नीरेन कुमार उपाध्याय*
विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका भारतीय लोकतंत्र के तीन स्तम्भ हैं। भारत के संविधान में भी इनकी शक्तियों और अधिकारों के बारे में स्पष्ट विवरण लिखित है। आजादी के पहले और आजादी के बाद भारत की व्यवस्था की धुरी बनी राजनीति और राजनीतिक दलों ने सत्ता को शक्ति का केंद्र बनाया। पत्रकारिता वैचारिक और राजनीतिक परिवर्तन का माध्यम बनी। आजादी के पूर्व पत्रकारिता एक मिशन थी। आजादी के बाद पत्रकारिता एक व्यवसाय का रूप ले चुकी है।
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19-1-क में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता अंतर्निहित है।1 आज प्रेस की आजादी की मांगे उठने लगीं हैं। स्वनियमन की बातें भी खूब हो रही हैं। प्रेस की आजादी आवश्यक है लेकिन कुछ संवैधानिक बंधनों के साथ। कुछ मामलों में मीडिया की अति सक्रियता जज की भूमिका सी लगती है। मीडिया ट्रायल पक्षकारों पर मानसिक दबाव का हथियार बन गया है।
पत्रकारिता जबसे उद्योग बना तबसे पत्रकारिता में सरस्वती का स्थान लक्ष्मी ने ले लिया। कलम पैसे की खनक के आगे झुकने को मजबूर है। वर्तिका नंदा ने कहा है कि, ”पत्रकारिता को पूरी तरह से उत्पादन बनाते ही जनतंत्र में पत्रकारिता का मूल मकसद कहीं पानी में घुल सा जाता है और धीरे-धीरे जनता का विश्वास खो जाता है।”2 वरिष्ठ पत्रकार स्वद्घ प्रभाष जोशी ने जब मीडिया के अंदर पैसे लेकर खबर छापने (पेड न्यूज) का विरोध शुरू किया तो मीडिया दो खेमों में बंटी नजर आने लगी थी। पत्रकार अमलेंदु उपाध्याय के अनुसार, ”क्या यह सही नहीं है कि अब मीडिया के क्षेत्र में बिल्डर, चिटफंड कम्पनियां और तस्कर उतर रहे हैं।”3 प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया के सदस्य परंजॉय गुहा ठकुरता ने पेड न्यूज पर कहा कि, ”विगत वर्षो में सूचनाओं और विचारों को रोपने के बदले में नकद या कृपा प्राप्त करना भारतीय मीडिया का भ्रष्टाचारी रूप है, जिसे पत्रकारों और मीडिया संगठनों ने आगे बढ़ाया। भ्रष्टाचार को सुव्यवस्थित और संस्थागत रूप से समाचारपत्र और टेलीविजन चैनल, सूचनाओं को व्यक्तियों या बड़ी हस्तियों के पक्ष में छद्मवेश में दिखने वाली खबर के रूप में प्रकाशित या प्रसारित करने के लिए धन लेते हैं।”4 आज विज्ञापन एक उद्योग का रूप ले चुका है। विश्व बाजार में विज्ञापन उद्योग में 3.5% गिरावट के संकेत मिले, जबकि भूमंडलीकरण से भारतीय विज्ञापन उद्योग को काफी लाभ हुआ। भारतीय विज्ञापन उद्योग 12.5% की बढ़ोत्तरी पर रहा। आज भारतीय परिप्रेक्ष्य में और वैश्विक स्तर पर भी इस बात को स्वीकार कर लिया गया है कि विज्ञापन मीडिया की रीढ़ है।5 मीडिया विशेषज्ञ मैक्चेस्ने के अनुसार, ”भारत की आधी से ज्यादा जनसंख्या भले ही भूमंडलीय मीडिया बाजार के अनुपयुक्त है और कई पीढिय़ों तक इसी तरह अनुपयुक्त बनी रहेगी, मगर भारत में अकेले 25 करोड़ आबादी मध्यम वर्ग की परिधि में आती है। यही आबादी इस बाजार को फैलाव का रास्ता देता है। यही कारण है कि पिछले 10 वर्षों में भूमंडलीय मीडिया ने इसी वर्ग को अपने से जोडऩे में अपनी ऊर्जा खर्च की है।”6 वैश्वीकरण और उदारीकरण के दौर में विज्ञापन आधुनिकता तथा बाजार संस्कृति की अभिव्यक्ति के रूप में उभर कर सामने आयी है। आज बिना विज्ञापन के व्यापार के बार में सोचना असम्भव है। पश्चिमी व्यंग्यकार और समाजशास्त्री ब्रिट के अनुसार, ”बिना विज्ञापन किये व्यापार करना किसी खूबसूरत लड़की को अंधेरे में आंख मारने के समान है। अंधेरे में तुम जानते हो कि तुम क्या कर रहे हो, लेकिन दूसरा कोई कुछ नहीं जानता। अत: सम्भावित लाभ नहीं होता। बिना विज्ञापन के किसी उत्पाद की जानकारी समाज तक पहुंचाकर बेचना अब असम्भव सा है।”7
प्रिंट मीडिया में भी आर्थिक लाभ का मूल स्रोत विज्ञापन ही है, जिससे इसका चरित्र बदला है। सम्पादकीय प्रभावित हो रहे हैं।
