बालेन्दु दाधीच*
प्रिंट मीडिया के सामने चुनौतियों की कभी कमी नहीं रही। ज्यादातर चुनौतियाँ समय-सापेक्ष थीं, लेकिन मीडिया ने अपने आपको नए दौर के अनुरूप ढाला और प्रासंगिक बने रहने के तरीके खोजे। पिछले एक दशक से पारंपरिक मीडिया को एक नए मीडिया से चुनौती मिल रही है जिसका डिलीवरी मैकेनिज़्म अलग है, जो इंटरनेट के जरिए पाठक और दर्शक तक पहुँचता है और प्रिंट तथा टेलीविजन से ज्यादा सक्षम है, खास तौर पर अपनी इंटरएक्टिविटी की वजह से। यह है नया मीडिया या डिजिटल मीडिया।
इस नए मीडिया ने अमेरिका और यूरोप के पारंपरिक मीडिया में बहुत तबाही मचाई है क्योंकि बहुत से पाठक और विज्ञापन अखबारों से अलग हटकर सोशल मीडिया और वेबसाइटों की ओर चले गए। टेलीविजन के लिए भी स्थितियाँ कम चुनौतीपूर्ण नहीं हैं क्योंकि यू-ट्यूब, मेटा कैफे, यूस्ट्रीम और डेली मोशन जैसी ऑनलाइन वीडियो स्ट्रीमिंग वेबसाइटें दर्शक के लिए अलग किस्म का वीडियो प्लेटफॉर्म ले आई हैं। जहाँ डिजिटल टेलीविजन एक पेड सर्विस है वहीं ये सभी नि:शुल्क वेबसाइटें हैं। खास बात यह है कि यहाँ दर्शक सिर्फ मूक दर्शक नहीं है बल्कि वह चाहे तो खुद ब्रॉडकास्टर भी बन सकता है। दूसरे यह कन्टेन्ट टेलीविजन की तरह किसी खास समय के साथ बंधा हुआ नहीं है बल्कि दर्शक की सहूलियत के हिसाब से किसी भी समय देखा जा सकता है, यानी ऑन डिमांड।
प्रिंट मीडिया के उलट, अभी हाल तक टेलीविजन की दुनिया में किसी ने डिजिटल मीडिया की चुनौती को बहुत गंभीरता से नहीं लिया था। वास्तव में इसे एक अवसर समझा गया, जिसका प्रिंट और टेलीविजन ने पर्याप्त दोहन भी किया है। ट्विटर इसका एक शानदार उदाहरण है, जो खबरों के अकाल के समय संकटमोचक के रूप में उभर कर सामने आता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल, जम्मू कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला, पूर्व केंद्रीय मंत्री शशि थरूर, मनीष तिवारी, दिग्विजय सिंह और अमिताभ बच्चन, शाहरूख खान, आमिर खान, विशाल डडलानी जैसे फिल्मी कलाकार ऐसे संकट के समय अपने किसी न किसी दिलचस्प ट्वीट के जरिए नई खबर का सृजन कर देते हैं। सो, हम डिजिटल मीडिया को अपने लाभ के लिए इस्तेमाल करते रहे हैं। किसी मुद्दे पर तुरत-फुरत ऑनलाइन पोल करवा लिया और खबर बन गई। किसी के ब्लॉग या फेसबुक अकाउंट पर कोई विवादित टिप्पणी आ गई और खबर बन गई। यू-ट्यूब तो खबरों का खजाना है। एक भैंसे ने शेर को खदेड़ दिया तो ब्रेकिंग न्यूज बन गई। मैंने सुना है कि हमारे चैनलों में यू-ट्यूब के वीडियो को खबर के तौर पर प्ले करने के विशेषज्ञ खड़े हो गए हैं। एक टीवी चैनल ने तो दस सैकंड के वीडियो पर तीस मिनट का कार्यक्रम बना डाला। वह चाहता तो इस पर विशेषज्ञों के बीच आधे घंटे की चर्चा भी करवा सकता था। संभावनाएँ तो अनंत हैं।
भारत में प्रिंट और टेलीविजन ने डिजिटल मीडिया को चुनौती के रूप में कम और अवसर के रूप में ज्यादा देखा है। वह काफी हद तक नए मीडिया की तरफ से पैदा होने वाले उस संकट को टालने में सफल हो गया है जो अमेरिका और यूरोप का मीडिया नहीं कर सका। आप जानते हैं कि वहाँ दर्जनों के हिसाब से अखबार बंद हो गए, न्यूज़वीक जैसी पत्रिका प्रिंट मीडिया को अलविदा कर पूरी तरह ऑनलाइन हो गई। कंपनी मैगजीन, गोल्फ मैगजीन, पीसी मैगजीन, गोल्फ वल्र्ड, जेट मैगजीन, स्मार्ट मनी, स्पिन मैगजीन, एसक्यू मैगजीन, एल स्टाइल जी स्टाइल आदि ऐसी ही कुछ मिसालें हैं। बंद होने वाले कुछ अखबार ऐसे हैं जो सौ साल से भी ज्यादा समय से प्रकाशित हो रहे थे। जिन अखबारों का बंद होना खास तौर पर दु:खद था, वे थे बाल्टीमोर सन, डेट्रॉइट फ्री प्रेस, द रॉकी माउंटेन न्यूज और सिएटल पोस्ट इंटेलीजेंसर। एसक्यू मैगजीन ने लिखा -A new era begins: Print is dead, we are going online only.
