डॉ. सुधांशु जायसवाल*
जितेन्द्र कुमार सिन्हा**
सन् 1842 में एक अंग्रेज व्यवसायी और समाजसेवी जान मैकिनन ने उत्तर भारत का पहला समाचार पत्र ‘द हिल्स’ का मसूरी से प्रकाशन शुरू किया। इस अखबार का प्रिटिंग प्रेस सेमिनर स्कूल के परिसर में था। इस समाचार पत्र में यहां की समस्याओं और खबरों के छपने के बजाए इंग्लैंड और आयरलैंड के आपसी झगडों की खबरें भरी रहती थी। सात-आठ साल तक चलने के बाद यह अखबार बंद हो गया। इसके बाद 1870 में ‘मसूरी एक्सचेंज’, 1872 में ‘मसूरी सीजन’ 1875 में ‘मसूरी क्रॉनिकल’ और ‘बेकन’ तथा ‘ईगल’ समाचार पत्र भी आये जो थोड़े ही समय बाद बन्द हो गये। इनमें से किसी भी समाचार पत्र ने इस क्षेत्र की खबरों को तवगाो नहीं दी। इस प्रकार दलित नाम कभी भी पत्र-पत्रिकाओं के सहयोग का विषय नहीं बन पाया। खास कर गढ़वाल पृष्ठभूमि में तो यही देखने में लाता है। इस दौर की शुरूआती पत्रकारिता को उत्तराखंड की पत्रकारिता भले ही न कहा जाय लेकिन इतना जरूर है कि पत्रकारिता का ककहरा तो इन्हीं अंग्रेजी पत्रों से शुरू हुआ, जिनके प्रकाशक से लेकर सम्पादक और संवाददाता तक स्वयं अंग्रेज ही थे।
वर्ण व्यवस्था में उत्तराखंडी समाज तब आज के मुकाबले ज्यादा जकड़ा हुआ था। सर्वत्र ब्राह्मणों का वर्चस्व था, दूसरे नम्बर पर क्षत्रिय थे। कवि, साहित्यकार, पत्रकार, अधिकारी, पदवीधारी और स्वाधीनता संग्राम की अगुवार्ई करने वाले इन्हीं के बीच से हुए थे। उत्तराखंड मे जितने भी आंदोलन हुए, उनमें उनकी अगुआई प्रमुख रही। जितने भी संगठन और संस्थाएं अस्तित्व मे आये, सभी इनके द्वारा संचालित रहे। जितने भी अखबार निकले, सब इनके द्वारा ही सम्पादित रहे। इनके बीच भी छोटे-बडे की लड़ाई और प्रतिस्पर्धा रही। उत्तराखंड के प्रथम स्थानीय समाचार पत्र ‘समय विनोद’, ‘अल्मोडा अखबार’, यह बात उत्तराखंड के विशेष संन्दर्भ में भी कही जा सकती है कि जहां राष्ट्रीय स्तर पर ही पत्रकारिता ने दलित वर्ग के लिए कुछ काम न किया हो तो उसे मीडिया की उदासीनता ही कहा जा सकता है। हिन्दी मीडिया ने हजारों वर्षों से जूते पर पॉलिश कर रहे और सडकों पर झाडू लगा रहे समाज के बारे मे छिटपुट टिप्पणियों के अलावा शायद ही कुछ उल्लेखनीय लिखा गया हो। लेकिन आरक्षण के विषय में सवर्ण हिन्दू समाज एक दिन जूते पर भी पालिश करता है, सडक पर झाडू लगाता है, तो उनके चित्र, और उनके कारनामों को हिन्दी पत्र प्रथम पृष्ठ पर छापते हैं।
मीडिया में आज भी दलित समुदाय के प्रति कुछ खास रुझान नहीं है। अपने सामाजिक दायित्व ही नहीं अपितु अपने कर्तव्य के अनुसार भी मीडिया को इस बात का भलीभांति अंदाजा होना चाहिए कि दलितों के प्रति उसकी जिम्मेदारियां अन्य वर्र्गों से कहीं ज्यादा हैं। पत्रकार अनिल चमडिया के अनुसार उत्तर भारत में मीडिया संस्थानों में कुछ दलित तो हैं, लेकिन वे अपनी दलित पहचान के साथ नही हैं। वे अपने नाम के साथ जातिसूचक शब्द उस तरह से नहीं लिख सकते, जिस तरह से सवर्ण वर्ग के पत्रकार लिखते हैं। वे लगभग उसी स्थिति मे दिखाई देते हैं जैसे बिस्मिल्लाह खां जिन्होंने खुद को दलित होने से बचाने के लिए खां शब्द अपने नाम के साथ जोड़ लिया था।
