दीपक गुणपाल कुण्णूरे*
भारत में जैन पत्रकारिता की शुरूआत सन् 1880 में जयपुर में ‘जैन पत्रिका’ से हुई। पहले इसका प्रकाशन हिंदी भाषा में किया गया। चार साल बाद सन् 1884 में शेठ हिराचंद ने सोलापुर से ‘जैनबोधक’ की शुरूआत कर महाराष्ट्र में ‘जैन पत्रकारिता’ की नींव रखी। जैन पत्रकारिता का इतिहास 134 साल पुराना है। जैन पत्रकारिता हिंदी, मराठी, कन्नड़, गुजराती, तमिल आदि प्रमुख भाषाओं में पाई जाती है। प्रस्तुत शोध-निबंध में ‘जैनबोधक’ पत्रिका में अहिंसा तत्त्व को कितना महत्त्व दिया है, यह जानने के उद्देश्य से सन् 2011 में प्रकाशित अंकों का अध्ययन किया है। इसमें अलग-अलग लेखकों ने अहिंसा तत्त्व को लेकर अपने मत प्रकट किए हैं। अंतत: 19 अंकों के आशय विश्लेषण के आधार पर निष्कर्ष की चर्चा की है।
जन संचार केन्द्र, राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर के डॉ. संजीव भानावत ने ”सांस्कृतिक चेतना और जैन पत्रकारिता” (1990) ग्रंथ में जैन पत्रकारिता का तीन कालखंडों में विभाजित किया है। प्रथम युग सन् 1880 से 1900 तक, द्वितीय युग सन् 1901 से 1947 तक और तीसरा युग स्वतंत्रता के बाद की जैन पत्रकारिता।
पश्चिम महाराष्ट्र में जैन पत्रकारिता :
महाराष्ट्र में गुजरात, राजस्थान, हरियाणा, दिल्ली आदि अन्य राज्यों के मुकाबले जैन समाज की आबादी सबसे अधिक है। यहां के 70 प्रतिशत जैन मुख्य रुप से कृषक हैं। वर्ष 2001 की जनगणना के अनुसार कोल्हापुर जिले कि जनसंख्या 35,23,162 हैं। इनमें से 1,47,285 जैन हैं और सांगली में कुल 25,83,524 जनसंख्या में से 85,160 जैन हैं। महाराष्ट्र से प्रकाशित प्रमुख जैन पत्र-पत्रिकाओं में जैन बोधक (1884 सोलापुर), जैनमित्र (1900 मुंबई), जैनहितेच्छु (1901 मुंबई), श्री जिनविजय (1902 सांगली) और प्रगती (1907 कुरुंदवाड़, कोल्हापुर) आदि हैं। 1912 में प्रगति और जिनविजय यह पत्रिकाएँ ‘प्रगति आणि जिनविजय’ इस नाम सें प्रकाशित की गई। यह द. भारत जैन सभा का मुख्यपत्र है।
जैनबोधक :
जैनबोधक पत्रिका में आरंभ से अब तक सामाजिक, शैक्षिक, धार्मिक, सांस्कृतिक आदि विषयों को प्रमुखता दी जा रही है। जैनबोधक में आध्यात्मिक, पौराणिक कहानियाँ, देव-शा-गुरू, श्रावक आचरण, भक्ष-अभक्ष, संगीत, क्षेत्र-परिचय, कविताएँ, व्यक्ति विशेष, साहित्य-समीक्षा, स्त्री आंदोलन (महिला विशेषांक, 8 मार्च), आरोग्यमंत्र, रुचिरा, वार्ता आदि अनेक विषयों पर लेखन प्रकाशित होता है। 130 सालों के इतिहास में विभिन्न संकटों के बावजूद ‘जैनबोधक’ पत्रिका का प्रकाशन अविरत रूप से जारी है। शुरूआत में यह कृष्णधवल था, लेकिन वर्तमान में यह पत्रिका रंगीन है। ऑफसेट कलर अत्याधुनिक मशीन का इस्तेमाल होता है। ‘जैनबोधक’ विदेशों में भी, ई-पत्र द्वारा लोगों तक पहुँचा है। इसका प्रकाशन मराठी और हिंदी में होता है। इसे अब गुजराती और कन्नड़ भाषाओं में आर.एन.आय. (RNI) की मान्यता मिली है। जैनबोधक ने (ISSN-2229-5852-JAINBODHAK) नामांकन प्राप्त किया है। कन्नड़ भाषाओं में आर.एन.आई. (RNI) की मान्यता मिली है। सोलापुर से ‘जैनबोधक’ पाक्षिक 24 पन्नों का प्रकाशित होता है। लेकिन अप्रैल का भ. महावीर और आ. विद्यानंदजी महाराज जयंती विशेषांक, संयुक्तांक 52 पन्नों का प्रकाशित किया है। अक्तूबर का संयुक्त अंक ‘राष्ट्रीय वर्ष-दीपावली 52 पन्नों का प्रकाशित किया। अप्रैल और अक्तूबर का 52 पन्नों का संयुक्तांक निकाला गया। इसे 18cm x 24cm में अकार में इसका प्रकाशन किया गया।
