित्वों की अनदेखी हो रही है। ऐसे में मीडिया की पहल और सार्थकता इस अध्ययन को महत्व प्रदान करने वाला है।
निष्कर्ष
समाज पर मीडिया का खासा असर है और भारतीय समाज की ओर से तय जिम्मेदारी बखूबी निभा रहा है। मीडिया के पेशेवर रुख की वजह से ही उसमें सभी वर्गों की समस्याएं उठाई जाती हैं। वह सरकारी दबाव से भी काफी दूर है। जनता का भी मीडिया पर ऐतबार है। वह अपनी आवाज कार्यदायी संस्थाओं तक पहुंचाने और गलत निर्णयों के खिलाफ लोगों को गोलबंद करने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है। सामाजिक भ्रष्टाचार से लेकर आर्थिक भ्रष्टाचार तक की निगहबानी कर वह लोकतंत्र को मजबूत कर रहा है, सगो मायने में यह समाज का वाच डॉग है। लोगों को सूचना देने और जागरूक बनाने में उसकी प्रमुख भूमिका है और लोगों का भरोसा उस पर कायम है। लोगों की राय का आधार मीडिया से प्राप्त सूचना ही होती हैं, जिसका तात्पर्य है कि जनमत निर्माण में भी इसकी भूमिका है। हाल ही में सिविल सोसाइटी जैसे जुमलों का चलन मीडिया की भूमिका और कार्यों पर स्वत: मुहर लगने जैसा ही है।
संदर्भ सूची
- गांधी, मोहनदास करमचंद – मेरे सपनों का भारत
- कुमार, विनीत – मीडिया में मंडी
- कोहली, वनिता – द इंडियन मीडिया बिजनेस
- पचौरी, सुधीश – नई मीडिया नए मुद्दे
- फिक्की केपीएमजी रिपोर्ट 2013
- नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो रिपोर्ट
- दैनिक जागरण
- ग्लोबल हंगर इंडेक्स रिपोर्ट 2010