मीडिया संस्थानों मे समाज के कमजोर वर्ग का प्रतिनिधत्व बहुत कम है, और आधुनिक लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ के संस्थानों का ढांचा भी पुरातन स्थितियों में जकड़ा हुआ है। मीडिया में कभी धार्मिक, कभी अभिजात्य तो कभी लैंगिक पूर्वाग्रह उभरकर सतह पर आते रहते हैं। भारतीय समाज, जाति आधारित व्यवस्था पर विकसित हुआ है। धर्म को बचाये रखने के लिए भी इसी को आधार बनाया जाता है। भारतीय मीडिया के एक बडे हिस्से मे सांप्रदायिकता, लैंगिक और जातिगत पूर्वाग्रह एक साथ देखे जाते है।
पत्रकारिता में दलितों की खराब स्थिति का एक पहलू यह भी है कि यहां दलित पत्रकारों की संख्या नगण्य है। जो लोग काम कर भी रहे हैं उन्हें संवाददाता से ऊपर का पद प्राप्त नहीं है। उत्तराखंड के प्रमुख समाचार पत्र भी दलितों के प्रति संवेदनशील नहीं है। इन समाचार पत्रों में कभी कभार ही दलितों से जुड़े समाचार प्रकाशित होते हैं। यहां भी प्रस्तुतीकरण एक बड़ा मुद्दा है। यदि दलितों से संबधित कोई घटना या हार्ड न्यूज हो तो भी उसे बडे फीके ढंग से पेश किया जाता है। देहरादून के समीप ही जौनसार भावर जहां प्रदेश के सर्वाधिक अनुसूचित जनजाति के लोग रहते हैं वहीं दूसरी ओर हरिद्वार में सर्वाधिक अनुसूचित जाति की आबादी रहती है। बावजूद इसके इन दोनों क्षेत्रों में दलितों के सवालों को उठाने वाले पत्रकारों और संवाददाताओं की खासी कमी है।
उत्तराखंड मे समाचार पत्र हो या टेलीविजन चैनल सबका ध्यान राजधानी देहरादून की ओर है। इस कारण पिछड़े पर्वतीय क्षेत्रों मे क्या हो रहा है, न तो कोई जानने को उत्सुक है और न मीडिया दिखाने में। यही कारण है यहां के दलित कभी भी क्रांतिकारी स्वरूप में अपनी बात रखने के लिए आगे नहीं आये। यहां के समाचार पत्रों अमर उजाला, दैनिक जागरण, दून दर्पण, शाह टाइम्स और गढवाल पोस्ट में कभी-कभी दलितों की समस्याएं देखने को मिलती हैं। शंभूनाथ शुक्ल, राजनाथ सिंह सूर्य, हृदय नारायण दीक्षित, अनिल चामडिय़ा, राजीव सचान, श्यौराज सिंह बेचैन, डा. विकास कुमार, डा. उदित राज, मोहन दास नैमेसराय, भारत डोगरा जैसे कुछ स्तंभकार समय-समय पर दलित समस्याओं के बारे में लेखन करते हैं। लेकिन अभी इस दिशा को स्थायी व निरन्तर किये जाने की जरूरत है। दूसरी ओर मासिक पत्रिकाएं, साप्ताहिक व पाक्षिक समाचार पत्र दलितों के सवालों को मजबूती से उठा रहे हैं। ‘पर्वतजन’, ‘युगवाणी’, ‘पर्वत पीयूष’, ‘उत्तराखंड शक्ति’, ‘नैनीताल समाचार’, ‘आज का पहाड’, ‘मिशन इन हिमालय’, ‘शक्ति’, ‘स्वाधीन प्रजा’ व ‘नागरिक’ जैसी पत्र-पत्रिकाएं दलितों के सवालों को मुखर होकर उठा रही हैं।
इलैक्ट्रॉनिक मीडिया की नजर मे उत्तराखंड के दलित
