जिनेश कुमार*
भारत बहुभाषाओं व संस्कृतियों का देश है। मंदिरों में घंटा-घडिय़ाल की गूंज हो या मस्जिदों में अजान और गुरूद्वारों में शबद-कीर्तन, सभी परम्परागत और लोकमाध्यमों की ही तो देन हैं। हम घंटा-घडिय़ाल की गूंज, अजान और शबद-कीर्तन की आवाज से यह पता लगा लेते हैं कि इतना समय हो गया। उठो, चलें।
राजाओं के काल से चली आ रही मुनादी आज भी प्रचलित है। पंचायत की बैठकें हों या अन्य अवसर, मुनादी कर लोगों को जानकारी दी जाती है। किसी जमाने में जब लोग पढ़े-लिखे नहीं होते थे। पंडित जी विशेष व उच्च वर्ग के यहां ही पूजा-पाठ कराते थे। यजमानी करते थे। जन्मपत्री से लेकर आमंत्रण-पत्र तक लिखने व देने का जिम्मा उठाते थे। ऐसे समय में इनसे वंचित लोग विभिन्न अवसरों पर हाथ से लिखे आमंत्रण पत्र की जगह, हल्दी या इलायची देकर ही काम चला लेते थे। हालांकि अब यह परम्परा धीरे-धीरे खत्म हो चुकी है, परन्तु अभी भी उत्तर भारत के अधिकांश क्षेत्रों में देखी जाती है।
गोदना की प्रथा हमारी परम्पराओं की देन है। साथ ही लोक माध्यम भी। गोदना गीत भी प्रचलित हैं। स्त्री के हाथ, नाक, ललाट, पैर या अन्य भागों में गोदे गये गोदना से उसके शादीशुदा होने का प्रमाण तो मिलता ही है, साथ ही क्षेत्र विशेष और अन्य संस्कृतियों व कलाओं का ज्ञान भी होता है। इस तरह न जाने कितनी लोककलाएं परम्परागत रूप में आज भी विद्यमान हैं। ‘लोककलाओं ने हमारी निरक्षर जनता का मनोरंजन ही नहीं किया, उसे विचारवान और सचेत भी बनाया। यहां एक चकित कर देने वाली विडम्बना उल्लेखनीय है कि भारत में सदियों तक दृश्यकलाओं के माध्यम से ज्ञान और मनोरंजन के संचार का जो कार्य मौखिक और चित्रकथाओं द्वारा किया जाता रहा, वह टेलीविजन के कारण उसी प्रारंभिक बिन्दु पर आ पहुंचा है। किस्सागोई से माध्यम से भी अपरिमित ज्ञान मिलता था। दूसरी बात यह कि ईसा पूर्व लगभग 1000 वर्ष से आज तक संवाद का यह माध्यम निरंतरा लिये हुए है।’-(उत्तर आधुनिक मीडिया तकनीक, लेखक हर्षदेव, अध्याय-संचारतंत्र का विकास, पृष्ठ संख्या 11-12)
कभी गांवों में खड़ी बिरहा का प्रचलन था। चरवाहे कान में अंगुली डालकर सीवान में ंपशुओं को चरा रहे दूसरे गुट के चरवाहों से इसी के जरिये सवाल-जवाब करते थे। उनके ज्ञान का पता लगाते थे। आज यह बिरहा परिष्कृत रूप में है। मंच लगाकर विभिन्न संगीतों का समावेश कर इस बिरहा को गाया जाता है, जिसे मूर्ख भी समझ सकें। आख्यानों के ज्ञान प्राप्त कर लोगों को सुना सकें। बच्चे के पैदा होने से लेकर विवाह आदि तक के मंगल गीत किसको आकर्षित नहीं कर लेते हैं। यदि यह गीत न हो तो गजब की उदासी देखने को मिलती है। यह गीत हमारे अन्दर राष्ट्रीयता से लेकर कई कामों में विचित्र भाव जगाते हैं, जानकारी देते हैं। जैसे-
प्रन्द्रह अगस्त शुभ दिन आइल। देसवा आजाद भईल हो।।
ललना घर-घर बाजे बधइया। नेहरू परधान भइलं हो।।
इस तरह न जाने कितने मंगलगीत हमारे यहां प्रचलित हैं व गाये जाते हैं। इनसे लोग जानकारी हासिल करते हैं। विवाह के समय गाली रूप में गाये जाने वाले गीत कितने मनोहारी लगते हैं, अश्लीलता के बावजूद भी कितना प्रेम झलकता है, इसे आज भी देखा जाता है। इसी प्रकार नवरात्र में देवी गीत, कजरी, होली, चैता, बारहमासा आदि हमारी परम्पराओं की ही तो देन हैं। यह आज के समाज में सशक्त माध्यम के रूप में मौजूद हैं। इन गीतों ने आजादी की लड़ाई के समय में भी जोश भरा। लोगों में उत्साह का संचार किया।