बहरहाल, बहुत से अखबार जैसे कि सान फ्रांसिस्को क्रॉनिकल, न्यूयॉर्क टाइम्स और वाशिंगटन पोस्ट अपने खर्चों पर जबरदस्त अंकुश लगाकर, शेयर या प्रॉपर्टी बेचकर या अमेजॉन के जेफ बेज़ोस जैसे उद्यमियों की आर्थिक मदद से उस संकट को टालने में कामयाब रहे। इन्होंने डिजिटल माध्यमों का खुद भी अच्छा प्रयोग किया और उससे प्रतिद्वंद्विता करने की बजाए उसके साथ खड़े हो गए। न्यूयॉर्क टाइम्स और वाशिंगटन पोस्ट ने तो डिजिटल मीडिया में बहुत मजबूत उपस्थिति बना ली है। उन्होंने जिस तरह इस संकट का सामना किया, उसका अध्ययन और मीमांसा करने की ज़रूरत है क्योंकि इसके भीतर से मीडिया के भविष्य की कुछ चुनौतियों के जवाब मिल सकते हैं।
मैं वहाँ के प्रिंट मीडिया के सर्कुलेशन के आँकड़े देख रहा था। वहाँ के समग्र सर्कुलेशन में सन् 2003 से गिरावट होनी शुरू हुई थी जो सन् 2009 तक निम्नतम स्तर तक पहुँच गई थी। लेकिन एक साल बाद उसने फिर बढऩा शुरू किया और सन् 2013 में वह 2003 के स्तर पर लौट गई। यदि इन आंकड़ों पर दशक के लिहाज से नज़र डालें तो कहेंगे कि 2003 से 2013 तक अमेरिकी प्रिंट मीडिया की दस-वर्षीय वृद्धि दर लगभग 0.5 फीसदी रही। इससे जो संदेश निकलता है वह यह है कि डिजिटल मीडिया द्वारा पैदा किए गए जबरदस्त संकट के बावजूद और बड़ी संख्या में प्रकाशनों के धराशायी होने के बावजूद अमेरिकी प्रिंट मीडिया ने अपने आपको खड़ा रखने में कामयाबी हासिल की।
इस लिहाज से भारतीय मीडिया की मजबूती की तारीफ करनी चाहिए कि फिलहाल उसे ऐसी बड़ी कुरबानी नहीं देनी पड़ी। हालाँकि इसके दूसरे कारण भी थे, जैसे हमारे यहाँ इंटरनेट का उतना ज्यादा प्रसार न होना और इंटरनेट बैंडविड्थ की सीमाएँ। तकनीकी लिहाज से हमारा पिछड़ापन प्रिंट मीडिया के लिए डूबते को तिनके का सहारा सिद्ध हुआ। लेकिन क्या कोई इस बात की गारंटी ले सकता है कि भविष्य में भी प्रिंट मीडिया पर ऐसा कोई संकट नहीं आएगा? जिस तरह मोबाइल का प्रसार हुआ है और इंटरनेट कनेक्टिविटी के प्रभावशाली आंकड़े सामने आ रहे हैं, उसमें खबरों का वैकल्पिक माध्यम यानी डिजिटल मीडिया धीरे-धीरे अपने आपको मजबूत करता जाएगा। वहप्रिंट और टेलीविजन दोनों को चुनौती देगा।
डिजिटल मीडिया न सिर्फ इंटरएक्टिव है बल्कि वह पोर्टेबल भी है। वह अलग-अलग डिवाइस के लिहाज से रूप बदलने में सक्षम है, फिर चाहे वह टेलीविजन की बड़ी स्क्रीन हो या फिर कंप्यूटर की छोटी स्क्रीन। वह टैबलेट की आयताकार स्क्रीन हो या फिर मोबाइल फोन की लंबवत या वर्टिकल स्क्रीन। उसके लिए कोई सबस्क्रिप्शन प्लान लेने की जरूरत नहीं है। चाहिए तो सिर्फ एक अदद इंटरनेट कनेक्शन। ऊपर से पाठक को खुद पत्रकार बनने की आजादी देने की स्वाभाविक प्रवृत्ति एक किस्म की क्रांति को जन्म दे रही है।