‘जैनबोधक’ में अहिंसा तत्त्व
जनवरी 2011 :
सोलापुर के डॉ. प्रकाशचंद्र खड़के का मतानुसार भारत की उज्वल परंपरा आदर्श संस्कृति को अहिंसा, संयमी जीवन जीने और अनेकांत तत्त्व मिल एक देन है। हजारों वर्ष पूर्व जैनदर्शन में पर्यावरण की रक्षा के लिए ‘कायिक’ जीवों की भी निंदा नहीं होनी चाहिए। म. गांधीजी ने अपने जीवन में अहिंसा और सत्य यह तत्त्व जैन धर्म से ही लिए हैं। अहिंसा में कितना सामर्थ्य हैं, यह विश्व को उन्होंने दिखाया है। सन् 1993 में शिकागो में दूसरा विश्वधर्म सम्मेलन हुआ। उसमें जैन प्रतिनिधि वीरचंदभाई गांधी, डॉ. नरेंद्र पी. जैन शामिल हुए थे। दूसरे विश्वधर्म सम्मेलन में अहिंसा और नैतिकता को प्रमुख स्तंभ के रूप स्वीकारा। जीवन में अहिंसा, सत्य आदि को महत्त्वपूर्ण स्थान देकर विश्वासपात्र आचरण रखना जरूरी है।
फरवरी 2011 :
शोभा शहा (मुंबई) ने कहा है ”जैनधर्म में पंचकल्याण महत्त्वपूर्ण है। उसमें गर्भकल्याण को अनन्यसाधारण महत्त्व है। गर्भसंस्कार से धर्मवृद्धि होगी। भ्रूण हत्या महापाप है। भगवान महावीर, बुद्ध, गांधी के अहिंसावादी देश में निरपराध बालकों की हत्या गर्भ में हो रही है।”1 संपादकीय में डॉ. महावीरशास्त्री जी ने लिखा है – ‘धर्म मंगल है। जो धर्म अहिंसा, संयम और तपाचरण करने का उपदेश देता है। वह धर्म मंगल है।’
मार्च 2011 :
महिला विशेषांक के रूप में प्रकाशित इस अंक में अहिंसा तत्त्व पर लेख नहीं है।
अप्रैल 2011 संयुक्तांक :
महावीर जयंती, आ. विद्यानंद जी की जयंती के अवसर पर ‘जैनबोधक’ का 58 पन्नों का संयुक्तांक प्रकाशित किया गया। इसमें अहिंसा तत्त्व पर छह लेख प्रकाशित है। इनमें सांगली के डॉ. अजित पाटील, वासीम की सुखदा हरसुले, अमरावती की वसुधा कस्तुरीवाले, प्रा. वर्धमान संगई तथा शोभा शाह के लेख मुख्य रूप से भ. महावीर के अहिंसा तत्त्व तथा उसे एक जीवन मूल्य के रूप में प्रस्तुत करते हुए प्रमुख रूप से प्रकाशित हुए हैं।
मई 2011
इस अंक में नासिक की मीना गरिबे (जैन) का जैन जीवन में भोजन करने संबंधी वैज्ञानिक पद्धति का विवेचन किया है।
जुलाई 2011
‘सर्वधर्म समभाव’ क्रिश्चन, बौद्ध, हिंदू, मुस्लिम, जैन इन पांच धर्मों में अहिंसा तत्त्व पर चर्चा की है। सांगली के डॉ. अजीत पाटील लिखते है, ‘सर्वधर्म का सार-सत्य, अहिंसा, क्षमा और सदाचार का आचरण है।’
क्रिश्चन धर्म- डॉ. फादर फ्रान्सिस दिब्रिटी : जीवों प्रति मैत्रिभाव, करुणा यह धर्म है। कोई भी हत्या निंदनीय है।
बौद्ध धर्म – श्री. एम. एस. मोहिते : सिद्धार्थ गौतम का धम्म निवृत्ति मार्ग धर्म है।
हिंदू धर्म – डॉ. प्रभाकर पुजारी : हिंदू धर्म वैदिक, सनातन है। प्रत्येक जीव ईश्वर का अंश है। जीवन जीने का अधिकार, स्वातंत्रता सबको है।
मुस्लिम धर्म – डॉ. सयद पारनेकर : जो इस्लाम पर श्रद्धा रखकर आचरण करता है वो मुस्लिम है। पैगंबर कहते हैं सब एक माँ-बाप के संतान है। नीतिवान, सत्यप्रीय है, वही मुस्लिम है।