उत्तराखंड की पत्रकारिता पर समाचार चैनलों से अधिक समाचार पत्रों का दबदबा है। लेकिन राज्य गठन के बाद यहां इलैक्ट्रानिक टीवी चैनलों का भी विस्तार हो रहा है। उत्तर प्रदेश-उत्तराखंड को मिलाकर दो क्षेत्रीय चैनल सहारा और ईटीवी यहां से प्रसारित हो रहे हैं। हिमाचल और उत्तराखंड को मिलाकर साधना न्यूज ने अपना क्षेत्रीय चैनल शुरू किया है। टीवी 100, वॉयस ऑफ नेशन, न्यूज वन जैसे क्षेत्रीय चैनल यहां से प्रसारित हो रहे हैं। इसके अलावा उत्तराखंड में दूरदर्शन का क्षेत्रीय प्रसारण केन्द्र स्थापित है। एनडीटीवी, जी-न्यूज, इंडिया टीवी, आईबीएन-7 और स्टार न्यूज के रिपोर्टर यहां से समय-समय पर विशेष खबरों पर कवरेज देते रहते हैं। यहां पर वाइस ऑफ नेशन, टीवी 100, साधना न्यूज, न्यूज वन, ईटीवी के चौबीस घण्टे प्रसारित होने वाले चैनल हैं लेकिन धन के अभाव और न्यूज कंटेट के प्रभावी न होने की वजह से यहां पर टीवी चैनल दम तोडते नजर आ रहे हैं। यहां कई समाचार चैनल साल भर से ज्यादा नहीं चल पाये इसका प्रमुख कारण यह है कि ये न्यूज चैनल सैटेलाइट चैनल यानि डीटीएच से नही जुड़े पाये।
उत्तराखंड के क्षेत्रीय समाचार चैनलों की विफलता का एक कारण यह भी है कि ये सूदूर गांवों की खबरों को कम ही महत्व देते हैं। प्रदेश की राजधानी और अन्य जिला मुख्यालय और प्रदेश के मुख्य शहर ही इन चैनलों का कार्यक्षेत्र हैं। सीमित क्षेत्र में प्रसारण के कारण स्थानीय चैनल न तो पत्रकारिता के उद्देश्यों को पूरा कर पाते हैं और न स्थानीय जनता की आवाज बन पाते हैं। उत्तराखंड राज्य में सोलह हजार से भी ज्यादा गांव है और राज्य के अधिकांश गांव दुर्गम पहाड़ी क्षेत्रों में हैं। इलैक्ट्रानिक मीडिया की पहुंच इन गांवों में न के बराबर है। जब इलैक्ट्रानिक मीडिया की पहुंच गांवों तक नहीं हैं और सवर्णाें की पहुंच भी समाचार चैनलों तक नहींं है, तो ऐसे में ग्रामीण क्षेत्रों में निवास करने वाले दलितों की मीडिया में पहुंच के बारे में सहज ही सोचा जा सकता है। साथ ही यह भी जब गांवों के मुद्दे ही मीडिया में नहीं आ रहे तब दलितों के सवाल कहां से आयेंगे।
दूरदर्शन की पहुंच पूरे देश मे नब्बे प्रतिशत लोगों से ज्यादा है और अब डीटीएच के आ जाने के बाद इसकी पहुंच पूरी सौ प्रतिशत हो चुकी है। डीटएच के माध्यम से पूरे देश मे कहीं भी दूरदर्शन और इसके अन्य सहायक चैनल देखे जा सकते हैं। इसके साथ ही दूरदर्शन के क्षेत्रीय प्रसारण को भी इसीलिए बनाया गया है कि इसमें क्षेत्र की ज्वलंत समस्याओं को उठाया जाय। उत्तराखंड में भी सायं चार बजे के बाद क्षेत्रीय प्रसारण शुरू हो जाता है जो देहरादून के दूरदर्शन केन्द्र से रिले किया जाता है। पिछले कई वर्षों के विश्लेषण से ये पता चलता है कि दूरदर्शन केन्द्र ने दलित या जाति आधारित समाज के खोखले नियमों पर प्रहार के लिए किसी भी तरह का जागरूकता कार्यक्रम नहीं बनाये।
दलित समाज की मीडिया से दूरी के कारण