हम इतिहास के उस दौर में हैं जहां खबरों और सूचनाओं के केंद्रीकृत नियंत्रण की व्यवस्था खतरे में है। शेन बोमैन और क्रिस विलिस ने कुछ साल पहले कहा था कि खबरों के चौकीदार के रूप में पारंपरिक मीडिया की भूमिका को सिर्फ तकनीक या प्रतिद्वंद्वियों से ही खतरा नहीं है बल्कि उसके अपने उपयोगकर्ताओं से भी है। क्योंकि न्यू मीडिया ने उपयोगकर्ता को सप्लायर भी बना दिया है। आज मैं कहूँगा कि लिविंग रूम के चौकीदार के रूप में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया या टेलीविजन के एकाधिकार को भी डिजिटल मीडिया से खतरा है।
आपने इसका उदाहरण पिछले दिनों देखा है। यू-ट्यूब पर वीडियो प्रोड्यूसरों की ऐसी जमात उभर रही है जो अपने कन्टेन्ट को ब्रॉडकॉस्ट करने के लिए टेलीविजन पर निर्भर नहीं है। नई तकनीकों ने वीडियो प्रॉडक्शन को बहुत सस्ता और आसान बना दिया है। क्या आपने ‘एआईबी’ या ऐब और ‘द वायरल फीवर’ के बारे में सुना है? ये कुछ ऐसे वीडियो निर्माता हैं जो एकदम नई किस्म का वीडियो कन्टेन्ट लेकर आ रहे हैं और उसे इंटरनेट के जरिए डिलीवर कर रहे हैं। इनकी लोकप्रियता भी आश्चर्यजनक तेजी से बढ़ रही है।
यहाँ एक उदाहरण काबिले गौर है। भारत में स्टार समूह की इस बात के लिए काफी तारीफ हो रही है कि उसने इंटरनेट का बहुत अच्छा इस्तेमाल किया है। खबर है कि विश्व कप क्रिकेट 2015 में भारत और पाकिस्तान के मैच का वीडियो जो स्टार समूह ने इंटरनेट पर अपलोड किया, उसे करीब 25 लाख लोगों ने देखा। स्टार ग्रुप को बधाई देने की जरूरत है। लेकिन जरा इसकी तुलना द वायरल फीवर और एआईबीजैसे ऑनलाइन वीडियो कन्टेन्ट निर्माताओं से कीजिए। हालाँकि वित्तीय आधार पर देखें तो दोनों के आकार में कोई तुलना हो ही नहीं सकती। एक भारत का सबसे सफल और सबसे बड़ा मीडिया समूह है और दूसरी तरफ चंद मरजीवड़े इंटरनेट-योद्धा। बहरहाल, इस महीने के शुरू में एआईबी के कुल वीडियो व्यूज़ 6.3 करोड़ तक जा पहुँचे थे। इतना ही नहीं, उसे दस लाख से अधिक इंटरनेट यूजर्स ने सबस्क्राइब कर रखा है। यानी एआईबी का हर वीडियो, जो यू-ट्यूब पर डाला जाता है उसे कम से कम दस लाख लोग तो देखेंगे ही इसकी गारंटी है।
क्या नए किस्म के वीडियो कन्टेन्ट का उभार पारंपरिक टेलीविजन के लिए खतरा बन सकता है या फिर ऐसा माना जाए कि वह अपने आप में एक अलग धारा है जो टेलीविजन को नुकसान पहुँचाए बिना अपने रास्ते पर चलती रहेगी। उसमें भी लोग कामयाब होंगे लेकिन टेलीविजन अपनी जगह पर मजबूती से जमा रहेगा। माफ कीजिए, मुझे लगता है कि बात उतनी सीधी-सरल नहीं है। यहाँ वीडियो के दर्शक और वीडियो कन्टेन्ट देखने का समय यानी व्यूइंग ऑवर्स टेलीविजन और इंटरनेट के बीच विभाजित हो रहे हैं। जो आदमी पहले टेलीविजन पर समय गुजारता था, वह अब अपना काफी समय मोबाइल फोन और इंटरनेट को देता है। और इस प्रक्रिया में टेलीविजन अपने व्यूइंग ऑवर्स खो रहा है।