जैन धर्म – डॉ. अजीत पाटील : जैन शब्द ‘जिन’ से बना है। इंद्रियों पर विजय प्राप्त करना है। वही जैन है। चार घाति कर्म का नाश करते हैं। वह अरिहंत हैं जैन धर्म व्यक्ति पूजक नहीं गुण पूजक है। सत्य, अहिंसा, क्षमा, शांति यह सब धर्मों का मूलभूत तत्त्व है। उनको समझ लेना जरुरी है।
अगस्त 2011 :
जैनों का शाकाहार – दुष्कृत्य कम करने का मार्ग : दिल्ली की मेनका गांधी ने लिखा है – ‘मैं जन्म से सिक्ख हूँ। पर मैं जैन हूँ ऐसा लगता है। जैन धर्म की मान्यतानुसार प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष हत्या करना एक प्रकार की हिंसा है।’
सितंबर 2011 :
जैनों की पांचसूत्री आचारसंहिता : पुणे के प्रा. सुभाषचंद्र शहा कहा है -‘वर्तमान में सभी इकाइयों की दृष्टि से अहिंसा से ही पर्यावरण की रक्षा संभव है। अहिंसा दया का ही एक अंग है। जैन साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविकाएँ कड़ाई से पालन करते है।’
अक्टूबर 2011
दीपावली का पौष्टिक आहार – जैन आहार : सोलापुर के डॉ. प्रदीप नांदगावकर ने कहा है कि भक्ष-अभक्ष आहार कि मर्यादा देखकर अलग-अलग पदार्थ बनाए जाते हैं।
भगवान महावीर के अहिंसा विचार की विश्व स्तर पर आवश्यकता : नासिक की मीना गरिबे (जैन) लिखती है – ‘समता सर्वभूतेषु’ पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति यह जीव हैं। भगवान महावीर ने विश्व को इससे अवगत कराया है। हिंसा पर रोक लगाने पर ही विश्व को प्रदूषण, तापमान वृद्धि से बचाया जा सकता है।’
सामाजिक दृष्टि से भगवान महावीर : अमरावती के आदिकुमार बंड की काव्य पंक्ति है –
हिंसा और अहिंसा की परिभाषा मुझ को आती।
काटना शिश अहिंसा, झुकना हिंसा सिखाती है।
अहिंसा तत्व में पटाखें भी बाधा : सोलापुर के डॉ. चंदना शहा का मानना है – ‘पटाखों से ध्वनि और हवा प्रदूषण होता है।’
निष्कर्ष :
महाराष्ट्र के सोलापुर जिले से प्रकाशित जैन पत्रिका ‘जैनबोधक’ के 2011 में प्रकाशित 19 अंको का विश्लेषण प्रस्तुत शोध-कार्य में किया है। निष्कर्षत: हम कह सकते हैं कि महाराष्ट्र के जैन पत्र और पत्रिकाओं में ‘जैनबोधक’ का अपना अलग महत्त्व है। यह पत्रिका वर्ष 1884 से अब तक निरंतर प्रकाशित हो रही है। जैनबोधक में अहिंसा तत्त्व का प्रमुखता से विश्लेषण किया है। साल के कुल 19 अंको में अहिंसा पर 52 लेख प्रकाशित हुए हैं। जैनबोधक के हर अंक में 14 लेख प्रकाशित होते हैं। 2011 के 19 अंकों में कुल लेखों की संख्या 266 हैं। इनमें से अहिंसा तत्वों पर आधारित लेखों को 20 प्रतिशत स्थान दिया गया हैं। जैन धर्म का मूल सूत्र ‘अहिंसा’ है और जैन लोंगों के आचार-विचार में इस तत्त्व का काफी प्रभाव है। अंतत: हम कह सकते है कि ‘जैनबोधक’ पत्रिका का अहिंसा तत्त्व के प्रचार एवं प्रसार में अहम योगदान है।
संदर्भ
- रा.के. लेले, मराठी वृत्तपत्रांचा इतिहास, प्रकाशक कौन्स्टिनेवल प्रकाशन, पुणे 30, पृ.क्र. – 19
- डॉ. संजीव भानवत, सांस्कृतिक चेतना और जैन पत्रकारिता, प्रकाशक सिद्धश्री प्रकाशन, जयपुर संस्करण, 1990
- मिश्र कृष्णबिहारी, हिंदी पत्रकारिता, प्रकाशक भारतीय ज्ञानपीठ, दुर्गाकुंड मार्ग, वाराणसी- 5, प्र. संस्करण 1968, पृ.क्र.- 370
- जैनबोधक, अंक 2011
- संगवे विलास, आद्य पत्रकार हिराचंद नेमचंद
- संगवे विलास, जैन जागृतीचे जनक हिराचंद नेमचंद, प्रकाशक श्री भाऊसाहेब गांधी, सेक्रेटरी, श्री ऐल्लक पन्नालाल दि जैन पाठशाला ट्रस्ट बालीवेस, सोलापुर