भारत की बात हो या अकेले उत्तराखंड की, दलितों से जुडे मुददों पर कितने लोगों का ध्यान जाता है यह सोचने का प्रश्न है क्योंकि जब मीडिया संस्थान ही दलितों का प्रतिनिधित्व करने से कतराते हंै तब समाज के अन्य वर्गों से दलित समुदाय के विकास की आशा करना बेईमानी होगा।
- दलितों मे शिक्षा का अभाव है इस कारण वे समाज की शैक्षणिक संस्थाओं से दूर ही रहते है।
- दलितों मे एक मानसिकता घर कर गई है कि समाज के उच्च पदों पर उनको कभी प्रतिनिधित्व नहीं मिलेगा क्योंकि वहां तो उच्च वर्ग का रसूख है।
- दलितों के पास आर्थिक साधनों का भी घोर अभाव है, जिस कारण वे समाज के स्वयं को आर्थिक रूप से स्थापित नही कर पाते है।
- दलित समुदाय में मीडिया के प्रति विरोध के लिए एकजुटता नहीं है।
- मीडिया के उच्च संस्थानों के उच्च पदों पर बैठे लोग दलितों को प्रवेश देने के लिए रोड़ा बन जाते हैं यहां तक की उन्हें प्रवेश पाने के लिए शर्त से गुजरना पडता है जिसमें उन्हें उनकी पहचान छुपाने तक की शर्त पर काम देने की बात की जाती है।
- मीडिया मे सवर्ण सहयोगियों का व्यवहार भी दलित वर्ग के साथ अच्छा नहीं होता है। वो बार-बार उन्हें अहसास दिलाते है कि वे दलित यानि दोयम दर्जे के वर्ग से संबंध रखते हैं और इस वर्ग को उच्च वर्ग के साथ बैठने का हक नहीं है।
मीडिया मे होने वाली नियुक्ति पर सवाल उठाते हुए चर्चित मीडियाकर्मी राजकिशोर का कहना है कि दुनिया भर को उपदेश देने वाले टीवी चैनलो में जो रक्तबीज की तरह पैदा हो रहे हैं, नियुक्ति की कोई तर्कसंगत और पारदर्शी प्रणाली नही है।
सभी जगह सिफारिश से नियुक्तियां हो रही हैं। वे मानते है कि मीडिया जगत मे दस हजार से पचास हजार रूपये महीने तक की नियुक्तियां इतनी गोपनीयता के साथ की जाती हैं कि उनके बारे मे तभी पता चलता है जब वे हो जाती हैं। इन नियुक्तियों मे ज्यादातर उच्च वर्ग के लोग ही होते हैं उनके इस फैसले पर सवाल उठे न उठे इस सच को नजरअंदाज नही किया जा सकता है।
पत्रकारिता मे दलित हिस्सेदारी या फिर उनके प्रति सार्थक सोच को सही दिशा नहीं दी गई तभी तो हिंदी पत्रकारिता पर हिन्दू पत्रकारिता का आरोप लगता रहता है। ‘हंस’ के सम्पादक और चर्चित कथाकार राजेन्द्र यादव का कहना है कि हिन्दी पत्रकारिता पूर्वाग्राही और पक्षपाती पत्रकारिता रही है इसका कारण बताते हुए राजेन्द्र यादव कहते हैं कि पत्रकार, जातिभेद से दुष्प्रभावित भारतीय जीवन की वेदना कितनी असहाय है, ये नही समझ पाये। यह सच भी है इसका एक उदाहरण आरक्षण के समय दिखा मंडल मुददे पर मीडिया का एक नया रूप दिखा और वो भी आरक्षण के सवाल पर बंटा हुआ था।
मीडिया के बारे मे दलित समाज क्या सोचता है ये बात काफी मायने रखती है क्योंकि आज वैश्वीकरण के दौर मे कोई भी बात एक देश की सीमाओं तक नहीं रहती। उसका विश्वव्यापी प्रभाव भी देश के सामाजिक स्तर की व्याख्या करता है। आज संयुक्त राष्ट्र संघ जैसे विश्वस्तरीय संगठन, हर देश की सामाजिक और आर्थिक गतिविधियों पर नजर रखे हुए है। इसके लिए मीडिया अहम भूमिका निभाता है। मीडिया ही समाज के विकास के स्तर का मापन का कर सकता है। यह बात दलित विषय मे भी लागू होती है दलित समाज की किन गतिविधियों को सरकार और विश्वस्तरीय संगठनों के सामने लगाना चाहिए। यह बात मीडिया ही तय कर सकता है।