इस परिघटना के कई पहलू हैं। पहला यह कि हमारे टेलीविजन चैनलों का कन्टेन्ट स्टीरियो टाइप यानी एकरसता-पूर्ण हो रहा है। मुझ जैसे बहुत से लोगों को सास बहू के सीरियलों में दिलचस्पी नहीं है और समाचार चैनलों के लिए हमारी क्षुधा या एपेटाइट सीमित है। हर शाम हम रिमोट लेकर भटकते रहते हैं कि देखें तो क्या देखें। महिलाओँ को छोड़कर एक बहुत बड़ा तबका है जो टेलीविजन की एकरसता से ऊब चुका है।
दूसरी तरफ इंटरनेट आधारित वीडियो कन्टेन्ट एकदम नई तरह का है- ताजा ताजा, फ्रैश और दिलचस्प। एकदम नई तरह की कॉमेडी, नई तरह के स्पूफ और प्रैंक.. जैसे कि ऐब या वायरल फीवर की तरफ से पेश कन्टेन्ट। अर्णब गोस्वामी और अरविंद केजरीवाल की नकल करते हुए द वायरल फीवर की तरफ से बनाया गया एक वीडियो जिसका नाम है Arnab’s Qtiapa, वह यू-ट्यूब पर करीब 50 लाख बार देखा जा चुका है। आखिरकार कहाँ से आ रहे हैं ये दर्शक? कुछ नए दर्शक हैं और कुछ टेलीविजन के दर्शक हैं। इस बात का अहसास इन वीडियो निर्माताओं को भी है कि वे टेलीविजन के दर्शकों को अपनी तरफ खींचने में सक्षम हैं। इसलिए उन्होंने अब पूरे के पूरे ऑनलाइन फिक्शन सीरियल बनाने शुरू कर दिए हैं। एक नई किस्म की वीडियो क्रांति के मुहाने पर खड़े हैं हम।
इसके तकनीकी पहलुओं पर भी गौर करना ज़रूरी है क्रोमकास्ट जैसे गैजेट्स, जो अब भारत में भी मौजूद हैं, उन्होंने ऑनलाइन वीडियो को टेलीविजन पर देखना बहुत आसान बना दिया है। बस अपने टेलीविजन के एचडीएमआई स्लॉट में पेन ड्राइव जैसा एक छोटा सा गैजेट घुसाइए और कंप्यूटर या टैबलेट पर चलने वाले तमाम इंटरनेट वीडियो तुरंत टेलीविजन पर चलने शुरू हो जाते हैं। अमेरिका में हूलू एक बेहद लोकप्रिय वीडियो स्ट्रीमिंग सर्विस है। वह इंटरनेट के जरिए कन्टेन्ट वितरित करती है जो टेलीविजन, कंप्यूटर, टैबलेट, वेबसाइट आदि पर देखा जा सकता है। नेटफ्लिक्स और अमेजॉन भी ऐसी ही सेवाएँ देते हैं। ये सेवाएँ बहुत लोकप्रिय हो रही हैं और धीरे-धीरे लोग टेलीविजन पर वीडियो कन्टेन्ट देखने के लिए भी इंटरनेट की तरफ बढ़ रहे हैं।
इन दिनों अमेरिकी टेलीविजन बाजार में बड़ा बदलाव चल रहा है। केबल टीवी या डीटीएच की पारंपरिक सेवाएँ बहुत महंगी हैं। नील्सन के एक सर्वे के मुताबिक आम अमेरिकी घर में औसतन 189 टेलीविजन चैनल उपलब्ध हैं जबकि वह उनमें से सिर्फ 17 को देखता है। यानी लगभग 90 फीसदी चैनलों के लिए दर्शक बेवजह भुगतान करता है। वक्त की कमी के साथ-साथ महंगे डीटीएच प्लान लोगों को केबल कनेक्शन छोडऩे पर मजबूर कर रहे हैं। इनके जवाब में इंटरनेट आधारित टेलीविजन स्ट्रीमिंग सेवाएँ लोकप्रिय हो रही हैं। वहाँ डिश टीवी की स्लिंग टीवी नामक सर्विस ऐसी ही है जिसमें सिर्फ 20 चैनल उपलब्ध कराए