महानगर-केंद्रित होता भारतीय मीडिया

रमाकांत बरुआ*

प्रस्तावना :

अक्सर यह कहा जाता है कि भारत गांवों में बसता है और जनसंख्या के नये आंकड़े भी इस बात के गवाह है। फिर आखिर भारतीय मीडिया में गांव की खबरों का प्रतिशत इतना कम क्यों है? इस सिलसिले में मीडिया जगत के विद्वान निम्न कारणों को अपने लेखन के माधयम से अभिव्यक्त करते रहे हैं-

  1. विज्ञापनों का दबाव : महंगा जन संचार माध्यम होने के कारण टेलीविजन को निरंतर आय के लिए विज्ञापनों पर निर्भर रहना पड़ता है और अधिक विज्ञापन बटोरने के लिए केवल अधिक दर्शक होना जरुरी नहीं है बल्कि ऐसे दर्शक चाहिए होते हैं जिनकी बाजार में हैसियत हो या जो सामाजिक-आर्थिक वर्ग में भी ए और बी श्रेणी के हों। यही कारण है कि अंग्रेजी अखबारों के हिन्दी के मुकाबले कम पाठक होने के बावजूद अधिक विज्ञापन मिलते हैं। चैनल प्रबंधन ऐसा मानकर चलते हैं कि अगर वे गांव के समाचार अधिक दिखाएंगे तो उनकी ब्रांड छवि को नुकसान हो सकता है। विज्ञापन दाता उसे संपन्न शहरी तबके के स्थान पर गांव वालों का चनल समझने लगेंगे।
  2. टीआरपी की होड़ : दूसरा बड़ा कारण दर्शक संख्या है। माना जाता है कि अभी देश में सेटेलाइट टेलीविजन का विस्तार शहरी क्षेत्रों तक ही हो पाया है। भारत के लगभग साढ़े 8 करोड़ टीवी सेटों में से लगभग 4.5 करोड़ में हीं केबल कनेक्शन है। इनमें से अधिकांश शहरी घरों में है। स्वाभाविक है कि चैनलों को टीआरपी बढ़ाने के लिए अपने दर्शकों से जुड़ी या उनकी रूचि की खबरें अधिक दिखानी होंगी। टीआरपी मापने का सारा शोध भी शहर केंद्रित है इसलिए वे टीआरपी जोन की रिपोर्टिंग पर विशेष ध्यान देते हैं।
  3. चैनलों के सीमित संसाधन : एक चैनल कोदूर-दराज स्थित किसी गांव में घटित खबर को कवर करने के लिए राजधानी से एक रिपोर्टर व पूरी कैमरा टीम को भेजना होता है। जो कि किसी भी चैनल के लिए प्रार्थमिक रूप से एक महंगा मामला है, साथ ही अधिक समय और श्रम साध्य भी। अत: अभी फिलहाल किसी भी चैनल के लिए सभी जिला मुख्यालयों पर कैमरा टीम तैनात करना आर्थिक दृष्टिकोण से संभव नहीं जान पड़ता। हालांकि, सभी चैनल तेजी से स्ट्रिंगरों की पूरी फौज जिला मुख्यालयों में तैनात करने में जुटे हैं। अत: सीमित संसाधनों के चलते गांव की खबरें या तो रिपोर्टिंग के बिना ही छूट जाती है या फिर देर-सबेर से मीडिया की सुगबुगाहट बन पाती हैं।
  4. शहरी समाचार : गांव की खबरों को टेलीविजन बुलेटिन या अखबारों में स्थान न मिलने का कारण सामाचार चयनकर्ताओं का शहरी पूर्वाग्रह भी है। अधिकांश पत्रकारों की सामाजिक-सांस्कृतिक पृष्ठभूमि शहरी है। इसलिए यह पूर्वाग्रह अनेक महत्वपूर्ण ग्रामीण खबरों को या तो सही संदर्भों में समझने ही नहीं देता या फिर उसे दरकिनार कर देता है। चैनलों का कवरेज मैट्रों केंद्रित होने के मसले पर टेलीविजन पत्रकारो की राय मिली-जुली है। एक बात साफ तौर पर उभरकर सामने आई कि पत्रकार इस बात को महसूस करते है कि गांवों को अपेक्षित कवरेज नहीं मिल पाता है। लेकिन उनके महसूस करने का पूरे मीडिया जगत के ढाँचे की कार्य प्रणाली पर कोई खास असर नहीं पड़ता। क्योंकि चैनल एवंम अखबार एक खास बाजार के दबाव में अपने ढर्रे पर काम करते हैं। और एक पत्रकार इस पूरे सिस्टम का छोटा हिस्सा भर है। मीडिया प्रबंधन की बात करें तो उन्हें अपनी आर्थिक सीमाओं का ध्यान रखना पड़ता है। गांवों की रिपोर्टिग एक खर्चीला और समय लेने वाला मामला है। इसलिए किसी रिपोर्टर को दूरदराज के एक गांव में रिपोर्टिग के लिए भेजने से पहले कई बार सोचा जाता है। साथ ही इस दिशा में चैनल /अखबार विशेष की समाचार नीति भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। प्रत्येक चैनल /अखबार की अपनी एक ब्रांड छवि होती है और उसी के हिसाब से चैनल / अखबार अपनी प्राथमिकता तय करता है।