लोककलाओं को भी जनमाध्यम के रूप में जाना जाता है। आलेख या चित्रकारी की कला को राजदरबारों ने संरक्षण दिया, जो आज भी विद्यमान हैं। अहोई अष्टमी, गणेश चतुर्थी, नवरात्र, लक्ष्मीपूजन, रक्षाबंधन आदि अवसरों पर गेरू, खडिय़ा व रंगों से जो भित्ति चित्र बनाये जाते हैं, यह वर्षों से आ रही परम्परा की ही देन हैं। इसमें बहुत से संदेश छिपे होते हैं। चौक, वेदी भी इन्हीं की कड़ी में आते हैं। डा. जयनारायण कौशिंक के अनुसार ‘नारियल उद्योग भी लोककला का सुन्दर उदाहरण है। नारियल से सुन्दर प्याले, हुक्के आदि का निर्माण होता है। इसकी जटा से पायदान आदि बनते हैं। यह कला मुख्य रूप से केरल में त्रिवेन्द्रम, अरिंगल और नैयाटिनकाएं में विकसित हुई है।’ श्री कौशिक ने कहा है कि – ‘शंख पर आधारित कला का विकास काफी तेजी से हो रहा है।……….. आजकल शंखों से अनेक प्रकार के आभूषणों का निर्माण हो रहा है। ये आभूषण पवित्र और मंगलकारी माने जाते हैं। एक कथा के अनुसार जिस समय दुर्गा राक्षसों का वध करने जा रही थीं, उस समय जल के देवता वरुण ने उन्हें शंख और शंख निर्मित आभूषण भेट किए थे। आज भी दुर्गा अपने हाथ में शंख धारण करती हैं।’-(जनसंचार, सम्पादक-राधेश्याम शर्मा, लेख-जनसंचार में कलाओं का योगदान, लेखक, जयनारायण कौशिक, पृष्ठ संख्या-249),
पहेली की परम्परा आदिकाल से चली आ रही है, जो हमें भिन्न तरह की जानकारी देती है। बच्चों को दादी मां की लोरी अतिप्रिय हैं। यह उन्हें क्षण भर में आकर्षित करते हुए प्रमुदित कर देती हैं। लोरियों में गजब का मर्म छिपा होता है, जिसे रो रहा बच्चा ही पहचान सकता है। तभी तो वह हंस पड़ता है। अन्त्याक्षरी, धार्मिक दोहे आदि भी हमारी परम्परा की देन हैं। जैसे –
अजा सेहली ताहि रिपु, ता जननी भरतार,
तके सुत के मीत को भज लो बारंबार,
(यहां अजा सहेली भेड़ है और रिपु अर्थात दुश्मन ‘भुरट’ नाम का कांटा है। उसकी जननी भूमि है, उसका भरतार यानी पति इन्द्र है, इन्द्र का पुत्र अर्जुन है और उसका मित्र है कृष्ण, जिसकी आराधना करनी चाहिए)
उपर्युक्त पहेली को विस्तृत रूप में समझने के लिये अत्यधिक समय की जरूरत है। दो पक्तियों में न जाने कितने भाव छिपे हैं। मूर्तिकला, काष्ठकला, वस्त्रकला, धातुकला आदि हमारे पारंपरिक ज्ञान की धरोहर हैं। हमें इनसे क्षेत्र विशेष के अतिरिक्त संस्कृतियों का ज्ञान होता है। यह कलाएं जीवन्त सी लगती हैं। लोककथाएं, कठपुतली नृत्य आदि हमारे पारम्परिक माध्यमों की धरोहर हैं। इस तरह हमारे देश में परम्परागत व लोक माध्यमों का अद्भुत संसार है, जो सदियों से विद्यमान है। किसानों और ग्रामीणों में घाघ की कहावतें आज वैज्ञानिक युग में भी प्रचलित हैं। मौसम की भविष्यवाणी या अन्य, इसमें घाघ की कहावतों का विशेष महत्व है। बहुतायत किसान अपनी खेती-बारी में इन्हीं कहावतों से प्राप्त निर्देशों का पालन करते हैं। जैसे-
पछुआ हवा ओसावै जोई।
घाघ कहें घुन कबहुं न होई।।
(पश्चिमी हवा में जो ओसाई करते हैं, उस अनाज में घुन कभी नहीं होता)
उपर्युक्त कथन बिल्कुल सत्य है। इसी प्रकार-
शुक्रवार की बादली रही शनिचर छाय।
घाघ कहें घाघिन सुनो बिनु बरसे नहिं जाय।।
(शुक्रवार के दिन आकाश में आया बादल शनिवार को भी छाया रहता है तो समझें कि घनघोर बरसात होगी)- यह कहावत घाघ ने अपनी पत्नी से कही।
इस तरह की कहावतें परम्परा रूप में सदियों से चली आ रही हैं, जो आज भी प्रचलित हैं, और जीवन का अंग बन चुकी हैं। डा. जयनारायण कौशिक ने इसे इस प्रकार विश्लेषित किया है- ‘भारतीय लोककला की क्षेत्र अपार है। इसकी गहराइयों को नाप पाना दुष्कर कार्य है। एक व्यक्ति कई जन्मों में इसकी लीला का भेद पा सकता है। आजकल लोकसंचार के साधन सर्वत्र सुलभ होने के कारण लोक-कला को घर-घर तक चर्चा का विषय बनाया जा सकता है। इसके जरिए संदेश पहुंचाए जा सकते हैं। नई दिशा दी जा सकती है।’-(जनसंचार, संपादक-राधेश्याम शर्मा, लेख-जनसंचार में लोककलाओं का योगदान, पृ.सं. 249-250)
इस प्रकार स्पष्ट होता है कि लोकमाध्यमों का जितना प्रभाव आमजन पर पड़ सकता है, उतना शायद दूसरे माध्यमों का नहीं। लोकमाध्यमों की तीव्रता को नापना किसी के बूते की बात नहीं। बच्चों से लेकर बूढ़ों तक अपना प्रभाव छोडऩे में यह माध्यम शत-प्रतिशत सफल है।