जाते हैं और उपभोक्ता का खर्च एक चौथाई से भी कम रह जाता है। हाल की खबर है कि एपल भी इस क्षेत्र में प्रवेश करने ज रहा है। उसका एपल टीवी और गूगल का गूगल टीवी इस तरह के कन्टेन्ट की इंटरनेट के माध्यम से डिलीवरी करने में सक्षम है। इस बात का जिक्र करना ज़रूरी है कि भारत में भी डिश टीवी और टाटा स्काई ने टीवी देखने के लिए एप्प जारी किए हैं लेकिन ये उन्हीं लोगों को उपलब्ध हैं जिनके पास अपने टेलीविजन के लिए बुनियादी डीटीएच कनेक्शन पहले से मौजूद है।
एक्सपेरियन मार्केटिंग सर्विसेज की एक रिपोर्ट के मुताबिक सन् 2010 में अमेरिका में 51 लाख लोगों ने केबल कनेक्शन छोड़ दिए थे। इसके तीन साल बाद का आंकड़ा है- 76 लाख। यानी पारंपरिक टेलीविजन को अलविदा करने वालों की संख्या हर तीन साल में 44 फीसदी की रफ्तार से बढ़ रही है। आप खुद सोच लीजिए कि वैश्विक स्तर पर हालात किस दिशा में जा रहे हैं?
मैं यह नहीं कहता कि टेलीविजन के लिए अस्तित्व के संकट जैसी कोई चीज़ आने वाली है लेकिन इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का कारोबार गंभीर रूप से प्रभावित हो सकता है। तकनीकी माध्यम सिर्फ दर्शकों को ही आकर्षित नहीं कर रहे, वे वहाँ चोट कर रहे हैं जहाँ दर्द ज्यादा होता है, यानी विज्ञापन। डिजिटल मीडिया ने प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के विज्ञापनों से एक बड़ा टुकड़ा काट लिया है। डिजिटल मीडिया का विज्ञापन मॉडल बहुत इनोवेटिव है और सच कहा जाए तो उसमें दर्शकों और विज्ञापनदाताओं दोनों का लाभ है।
इस मॉडल को समझने की कोशिश करते हैं। आप जानते हैं कि इंटरनेट से जुड़े हर कंप्यूटर या गैजेट की एक विशिष्ट पहचान होती है। इसे आईपी एड्रेस कहते हैं। इसी की बदौलत, किसी वेबसाइट पर कौन व्यक्ति किस जगह से विजिट कर रहा है, इसे जानना बहुत आसान है। दूसरे Big Data जैसी आधुनिक तकनीकें ऑनलाइन Users का और भी बहुत सारा ब्यौरा हासिल करने में सक्षम हैं, जैसे उनकी उम्र, पसंद-नापसंद, आय, लिंग आदि। ऑनलाइन विज्ञापनों को किसी खास वर्ग के दर्शकों की तरफ Target किया जा सकता है, जो टेलीविजन या अखबार के मामले में संभव नहीं है। इसमें विज्ञापनदाता का लाभ है क्योंकि उसे खास उन्हीं व्यक्तियों तक पहुँचने की सुविधा मिल जाती है, जिन्हें वह लक्ष्य बनाकर चल रहा है। मिसाल के तौर पर गोरेपन की क्रीम का विज्ञापन देने वाली कंपनी यह चाहेगी कि उसके विज्ञापन सिर्फ 30 साल से कम उम्र की युवतियों को ही दिखाए जाएँ। विज्ञापन वितरित करने वाला प्लेटफॉर्म यह सुनिश्चित कर सकता है कि यह विज्ञापन सिर्फ इसी वर्ग के दर्शकों को दिखाई दे, दूसरों को नहीं।