सेबी (SEBI) ने भारतीय प्रेस परिषद् को एक पत्र लिख कर मीडिया कम्पनियों और उद्योगपतियों के बीच वैयक्तिक संधियों की सार्वजनिक घोषणा करने के लिए सुझाव दिया, साथ ही प्रेस परिषद् से निवेशकों के लिए अवैधानिक सुरक्षा घेरे के सन्दर्भ में एक दिशा-निर्देश जारी करने को कहा, जिसे प्रेस परिषद् ने 1996 में बनाया। पेड न्यूज का चलन 2009 से अधिक देखने को मिल रहा है। चुनाव लड़ रहा प्रत्याशी चुनाव आयोग की खर्च सीमा से बचने के लिए राजनीतिक खबरें पैसे दे कर छपवाता है। सम्बंधित समाचार पत्र या समाचार चैनल पेड न्यूज के लिए पैसे लेकर अपनी कम्पनी के बही खाते में दर्ज नहीं करते हैं। मीडिया द्वारा इस प्रकार का गलत काम अपनी सीमाओं को लांघता हुआ देश भर में छोटे-बड़े हिन्दी, अंग्रेजी व अन्य भारतीय भाषाओं के समाचार पत्रों व चैनलों तक पहुंच चुका है। इस प्रकार का अवैधानिक कार्य अब संगठित रूप ले चुका है, जिसमें विज्ञापन एजेंसियां, जनसम्पर्क फर्म के अलावा मीडिया मैनेजर, मीडिया संस्थान के मैनेजर, पत्रकार और मीडिया उद्योग भी शामिल है। पेड न्यूज के चलन ने मीडिया बाजार में दो शब्दों को जीवंत कर दिया है- रेट कार्ड व पैकेज। इन दोनों के अनुसार प्रत्याशी की न केवल प्रशंसात्मक खबर छापी या प्रसारित की जाती है बल्कि विरोधी नेता के बारे में आलोचनात्मक टिप्पणियां भी शामिल की जाती हैं।
पेड न्यूज की परिस्थिति ने भारतीय समाज के बहुतेरे लोगों का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट किया है। उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी, लालकृष्ण आडवाणी और अमिताभ बगान आदि जैसे अन्य लोगों ने पेड न्यूज पर अपनी चिंता प्रकट की है। आनंद प्रधान ने अपने एक लेख में कहा है कि, ”चुनावों में पार्टियों और उम्मीदवारों से पैसा लेकर खबरें छापी जा रही हैं। पाठकों के साथ विश्वासघात किया जा रहा है। क्योंकि उन्हें पता ही नहीं है कि चुनाव की जो रिपोर्ट वह पढ़ रहे हैं, वह वास्तव में किसी प्रत्याशी या पार्टी से पैसा लेकर लिखी गई है।”8 स्वनियमन यदि कानूनी रूप धारण कर भी ले तो यह कैसे सम्भव है कि वह पारदर्शी होगा। प्रश्न यह उठता है कि, पेड न्यूज जैसी बीमारी से कैसे छुटकारा पाया जाए या इसे ऐसे ही चलते रहने के लिए छोड़ दिया जाये। अब मीडिया की आचार संहिता और मूल्यों की पत्रकारिता की बात करना औचित्यहीन लगता है। इन समस्याओं से पत्रकारिता को बचाने के लिए अनुभवी पत्रकारों का मार्गदर्शन समीचीन होगा। प्रेस परिषद् की शक्तियां कम हैं, वह दण्ड नहीं दे सकती। एक उपाय यह हो सकता है कि पेड न्यूज को देखने के लिए एक सक्षम अधिकारी नियुक्त किया जाए। ओम्बुड्समैन व्यवस्था लागू की जाये। वरिष्ठ पत्रकार मार्क टुली ने वर्ष 2007 में एक बातचीत में कहा था, ”अगर पत्रकारिता को बचाना है तो पत्रकारिता के पुराने सिद्धांत के अनुसार काम करना पड़ेगा। प्लांटेड स्टोरी नहीं छापनी होगी। किसी भी समस्या के उत्पन्न होने पर एकता बनाकर साथ-साथ लडऩा होगा। अगर आज के पत्रकार अपनी जिम्मेदारी को सही रूप में समझ लें तो निश्चित रूप से पत्रकारिता की गुणवत्ता बढ़ेगी, इसके साथ ही मैं एक चीज कहना चाहूंगा कि इलेक्ट्रानिक मीडिया को अपने में ही सुधार लाने की आवश्यकता है अगर वे इसी प्रकार की खबरें प्रसारित करते रहे तो भविष्य में खबर की विश्वसनीयता बनाये रखना मुश्किल हो जायेगा।”9 प्रभाष जोशी के अनुसार, ”पत्रकारिता किसी मुनाफे या खुशी के लिए नहीं बल्कि पत्रकारिता लोकतंत्र में साधारण नागरिक के लिए एक वह हथियार है जिसके जरिये वह न्यायपालिका, विधायिका और कार्यपालिका की निगरानी करता है। अगर पत्रकारिता नष्ट होगी तो हमारे समाज से लोकतंत्र में निगरानी रखने का तंत्र नष्ट हो जायेगा।”10
सन्दर्भ ग्रंथ-
- डी. डी. बसु – भारत का संविधान
- मीडिया विमर्श- जनवरी-मार्च 2011
- हस्तक्षेप डॉट कॉम- 24 नवम्बर 2011
- परंजॉय गुहा ठकुरता का लेख- पेड न्यूज हाउ करप्शन इन द इंडियन मीडिया अंडरमाइंस डेमोक्रेसी, मार्च 10, 2010
- कुमुद शर्मा- भूमंडलीकरण और मीडिया, पेज 12
- रॉबर्ट मैक्चेस्ने- द ग्लोबल मीडिया, न्यू मि नरीज ऑफ कारपोरेट कैपिटलिज्म
- कुमुद शर्मा- भूमंडलीकरण और मीडिया, पेज 140
- आनंद प्रधान का लेख- कारपोरेट, मीडिया और जनता के सवाल
- google.com
- प्रभात खबर ई पेपर- जून 13, 2009 पटना संस्करण