महानगर-केंद्रित भारत का मीडिया :

उक्त विवेचन से स्पष्ट है कि, हमारे मुल्क का मीडिया महानगर और शहर केन्द्रित है, गाँव और कस्बे से उसका सरोकार नहीं के बराबर है।

दूरदर्शन के कार्यक्रम ‘कृषि दर्शन’ की तरह किसानों और ग्रामीण जनता को केंद्रित कर इनाडू टेलिविजन ‘अन्नदाता’ नामक कार्यक्रम दिखाता है। इसी प्रकार गांव की खबरों पर केंद्रित सहारा ‘हमारा गांव’ दिखाता है। लेकिन इस प्रकार के कार्यक्रम गिनती के हैं। टीवी चैनल, गांवों मे केवल दुर्घटना, आपदा, सनसनीखेज अपराध या किसी राष्ट्रीय हस्ती के दौरे को कवर करने के लिए ही जाते है।

मीडिया के इतिहास में कोई घटना तब तक खबर नहीं बनती जब तक वो घट नहीं जाती, खासकर इलक्ट्रोनिक मीडिया के लिए। सवाल यह कि हिन्दुस्तान में रोज हजारों ऐसी घटनाएं मीडिया रिपोर्टिंग से महरूम रह जाती हैं। पीपली लाइव फिल्म में मीडिया के इस बुनियादी सच को उलट दिखाया गया है। हिन्दुस्तान के 62 साल के इतिहास में कस्बाई स्तर पर कोई भी घटना, बिना घटे तो दूर, घटने के बाद भी चुनाव में राष्ट्रीय मुद्दा नहीं बना, पीपली लाइव फिल्म को छोड़ कर।

यह चौंकाने वाला सत्य है कि- ग्रामीण समाचार में सर्वाधिक समाचार आपसी विवाद से संबंधित होते हैं,  जिनके मूल में या तो भूमि विवाद होता है या बिल्कुल महत्वहीन घटनाएं। कई महत्वहीन घटनाएं ऐसी होती हैं जिनका समापन आत्महत्या के प्रयास या आत्महत्या से होता है। साधारण समझ वाला पत्रकार विकास या बुनियादी समस्याओं को भूल कर उक्त घटनाओं को ही मूल समस्या समझ बैठता है। इसी बीच प्रेम या बलात्कार संबंधी घटना मिल जाए तो पत्रकार इसे ही बड़ा समाचार मानकर खुश हो जाता है।

इसमें कोई दो राय नहीं कि हमारे प्रमुख खबरी चैनल और अखबार महानगर-केंद्रित हैं। इसका जीता-जागता उदहारण है- रोजमर्रा की चीजों की कीमतों में यकायक असाधारण वृद्धि होना, अभी कुछ समय पहले जब, दिल्ली और मुंबई की मंडियों में चीनी अथवा प्याज और टमाटर के दाम बढ़े थे तो देश के शेष भागों के कस्बों और गांवों में उसका प्रभाव कम था और दाम आसमान नहीं छू रहे थे, पर जब मीडिया ने इस एक खबर पर ही फोकस बनाया और टीवी चैनलों ने तत्कालीन केंद्रीय कृषि मंत्री शरद पवार के बयानों को दोहरा-दोहरा कर उसकी नाटकीयता बढ़ाई तो छोटे शहरों के खुदरा व्यापारियों ने भी तुरंत दाम बढ़ा दिये। इस प्रकार मीडिया ने वस्तुत: महंगाई बढ़ाने का काम किया और आम आदमी की परेशानी में इजाफा किया। खबरों का प्रभाव बढ़ाने के लिए टीवी चैनल जिस नाटकीयता का सहारा लेते हैं वह अक्सर हानिकारक ही होती है। नाटकीयता की अति समाचार प्रस्तोताओं के लिए नशा बन गया है। टीआरपी की दौड़ में लगे टीवी चैनल इस दौड़ से परेशान हैं पर वे इसका कोई प्रभावी विकल्प खोजने में असमर्थ प्रतीत होते हैं। टीवी चैनलों की देखादेखी प्रिंट मीडिया भी नाटकीयता का शिकार होता चल रहा है। खबरी चैनल, मनोरंजन चैनलों की नकल कर रहे हैं और अखबार, खबरिया चैनलों की नकल पर उतारू हैं। ऐसे में कोई मीडिया की ताकत का नाजायज फायदा उठा ले जाए तो मीडिया को भी पता नहीं चलता कि वह किसी शातिर दिमाग व्यक्ति का हथियार बन गया है। टीवी चैनलों को टीआरपी का गुड़ नजर आता है और वे अपनी पीठ थपथपाने में जुट जाते हैं जबकि आम आदमी मीडिया की नाटकीयता का शिकार होकर परेशानी भुगतता रह जाता है।