भले ही मीडिया मे दलित वर्ग को नामोनिशां न हो लेकिन दलित वर्ग पर काफी लेख और संपादकीय लिखे जा रहे है। बड़े-बड़े लेख संपादकीय और विश्लेषण इसलिए लिखे जा रहे हैं क्योकि दलित वंचितो के भीतर एक नई चेतना जाग रही है।
सवर्ण पत्र-पत्रिकाओं की एक और प्रवृति देखने में आई है वह यह कि जब कोई पत्र अपनी पाठक संख्या बढाने के साथ-साथ सस्ता कागज विज्ञापन आदि सरकारी सुविधायें लेने के लिए मुनाफा कमाने की स्वार्थपूर्ति हेतु लोकतांत्रिक दिखना चाहता है, तब वह दलित विषयों पर कुछ न कुछ छापकर खानापूर्ति करता रहता है, और दलित वर्ग के लेखकों का भी उपयोग करता है। दलित के पास कोई वैकल्पिक मीडिया की व्यवस्था न होने के कारण देश का नागरिक होने के नाते राष्ट्रीय मंच पर अभिव्यक्ति का हक लेने के लिए वह इस तरह के इस्तेमाल को भी सकारात्मक रूप मे लेते है। पर जब व्यवसाय जम जाता है और पत्र लोकप्रिय हो जाता है तब दूध की मक्खी की भांति दलित प्रश्नों को निकालकर बाहर फेंक दिया जाता है और फिर बांसुरी से वही पुराना वर्णगीत अलापना शुरू होता है।
उत्तराखंड में समाचार पत्रों से ज्यादा पत्रिकाओं दलित समस्याओं केे प्रति गंभीर दिखती हैं। यहां पर क्षेत्रीय पत्रिकाओं कि यूं तो भरमार है लेकिन बहुत कम ही दलित विषय पर लिखना पसंद करती हैं। पत्रिकाओं के रिपोर्टरों को विषय पर मेहनत करने के लिए समय काफी मिल जाता है इस कारण दलित लेख और कवरेज ठीक-ठाक ही होती है। यहाँ की पत्रिकाएं धनाभाव के कारण अपने मूल उद्देश्य से परे भी बहुत कुछ लिख जाती है।
संदर्भ सूची
1. शक्तिप्रसाद सकलानी, उत्तराखंड मे पत्रकारिता का इतिहास, पृष्ठ संख्या 27
2. सकलानी, शक्तिप्रसाद उत्तराखंड मे पत्रकारिता का इतिहास, पृष्ठ संख्या 34
3. सकलानी, शक्तिप्रसाद उत्तराखंड मे पत्रकारिता का इतिहास, पृष्ठ संख्या 40
4. गिर, मित्र और हरीश चन्द्र, मीडिया और दलित, गौतम बुक सेंटर पृष्ठ संख्या 98
5. गिर, मित्र और हरीश चन्द्र, मीडिया और दलित, गौतम बुक सेंटर, पृष्ठ संख्या 99
6. अनिल चमडिय़ा, मीडिया और दलित, पृष्ठ संख्या 112
7. भट्ट, प्रवीन कुमार, ग्रामीण क्षेत्रों की दलित समाज की समस्यायेें, नई दुनिया
8. चमडिय़ा, अनिल, राष्ट्रीय सहारा, 6 मई 2010
9. शुक्ल, शंभूनाथ, अमर उजाला, 7 मार्च 2010
10. अमर उजाला, 24 मई 2002
11. कुमार, संजय, मीडिया और दलित, पृष्ठ संख्या 55
12. कुमार, संजय, मीडिया और दलित, पृष्ठ संख्या 56
13. कुमार, संजय मीडिया और दलित, मीडिया में दलित नहीं, पृष्ठ संख्या 54
14. सिंह, सुरेन्द्र प्रताप, मीडिया और दलित, पृष्ठ संख्या 46
15. राजकिशोर, मीडिया और दलित
16. बेचैन, श्यौराज सिंह, पत्रकारिता में दलित पृष्ठ संख्या 159