अब यू-ट्यूब का उदाहरण देखिए। वहाँ पर वीडियो के पहले विज्ञापन दिखाए जाते हैं लेकिन आपको यह तय करने की आजादी है कि आप किसी विज्ञापन को पूरा देखना चाहते हैं या पाँच सैकंड की अवधि के बाद उसे बंद कर मूल वीडियो पर ध्यान केंद्रित करना चाहते हैं। विज्ञापन दर्शक के काम का है तभी वह उसे देखेगा, अन्यथा आगे बढ़ जाएगा। यहाँ विज्ञापनदाता को तसल्ली है कि उसका विज्ञापन सिर्फ उन्हीं लोगों ने देखा जो उसका उत्पाद खरीदने में दिलचस्पी रखते हैं। उसे खर्चा भी सिर्फ उतने ही विज्ञापनों के लिए देना पड़ा। अगर यही विज्ञापन टेलीविजन पर आता तो भले ही कोई उसे देखे या नहीं, विज्ञापन की दर में कोई अंतर आने वाला नहीं था। दर्शक भी विज्ञापनों की झड़ी का शिकार होने के लिए अभिशप्त नहीं है, क्योंकि उसके पास चुनने की आजादी है।
ऑनलाइन माध्यमों पर विज्ञापनों की एक बेहद लोकप्रिय पद्धति है जिसे कहते हैं- Pay Par Click ! इसके तहत विज्ञापनदाता को विज्ञापन के प्रदर्शन के लिए पैसा नहीं देना होता बल्कि उसे तभी पैसा देना है जब किसी यूजर ने उसके विज्ञापन को क्लिक किया। यानी वह क्लिक करने के बाद विज्ञापनदाता की वेबसाइट या उसके उत्पाद के पेज तक पहुँचा। टेलीविजन या अखबार में ऐसी व्यवस्था कहाँ है? आप अनुमान लगा सकते हैं कि ऑनलाइन मीडिया की विज्ञापन प्रणाली विज्ञापनदाताओं के लिए ज्यादा लाभप्रद है। इतना ही नहीं, वह ज्यादा परिणामोन्मुखी भी है क्योंकि जब यूजऱ विज्ञापन पर क्लिक कर कंपनी के वेब पेज पर पहुँचता है तो वह वहीं पर उत्पाद के लिए ऑर्डर भी कर सकता है। दर्शक के खरीददार के रूप में कनवर्जन की दर यहाँ ज्यादा है। इसलिए अनायास नहीं है कि पश्चिमी देशों में विज्ञापनदाताओं के लिए ऑनलाइन मीडिया ज्यादा पसंदीदा विकल्प बन रहा है। देर-सबेर भारत में भी ऐसा हो सकता है।
एक महत्वपूर्ण रुझान जिस पर कम लोगों का ध्यान गया है, वह है समाचारों के क्षेत्र में तकनीकी कंपनियों की बढ़ती उपस्थिति। याद कीजिए शॉन बोमैन और क्रिस विलिस का वह बयान कि खबरों के गेटकीपर के रूप में पारंपरिक मीडिया की भूमिका खतरे में है। आज दुनिया में खबरों तक पहुँचने का सबसे बड़ा माध्यम अगर कोई है तो वह है गूगल न्यूज, और गूगल कोई मीडिया कंपनी नहीं है बल्कि तकनीकी कंपनी है। यही बात याहू और एमएसएन पर लागू होती है। भारत में रीडिफ और सिफी जैसी कंपनियों के पोर्टल खबरों के सबसे बड़े स्रोतों में माने जाते हैं और ये मूल रूप से मीडिया कंपनियाँ नहीं हैं बल्कि सूचना प्रौद्योगिकी और विज्ञापन कंपनियाँ हैं। नए मीडिया ने खबरों के क्षेत्र को सबके लिए खोल दिया है। इसमें फायदा किसका है और नुकसान किसका, इसका अंदाजा लगाना बहुत मुश्किल नहीं है।