वैश्विक मंदी और अखबार जगत:

वैश्विक मीडिया मुगल रुपर्ड मर्डोक ने बाजार में जमे हुए समाचार पत्रों से होने वाले फायदों के कारण एक बार इन्हें ‘सोने की नदी’ कहा था, किन्तु वर्तमान संकट के चलते उनको अपना कथन बदलकर कहना पड़ा कि ‘कभी-कभी नदी सूख भी जाती है’।

वैश्विक मंदी के कारण अखबारों के वैश्विक व्यापार में वर्ष 2012 में लगभग 10 प्रतिशत की गिरावट का अनुमान है। विशेषज्ञों का मानना है कि अभी फिलहाल प्रतिवर्ष 2 फीसदी की गिरावट जारी रहेगी। अखबारी कागज की बढ़ती कीमत, घटते विज्ञापन राजस्व, गिरते प्रसार व कम समय में पाठकों का अधिकाधिक सूचना अंगीकृत करने हेतु न्यू मीडिया माध्यमों की ओर बढ़ता रुझान, अखबार के वैश्विक बाजार में मंदी के प्रमुख कारण है।

हालाँकि, भारत में समाचार पत्रों कि बुनियाद अभी काफी मजबूत है और फिलहाल कोई सीधा खतरा इसके भविष्य पर नहीं मंडरा रहा है। भारत में अभी इंटरनेट और टीवी की सीमित पहुँच अखबारों के विकासशील बने रहने का एक महत्वपूर्ण कारक है।

मीडिया के सामाजिक-राष्ट्रीय सरोकार :

आजादी से लेकर अब तक भारतीय मीडिया का स्वरुप काफी बदला है। जहाँ तक मीडिया और समाज के संबंधों की बात है, तो वो संबंध पहले से कहीं अधिक प्रगाढ़ हुए हैं, इसमें कोई दो राय नहीं है। पहले मीडिया का सामाजिक सरोकार तो होता था लेकिन जैसे संबंध आज है वो तो काल्पनिक ही था। आम आदमी की आवाज को राष्ट्रीय आवाज बनाने का एकमात्र श्रेय मीडिया को ही जाता है। जेसिका लाल केस इसका जीता-जागता उदाहरण है। मीडिया ने ही इस केस को फिर से खुलवाया। जो काम सालों से हमारे प्रशासन, न्यायालय और पुलिस नहीं कर सके, उसे मीडिया ने कर दिखाया है। इस उदात्त कार्य के लिए भारतीय मीडिया निश्चित रुप से प्रशंसा का पात्र है।

आज अगर हर व्यक्ति हर विषय के बारे में जागरुक है, तो उसका श्रेय भी मीडिया को ही जाता है। आज अगर एक आम आदमी को अपनी आवाज सरकार तक पहुँचानी होती है तो वो न तो प्रशासन से कोई आस लगाता है न ही पुलिस से कोई उम्मीद, लेकिन वह मीडिया का सहारा लेकर अपनी बात को सरकार तक पहुँचाता है। आज आम भारतीय न तो भ्रष्ट नेताओं पर भरोसा करता है और न ही घूसखोर पुलिस पर, लेकिन वो मीडिया पर भरोसा करता है। आज जब एक आम आदमी बोलता है, तो सरकार न केवल उसे सुनती है, बल्कि उसके बारे में सोचती भी है और अब नौबत यह आ गयी है कि सरकार को तत्काल कार्यवाही भी करनी पडती है। अगर कोई सरकार ऐसा करती है, तो यह न सिर्फ आम आदमी की जीत है, बल्कि लोकतंत्र की भी सही जीत यही है।

आम जनता के लिए मीडिया में स्थान है, अखबारों में वह लेटर टू एडिटर लिखकर अपने विचारों को व्यक्त कर सकता है। बहुत ही कम खर्चे में आम आदमी अपनी वेबसाइट खोलकर या अपना समाचार पत्र या चैनल शुरु  कर मीडिया का एक हिस्सा भी बन सकता है। जब इतनी ताकत हमारे मीडिया ने आम आदमी को दे दी है, तो यह सवाल ही नहीं उठता कि मीडिया जनहित में काम कर रहा है या नहीं। हमारा मीडिया लोकतांत्रिक है और हमारा समाज लोकतंत्र के अन्य तीन स्तम्भों से कहीं ज्यादा उस पर भरोसा करता है। मीडिया व समाज का यह रिश्ता भविष्य में निखर कर और मजबूत होगा। इसके साथ ही वर्तमान में हमारा मीडिया अंधविश्वास और रुढिय़ों को तोडऩे में भी प्रसंशनीय भूमिका निभा रहा है।

जहाँ तक बाजार के दुष्प्रभाव की बात है, मुख्यधारा के मीडिया ने बाजार की ताकत को पहचान कर उसका अनुगामी बनना तो स्वीकार कर लिया है। अखबार अर्थव्यवस्था का एक ऐसा अनोखा उत्पाद है जो अपनी वास्तविक लागत 10 से 20 रुपए से अत्यन्त कम 1 से 5 रुपए तक पर बिकता है, साथ ही मीडिया चैनल्स भी विज्ञापनों से होने वाली कमाई पर अपनी निर्भरता से अछूते नहीं हैं। अत: मीडिया के लिए वास्तविक लागत से कम पर जीवनयापन करना असंभव है, इसलिए आज के पत्रकारी युग का आदर्श खबरों को देना नहीं बल्कि ऐन-केन प्रकारेण खबरों को बेचना भर रह गया है। खबरों में न केवल मिलावट हो रही है बल्कि पेड न्यूज के तहत विज्ञापनों को खबरों के रुप में छाप कर पाठकों को धोखा भी दिया जा रहा है।

निष्कर्ष :

समाज को बताने-दिखाने, गढऩे-बनाने के उपक्रम में भारतीय मीडिया नित नये प्रयोग कर रहा है। मीडिया ने समाज में भ्रष्टाचार उन्मूलन, राजनैतिक/ प्रशासनिक/ सामाजिक जवाबदेही की सुनिश्चितता, शिक्षा का अधिकार, सूचना का अधिकार, महिला आरक्षण, मनरेगा सहित तमाम सरकारी योजनाओं का समुचित क्रियान्वयन जैसे मुददों से एक खास किस्म की नैतिकता को समाज में जन्म दे दिया है। इसके अतिरिक्त समय-समय पर इसने- महँगाई, आतंकवाद, नक्सली हिंसा, बंग्लादेशी घुसपैठ, धारा 370, कश्मीर समस्या, राम जन्म भूमि, मराठी मानुष जैसे क्षेत्रीय मुद्दे, तेलंगाना, गुजरात दंगा, ऑस्ट्रेलिया में भारतीयों से नस्ली भेदभाव, पाक, चीन, अमेरिका सहित सभी देशों से संबंधित विदेश नीति आदि विषयों पर भी अपनी भूमिका को स्पष्ट रुप से परिलक्षित किया है।

किन्तु, वहीं दूसरी ओर भारतीय मीडिया के सामाजिक तथा राष्ट्रीय सरोकारों पर लगातार वैश्वीकरण व बाजार का नकारात्मक दबाव पड़ रहा है। मीडिया प्रबंधन के बढ़ते दबदबे और दबाव ने इसकी स्वतंत्रता, निष्पक्षता, संतुलन और तथ्यपरकता तथा सामाजिक व राष्ट्रीय सरोकारों को न सिर्फ कमजोर करके गहरा धक्का पहुँचाया है बल्कि इसकी साख और विश्वसनीयता को भी अपूर्णनीय क्षति पहुँचायी है। महानगर-केंद्रित भारत का मीडिया राजनीतिक दलों व औद्योगिक कंपनियों के ‘मीडिया प्रकोष्ठ’ और ‘पी.आर.’ एजेंसियाँ द्वारा लगातार नियंत्रित हो रहा है, ये समाचारों की अतर्वंस्तु को प्रभावित कर उसे अपने अनुसार तोड़- मरोड़ रहे हैं, अनुकूल अर्थ दे रहे हैं, और यहाँ तक कि जरूरत पडऩे पर प्रतिकूल खबरों को दबाने तक की पुरजोर कोशिशें कर रहे हैं। इससे मीडिया का जो चेहरा आज आम समाज में पहचाना जा रहा है वह बेहद भ्रष्ट और ब्लैकमेलर का है, निश्चित रूप से यह सभी के लिये एक चिंतनीय पहलू है।

संदर्भ :

http://www.pravakta.com/future-of-media-and-social-national-concerns

Advertisement

Leave a Reply

Fill in your details below or click an icon to log in:

WordPress.com Logo

You are commenting using your WordPress.com account. Log Out /  Change )

Twitter picture

You are commenting using your Twitter account. Log Out /  Change )

Facebook photo

You are commenting using your Facebook account. Log Out /  Change )

Connecting to %s

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.

%d bloggers like this:
search previous next tag category expand menu location phone mail time cart zoom edit close