डिजिटल माध्यमों की चुनौती टेलीविजन और प्रिंट दोनों के लिए समान है। वह आने वाले दिनों में और गंभीर हो सकती है। लेकिन इसे टालना संभव है। इसका सिर्फ एक तरीका है, खुद को नए दौर के अनुरूप ढालना और इनोवेशन या नएपन की तरफ कदम बढ़ाना। पारंपरिक मीडिया किस तरह नए मीडिया के साथ जुड़ सकता है, इसी में उसकी स्थायी कामयाबी निहित है। न्यूयॉर्क टाइम्स, वाशिंगटन पोस्ट और हमारा अपना टाइम्स ऑफ इंडिया समूह इसके अच्छे उदाहरण हैं। डिजिटल मीडिया की चुनौती तब चुनौती नहीं रह जाती जब हम उसके खिलाफ खड़े होने की बजाए उसके साथ खड़े हो जाते हैं और उसकी शक्तियों का अपने विकास के लिए इस्तेमाल करने लगते हैं।
जहाँ तक हिंदी मीडिया का सवाल है, हमने अपने डिजिटल इनोवेशन को ई-पेपर उपलब्ध कराने, अपने अखबार या टेलीविजन चैनल की वेबसाइट बना लेने और मोबाइल एप पर टीवी प्रोग्राम या खबरों की डिलीवरी करने तक सीमित रखा है। यह एक अच्छी शुरूआत जरूर है लेकिन पर्याप्त नहीं है। नए माध्यमों का दोहन करने के लिए नई सोच की जरूरत है।
इस दिशा में अच्छा काम करने वालों में मुझे दो-तीन समूह दिखाई देते हैं, जैसे टाइम्स ऑफ इंडिया समूह जो कन्टेन्ट के साथ-साथ सर्विसेज, ई-कॉमर्स और पारंपरिक मीडिया से स्वतंत्र एप्स में सक्रिय है। उसकी कुछ वेबसाइटें और पोर्टल बहुत ही अच्छा प्रदर्शन कर रहे हैं, जैसे- Magicbricks.com, Simplymarry.com और TimesJobs.com! उसके कई एप्स भी हैं जिनमें Gaana.com काफी लोकप्रिय है। नेटवर्क 18 समूह जो नई किस्म की वेबसाइटें और सेवाएँ लेकर आया है, इनमें compareindia.com, in.com और techw.com खास तौर पर उल्लेखनीय हैं। हिंदुस्तान टाइम्स समूह ने भी कुछ इनोवेटिव प्रयास किए, हालाँकि उसका goyi चल नहीं सका। आज भी उसकी एक Niche वेबसाइट Ushine.com मौजूद है जो ठीकठाक स्थिति में है।
एक अहम इनोवेशन जो इन दिनों देखने को मिला है, वह है स्टार इंडिया का हॉट स्टार। यह एक वीडियो स्ट्रीमिंग सर्विस है जो मोबाइल एप्लीकेशन और वेबसाइट के जरिए स्टार के लोकप्रिय कार्यक्रमों की स्ट्रीमिंग करती है। स्टार के सीईओ उदय शंकर इनोवेशन के लिए जाने जाते हैं और उन्होंने हमेशा अपनी नई सोच की छाप छोड़ी है। हॉट स्टार भी उनका भविष्योन्मुखी और बेहद इनोवेटिव कदम है जिसे बहुत ही सही मौके पर, यानी क्रिकेट विश्व कप के मौके पर लांच किया गया। यह स्टार के पारंपरिक टेलीविजन चैनलों के बजाए यह ऐप्प वैकल्पिक डिलीवरी माध्यम का इस्तेमाल करता है लेकिन परिणाम क्या है? स्टार समूह के लिए ज्यादा दर्शक तैयार करना। जो कार्यक्रम पहले ही प्रसारित हो चुके हैं उनके लिए नए दर्शक लाना और विज्ञापनों का भी नया प्लेटफॉर्म तैयार करना। लांच होने के एक महीने से भी कम समय में ‘हॉट स्टार’ के डाउनलोड का आंकड़ा एक करोड़ तक जा पहुँचा। जाहिर है, नवोन्मेष (इनोवेशन) तथा नए माध्यमों की समझ के जरिए उन्हें साथ लेकर चलना और अपने विकास के लिए इस्तेमाल करना असंभव नहीं है। .. और संभवत: यही परस्पर सह-अस्तित्व का रास्ता भी है।